ट्रॉमा सेंटर की आइसीयू के बाहर विजय जी से मुलाकात हुई। विजय प्रकाश सिंह की जीवन-संगिनी निर्मला जी, उनकी बहन रचना और रचना के जीवनसाथी सुबोध भी वहीं थे। और भी कई मित्रा-स्वजन। रोगी से मुलाकात का समय बीत चुका था। वैसे भी गुरुदेव अपनी अंतिम समाधि में जा चुके थे। बस पर्दा गिरना बाकी था।
विजय जी देर तक पिताजी के जीवन के अनजान पहलुओं की चर्चा करते रहे। यह भी बताया कि अस्पताल के बिस्तर पर ही आलोचना का ताज़ा अंक उनके सामने लाया गया था। लंबे अंतराल के बाद यह अंक आया था। कुछ ही दिन पहले, जनवरी के पहले हफ़्ते में। नामवर जी पत्रिका हाथ में न ले सकते थे। उन्होंने आग्रह किया कि पत्रिका उनकी आँखों के सामने लाई जाए। एक-एक कर इसके पन्ने पलटे जाएँ। इस सेवा का सौभाग्य भी विजय जी को ही मिला। नामवर जी की मशहूर पुस्तक-पकी आँखें देर तक उन पन्नों की छानबीन करती रहीं। आलोचक और सम्पादक के रूप में सम्भवतः यह उनका आख़िरी साहित्यिक उद्यम था!
19 फरवरी को रात 11:51 पर उन्होंने चिर समाधि ले ली।
अप्रैल-जून 1967 अंक नामवर जी के सम्पादन में आलोचना का पहला अंक था। नवांक-1। इसी अंक में पहली बार भारत में फ़ासीवादी ख़तरे की चेतावनी दी गई थी। यह जानकारी पुनर्नवा आलोचना के सहस्त्राब्दी अंक-1 (अप्रैल-जून 2000) में नए सम्पादक परमानंद श्रीवास्तव ने दी थी। यह अंक भी ‘फ़ासीवाद और संस्कृति का संकट’ पर केन्द्रित था। नामवर जी प्रधान सम्पादक थे, जो वे जीवन के अंतिम क्षण तक रहे। कहना न होगा कि फ़ासीवाद की सांस्कृतिक प्रेतछाया से संघर्ष ही नामवर जी की आलोचना की धुरी थी। पत्रिका में भी, लेखन में भी।
एक बात पर कम ध्यान दिया गया है। नामवर जी मानते हैं कि भारत में फ़ासीवादी विचारधारा के बीज खुद भारत की ‘महान परम्परा’ में मौजूद थे, लेकिन ज़रूरी खाद-पानी मुहैया कर उसकी भरपूर फसल उगाने का काम उपनिवेश ने किया। बहुत कम बौद्धिकों के पास यह द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक सूझ है। फ़ासीवाद के उपनिवेश और ब्राह्मणवाद के साथ अंतरंग रिश्ते को नामवर जी सबसे बेहतर समझते और समझाते थे। यह कोई पिछले दो चार सालों में आई आँधी नहीं है।
‘महान परम्परा’ और ‘लघु परम्परा’ नृतत्वशास्त्री रॉबर्ट रेड्फील्ड की अवधारणाएँ हैं। दूसरी परम्परा की खोज में शास्त्रीय धर्म और लोकधर्म का विश्लेषण बहुत कुछ ऐसा ही है।
‘‘हमारे इतिहास में राष्ट्रवाद और सम्प्रदायवाद दोनों एक ही साथ पैदा हुए हैं। कहीं ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू तो नहीं हैं, इसकी भी जाँच की जानी चाहिए।…राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ-साथ इस देश में पहली बार, धर्म के आधार पर, दो बड़े धर्मों को माननेवाले जनसमूहों को नाम दिया गया। दोनों को अपनी पहचान बनाने की चिंता हुई। हिंदू आइडेंटिटी और मुस्लिम आइडेंटिटी।’’
(नामवर सिंह, ‘साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद और धर्म-निरपेक्षता’, ज़माने से दो दो हाथ, सं. आशीष त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृ. 21)
