ऐसा लगता है कि हमारी हिन्दी इस दौर में किसी काव्य विस्फोट से गुजर रही है। अनगिनत प्रकार की असंख्य कविताएँ दिन-रात रची जा रही हैं। इनमें से अधिकांश कालजयी, कालातीत, अतिकालीन या कालमुक्त कविताएँ जान पड़ती हैं।
इस कोलाहल में आर. चेतनक्रान्ति की कविताओं की धीमी किंतु स्पष्ट आवाज अलग से सुनाई देती है। वे काल को जीतने की जगह तेजी से बदलते, जटिल होते, भ्रष्ट होते और विडंबनाग्रस्त होते हमारे समय को ध्यान से सुनने और समझने की कोशिश करती हैं। पूछती हुई कि वो पीढ़ी कैसे तैयार हुई जो अधिकाधिक रक्तपिपासु होती जाती सत्ताओं की पदातिक सेना बनने में अपने जीवन का अर्थ पाने लगी। विश्व बाज़ार ने मनुष्यता को कैसे खरीद लिया और बेच दिया।
समय की इन्हीं चक्करदार किंतु अश्रव्य आहटों से चेतन की कविता बनती है। आलोचना अंक 74 में प्रकाशित इनकी ये सभी कविताएँ इसकी गवाही देती हैं। ये कविताएँ इस सनसनीखेज को पार करने में हमारी मदद करती हैं।
आर. चेतनक्रान्ति बेसाख़्ता हँसी और बेशऊर आज़ादी से ऊब चुके उस देश के नाराज़ कवि हैं जो और अधिक दुख पीड़ा यातना के लिए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया है। शोकनाच और वीरता पर विचलित के बाद उनका नया संग्रह आत्मद्रोह कविता प्रेमियों के बीच चर्चा में है।
प्रस्तुत हैं:
रात
कितनी तनहाई
कितनी ख़ामोशी
हवा यूँ गुम
कि जैसे कर रही हो जासूसी
कुहर साकित
ज्यों किसी बेगुनाह दिल का डर
साज़िशें आ थमी हों
जैसे कि दरवाज़े पर
एक सोचा हुआ
समझा हुआ-सा
सन्नाटा
गली में मुंजमिद है
सो गए हैं सब शायद
अभी तो शाम है
फिर इतना अँधेरा क्यों है
किसके दिल की सियाही रात बनके उतरी है।
चाँद तारे भी नहीं आए अब तलक
या आके लौट गए?
कौन कहे!
सुबह सूरज भी उगेगा या नहीं
क्या मालूम!
ये किसका दिल था
जो इस दर्जा स्याह था, या ख़ुदा!
किसके दिल की सियाही रात बनके उतरी है।
***
मोक्ष : इक्कीसवीं सदी
कमीनापन
स्व-भाव था
महान होने के तमाम संकल्प
धार्मिक थे
जिनका ताल्लुक़
ज़बरदस्ती पढ़ाई
और डंडा दिखाकर सिखाई हुई चीज़ों से था
होना कुछ और था
पर लिखित के दबाव में होते रहे कुछ और,
जो सिखाया गया
वह कुल इतना था
कि किताब पर पाँव पड़ जाए
तो विद्या माई से माफ़ी माँगनी है
और नकल से पास होकर धन्यवाद करना है भगवान का
पर आख़िरकार अपना वक़्त लौटा
थकी हुई महानताओं
और ऊँघती सुंदरताओं को रौंदता हुआ
और हम वो हो उठे
जो दरअसल हम थे
कायर क्रूर कूपमंडूक
जादू मंतर का संदूक़।
***
वे
वे सबके काम आते थे
वे मूर्खता का रिज़र्व बैंक थे
बदहवासी और बेवकूफ़ी का
राष्ट्रीय कोष
देश में जो भी सबसे कम हुनर से हो सकता था
वह करने के लिए
उनको ही बुलाया जाता
रतजगों में शोर कराने
कीर्तनों में डांस मचाने
