फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ ने भारत में फिर से एक तूफ़ान खड़ा कर दिया है।
नागपुर में आयोजित एक प्रोग्राम के दौरान मशहूर पाकिस्तानी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ पढ़ी गई, जिसके बाद पुलिस ने तीन लोगों के ख़िलाफ़ गंभीर धाराओं में एफआईआर दर्ज़ की है। इनमें दिवंगत अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता वीरा साथीदार की पत्नी पुष्पा साथीदार भी शामिल हैं।
इससे पहले भी इस नज़्म को लेकर विवाद हो चुका है। सन् 2019 में आईआईटी कानपुर में सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान इस नज़्म को पढ़ा गया था। जिसके बाद इसे हिंदू विरोधी बता दिया गया था।
फ़ैज़ की या नज़्म पिछली आधी सदी से पाकिस्तान और हिंदुस्तान में हुक्काम की नींद हराम करती रही है।
आखिर ऐसा क्या है इस नज़्म में? इस नज़्म के पाठगत काव्यात्मक आशय और इसके कुपाठ की राजनीति पर ‘आलोचना’ अंक-68 में प्रकाशित आख़िरी सफ़ा “अनर्थ के विरुद्ध” का यह अंश पढ़ा जा सकता है।
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किसी कविता का जानबूझकर किया जा रहा कुपाठ उसकी हत्या करने के बराबर है। इस हत्या की अनदेखी सिर्फ़ इसलिए नहीं की जा सकती कि यह एक पूर्वघोषित हत्या थी, कि हम सभी को इसके बारे में पहले से बता दिया गया था।
सभ्यताएँ अपनी श्रेष्ठ कविताओं से पहचानी जाती है। लोगों के मारे जाने से सभ्यताएँ नष्ट नहीं होती, लेकिन कविताओं के नष्ट होने से उनके ख़त्म हो जाने का वास्तविक ख़तरा पैदा हो जाता है।
फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ भारतीय उपमहाद्वीप में 80 के दशक से प्रतिरोध की सबसे मकबूल शायरी के रूप में प्रतिष्ठित है। सभी जानते हैं कि इसकी रचना पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक के सैनिक इस्लामिक शासन की मुखालफ़त करने के लिए की गई थी। इक़बाल बानो के गायन ने इस नज़्म को प्रतिरोध के सशक्त उपकरण के रूप में स्थापित कर दिया। यह नज़्म इतनी ख़तरनाक समझी गई कि इक़बाल बानो के उस कंसर्ट में शरीक हुए लोगों के ख़िलाफ़ लंबे समय तक कानूनी और गैर-कानूनी कार्रवाइयाँ की जाती रही।
हिंदुस्तान में भी सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान इस नज़्म की भरपूर गूँज सुनी गई। उसी दौर में आईआईटी कानपुर में कुछ हिंदूवादी तत्वों ने इस पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया। इसके गायन को रोकने की कोशिश की गई। यहाँ तक कि एक जाँच समिति बनाई गई जिसे इस बात का पता लगाना था कि नज़्म हिंदू विरोधी है या नहीं!
मज़ेदार बात यह है कि पाकिस्तान के भीतर और बाहर ऐसे इस्लामी समूह भी हैं जो फ़ैज़ की इस नज़्म को दुनिया में निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा कायम करने के संकल्प के गीत के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं। हम यहाँ इस बात पर गौर करना चाहते हैं कि क्या सचमुच इस नज़्म में ऐसा कुछ है जिसके चलते इसके ऐसे अनर्थ और दुरुपयोग की गुंजाइश पैदा होती है। क्या हम कविता के पाठ और उसकी आलोचना के ऐसे तरीकों की खोज कर सकते हैं, जिससे कि किसी रचना के कुपाठ को रोका जा सके?
अनेकार्थ संभावना कविता की विशेषता होती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि उसका मनमाना अर्थ किया जा सकता है। कविता के किसी ऐसे अर्थ को वैध नहीं ठहराया जा सकता, जिसकी संगति कविता के संपूर्ण पाठ के साथ न लगाई जा सके।
कविता की शक्ति उसकी ध्वन्यात्मकता और व्यंजना पर निर्भर करती है, लेकिन उन्हें पाठ की ठोस जमीन से पैदा होना चाहिए; आलोचक या पाठक की कल्पना से नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि कविता का संपूर्ण पाठ किसी एक ही सरल अर्थ स्तर को संप्रेषित करे। अर्थ के अनेक स्तर हो सकते हैं, आशय की अनेक दिशाएँ हो सकती हैं; लेकिन उनके बीच तर्कसंगत विवेक-सम्मत सम्बन्ध होना चाहिए।
पाठ के भीतर अंतर्विरोध भी हो सकता है, अर्थ के अनेक स्तर एक-दूसरे के विरुद्ध भी हो सकते हैं। लेकिन इस अंतर्विरोध को भी पाठ के साक्ष्य पर ही स्थापित किया जा सकता है। आलोचक की इच्छा या उसके वैचारिक आग्रहों के आधार पर नहीं।
पाठ के भीतर मौजूद अंतर्विरोध का एक उदाहरण बंकिम रचित ‘वंदे मातरम्’ गीत है। इस गीत के पहले दो बंद ‘राष्ट्रीय गीत’ के रूप में स्वीकृत हैं। इस गीत के पहले दो बंदों की विशेषता यह है कि में राष्ट्र की शक्ति को उसकी कोटि-कोटि संतानों की वीरता से निरूपित किया गया है। ये वे दों बंद है जिनकी रचना बंकिम ने सन् 1875 के आसपास ‘गॉड सेव द किंग’ गीत के विकल्प के रूप में की थी।
लेकिन ‘वंदे मातरम्’ के वर्तमान पाठ में मौजूद अगले दो बंदों की रचना ‘आनंदमठ’ उपन्यास में इस गीत को जोड़ने के क्रम में की गई। इन आख़िरी बंदों में संतानों की शक्ति को दुर्गा स्वरूप राष्ट्र माता के तेज से निरूपित किया गया है। आशयों का अंतर्विरोध स्पष्ट है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इस गीत को लेकर उठते रहे विवादों कि कुछ जिम्मेदारी इसकी अपनी भी है।
गीत के दोनों हिस्सों की रचना न केवल अलग-अलग समय में की गई, बल्कि उनके संदर्भ भी अलग-अलग हैं और उनके काव्यगत आशय में भी अंतर है। लेकिन क्या यही बात फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ के बारे में भी कही जा सकती है?
‘वंदे मातरम्’ की तरह ही फ़ैज़ की नज़्म में भी धार्मिक कल्पना का काव्यात्मक उपयोग किया गया है। लेकिन जहां ‘वंदे मातरम्’ कविता में दुर्गा की कल्पना से जुड़े हुए अभिप्राय को राष्ट्रीय माता की कल्पना के ऊपर ज्यों का त्यों आरोपित कर दिया गया है, वहीं फ़ैज़ की नज़्म में धार्मिक आशय को न केवल बदल दिया गया है, बल्कि उसे चुनौती भी दी गई है!