चीख़दार
पीकदार चैनलों की
टी आर पी बढ़ाने
सिरकटे एंकरों के कबन्ध-नृत्य में
ढोल बजाने
उत्तेजक फ़िल्मों के टिकट ख़रीदने
ख़ाली पंडाल भरने
धर्म का राज्य स्थापित करने
वे सब करते
पिताओं, अध्यापकों, गुरुओं
और ग्रंथों ने
उन्हें शक्तिशाली पुरुषों
और रहस्यमय ताक़तों का
अनुकरण सिखाया था
उनके लिए किताबें भी
अलग ढंग से छपतीं
मोटे अक्षरों में
जो बतातीं कि करना क्या है
यह नहीं कि सोचना क्या है
जो सोचने को कहतीं
या जिनकी छपाई महीन होती
उन्हें वे तुरन्त जला देते
जैसे उन लोगों को
जो उन्हें रुकने और सोचने को कहते
सुबह उन्हें किक मारकर छोड़ दिया जाता
और वे रात देर तक
घुड़ घुड़ घों घों करते
शहर-भर में भागते रहते
उन्हें रोकना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन हो जाता
वे जो कहते वह तो करते ही
पर जो नहीं कहते उसे ज़रूर ही करते
मसलन गाय बचाने जाते तो आदमी मार आते
धर्म पढ़ाने जाते तो घर फूँक आते
त्योहार मनाने जाते तो दंगे कर आते
पुराने बदरंग जाँघिये
और नए कुर्ते पहनकर
वे झुंड में निकलते
मोबाइल पर तिलक
और लैपटॉप पर माला चढ़ाकर
धरती को डंडों से कोंचते
तलवारें लहराते
वे हर वह काम करने को तैयार मिलते
जिसकी न देश को ज़रूरत थी न दुनिया को
स्थायी कार्यक्रम के तौर पर
उन्हें एक सादा काग़ज़ दिया गया
जिस पर बीचोंबीच
एक मोटी लकीर खिंची थी
उनके मोटे दिमाग़ के हिसाब से
भविष्य का यह नक़्शा ठीक ही था
उनका काम लकीर के
एक तरफ़ कूदते रहना था
जिसमें उनको, ज़ाहिर है,
इतना मज़ा आया
कि वे बाक़ी सब भूल गए
वे अजीब थे
नहीं, शायद बेढंगे
नहीं, डरावने
न, सिर्फ़ अहमक
नहीं, अनपढ़
नहीं, पैदाइशी हत्यारे
नहीं, भटके हुए थे वे
नहीं, वे बस किसी के शिकार थे
हाँ, शायद किसी के हथियार
पढ़े-लिखे लोगों के लिए
वे पहेली हो गए थे
वे बैठे उन्हें बस देखते रहते
उनकी समझ में न आता
कि वे कब कहाँ और कैसे बने
क्यों हैं कौन हैं क्या हैं!
दाम्पत्य की ऊब का विस्फोट?
वैवाहिक बलात्कारों की जहरीली फसल?
स्वार्थ को धर्म और धर्म को स्वार्थ बना चुके
पाखंडी समाज का मानव-कचरा?
ऊँच-नीच के लती देश की थू थू था था?
या असहाय माता-पिता की
लाचारियाँ दुश्वारियाँ बदकारियाँ?
या कुछ भी नहीं
बस मांस-पिंड?
***
दुनिया मर रही है
पेड़ यूँ ही नहीं सूख रहे
पहाड़ यूँ ही नहीं पिघल रहे
धरती ऐसे ही नहीं हिलती
यूँ ही नहीं पगला उठे हैं बादल
मनुष्यता यूँ ही आत्मघाती नहीं हो गई
दुनिया के सबसे सफल लोग
रात-दिन इसी काम में लगे हैं
और देखिए
कि छोटे-छोटे सफल और कितने
उनके पीछे आ रहे हैं
उन्हीं के किए को बार-बार करते हुए।
अच्छी कविताएँ
एक सांद्र उदासी की तरह पुकारती हुई!
मुद्रण में कविता की पंक्तियां कुछ नजदीक होनी चाहिए।
— बोधिसत्व