इस नज़्म का उनवान कुरान की एक आयत है। अर्थ है कि अंत में केवल अल्लाह की छवि शेष रहेगी। इस सूत्र का सम्बन्ध इस्लामी परंपरा में कयामत की अवधारणा से है। यह माना जाता है कयामत का दिन सब के फ़ैसले का दिन होगा। इस दिन सभी के अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब किया जाएगा। लोग अपने अपने कर्मों के आधार पर जन्नत या दोजख़ को रवाना कर दिए जाएँगे। सृष्टि में केवल अल्लाह की छवि शेष रह जाएगी।
नज़्म की शुरुआत ‘हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ से होती है। इसकी व्याख्या इसस रूप में की जाती है कि हम कुरान में किए गए इंसाफ़ के वादे के गवाह बनेंगे। अगर कुरान सही है तो हमारे लिए उसकी सच्चाई का गवाह बनना लाज़मी है।
पूरी नज़्म के पढ़ने से जाहिर है कि हम जिन लोगों को कहा गया है वे वही लोग हैं जो दुनिया के ताकतवर लोगों के द्वारा सताए गए हैं, अपमानित किए गए हैं, वंचित किए गए। गौर करने की बात यह है कि नज़्म की शुरुआत में जो बात कही गई है उसका स्वर धार्मिक आस्था को रेखांकित करने का नहीं है।
यह नहीं कहा गया है कि यह तय है या सुनिश्चित है कि ऐसा ही होगा और इसलिए हम उसके गवाह बनेंगे। ‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ में चुनौती का स्वर है। यानी हम देखेंगे कि ऐसा होता है कि नहीं होता है। हम देखेंगे कि कुरान अपना वादा पूरा करती है कि नहीं करती है। यह चुनौती है जो शोषण और अन्याय के शिकार लोगों की ओर से धर्म को दी जा रही है।
आगे की पूरी नज़्म में इंसाफ़ की परिकल्पना को सत्ताधारी लोगों की अंतिम हार और शोषित वंचित जनता के सत्तासीन होने के रूप में प्रस्तुत की गई है। यह देखना मुश्किल नहीं है कि कुरान शरीफ़ में इंसाफ़ की जो कल्पना है, वह ठीक ऐसी ही नहीं है। स्वर्ग और नरक के बँटवारे के साथ वहाँ इंसाफ़ पूरा हो जाता है। इतना ही नहीं, नरक में भेजे गए लोगों को भी स्वर्ग तक पहुँचने का रास्ता दे दिया जाता है। इतना ही करना है कि तौहीद पर ईमान ले आना है। उन्हें इस बात की सजा नहीं दी गई है कि उन्होंने ज़ुल्म किए है। बल्कि यह है कि उन्होंने अल्लाह एक ही है के सिद्धांत को मानने से इनकार किया है।
फ़ैज़ की नज़्म परंपरागत इस्लामी धार्मिक आस्था को चुनौती देने वाली नज़्म है, यह ‘अनल हक’ के उल्लेख से भी नुमाया है। सर्वशक्तिमान अल्लाह की कल्पना को कण-कण व्यापी ईश्वर की सूफ़ी कल्पना से विस्थापित कर दिया गया है। सूफ़ी कल्पना के मुताबिक खुदा और खलके खुदा—ईश्वर की सृष्टि—में कोई फ़र्क़ नहीं है।
फ़ैसले के दिन के बाद अल्लाह का राज कायम होगा—ऐसा कहने की जगह यह कहा गया है कि खल्क़-ए-खुदा राज करेगी। ‘बस अल्लाह का नाम रहेगा’ और ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का’ में बारीक मगर विराट अंतर है। उसको मिटाया नहीं जा सकता।
जाहिर है कि जब अर्जे खुदा के काबे से बुतों के हटाने की बात की जा रही है, उसका एक ही मतलब है कि दुनिया के ताकतवर खुदाओं से काबे को खाली कराया जा रहा है कि वहाँ खुदा को बिठाया जा सके।
स्पष्ट है कि फ़ैज़ की नज़्म में किसी भी तरह के धार्मिक रूढ़िवाद के प्रति सहानुभूति दिखाने की जगह उसकी जड़ खोदने का काम किया गया है। धर्म को यह चुनौती दी जा रही है कि अगर उसे खुद को सच्चा साबित करना है तो उसे इंसाफ़ के अपने वादे को उस रूप में सच साबित करना होगा जो गरीबों और मजदूरों के सपनों से बना है। चुनौती केवल राजनीतिक सत्ता को ही नहीं बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक सत्ताओं को भी दी जा रही है।
इस नज़्म का पाठ निज़ाम-ए-मुस्तफा कायम करने के संकल्प के रूप में जो लोग करते हैं, चाहे वे इस्लामी कट्टरपंथी हों या हिंदू फ़ासीवादी, वे इसकी संपूर्ण अंतर ध्वनियों से अपने कल्पित आशय की संगति नहीं बिठा सकते! यही कारण है कि सारे जाल फ़रेब के बावजूद यह नज़्म ज़िंदा रहती है और कुपाठ रचने वाले मुँह के बल गिर पड़ते हैं।
[‘आलोचना’ अंक-68 में प्रकाशित आख़िरी सफ़ा]