यह तो हुआ तथ्य-कथन। इस तथ्य को किसी और के नहीं, खुद इतिहासकार रोमिला थापर के एक लेख के हवाले से उपस्थित किया गया है। यह लेख मॉडर्न एशियन स्टडीज में प्रकाशित हुआ था। जाहिरन नामवर जी का इशारा ‘इमैजिंड रिलीजियस कम्युनिटीज़: एंशिएंट हिस्ट्री एंड मॉडर्न सर्च ऑफ हिंदू आइडेंटिटी’ की ओर था।
अर्थात तीन राजनीतिक अस्मिताओं ने एक साथ जन्म लिया। हिन्दू, मुस्लिम और भारतीय। इसमें उपनिवेश की क्या भूमिका थी? ‘हमारी साहित्यिक परम्परा और भारतीयता की सही पहचान’ निबंध में नामवर जी साम्प्रदायिक आधार पर किए गए ‘बंग-भंग’ के अलावा जेम्स मिल और विन्सेंट स्मिथ द्वारा लिखे गए भारत के इतिहासों का उल्लेख करते हैं। पहले दो की चर्चा बहुत हुई है, तीसरे की कम। जेम्स मिल भारत के इतिहास को हिंदू काल, मुस्लिम काल और ब्रिटिश काल में विभाजित करने के लिए बदनाम हैं।
इतिहास के इस विभाजन ने ज्ञान मीमांसा के जरिए उपरोक्त हिंदू और मुस्लिम अस्मिताओं का निर्माण किया। साथ ही हिंदू और मुसलमान अस्मिताओं को एक दूसरे का स्थायी शत्रु बना दिया। कहना न होगा कि जेम्स मिल साहब के इतिहास की ज़मीन पर आज भी साम्प्रदायिक ज़हर की खेती भरपूर हो रही है।
विन्सेंट स्मिथ साहब के दृष्टिकोण को हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने जेम्स मिल की काट के रूप में अपनाया। ‘अनेकता में एकता’ का सिद्धांत उन्हीं की देन है। इस सिद्धांत के आधार पर भारतीयता की अस्मिता का निर्माण किया गया। इस सिद्धांत ने भारतीय उपनिवेश को संगठित करने और मज़बूत बनाने का काम किया। आज़ादी के बाद इसी सिद्धांत ने देश की ‘‘एकता और अखंडता’’ के नाम पर भारतीय राष्ट्र-राज्य को आंतरिक असंतुष्टियों का दमन करने के साधन मुहैया किए।
इसी का एक दूसरा रूप ‘अखंड भारत’ की परिकल्पना है। इसमें एकात्म भारत की कल्पना की जाती है। भारत की ‘आत्मा’ एक है। सारी विविधताएँ इसी से निःसृत होती हैं। उन सबको केवल उसी हद तक कबूल किया जा सकता है, जब तक वे ‘आत्मा’ के प्रतिकूल जाने की कोशिश नहीं करतीं। पहले सिद्धांत में विविधताओं के लिए लचीलापन अधिक है, लेकिन एक हद तक ही। तात्विक रूप से दोनों सिद्धांत बहुत अलग नहीं हैं। दोनों उपनिवेश की निर्मितियाँ हैं।
नामवर जी की स्थापना यह है कि जैसे ही ‘भारतीयता’ जैसी किसी ‘भाववाचक संज्ञा’ की कल्पना की जाती है, वैसे ही यह मान लिया जाता है कि भारतीयता कोई सहजात गुण है। ‘‘जिसे इन्हेरेंट क्वालिटी कहते हैं। कोई ऐसी प्रापर्टी है जो भारतीयता जैसी चीज़ होगी। उसको खोजकर, ढूँढ़कर हम निकालेंगे अथवा अर्क़ की तरह इसको हम तैयार करेंगे। कठिनाई इसमें यह है कि जैसे ही उन कुछ तत्वों का निरूपण हम करेंगे, वैसे ही इनमें से एक तत्व या कुछ तत्व नहीं मिलते तो हमें कहना और मानना होगा कि यह भारतीय नहीं है।’’ क्या भारत में उभरे फ़ासीवाद का इससे बेहतर निरूपण हो सकता है?
कौन भारतीय है और कौन नहीं है, इसे तय करने का सवाल फ़ासीवाद का आधारभूत एजेंडा है। उत्तर-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकी के सहारे नामवर जी यह दिखा देते हैं कि ‘भारतीयता’ की यह कल्पना उपनिवेशी और ओरिएंटलिस्ट या प्राच्यवादी ज्ञानशास्त्रा का बुनियादी सिद्धांत है। इसी से भारतीय और यूरोपीय अथवा पूर्व और पश्चिम का द्वैत निर्मित होता है।
जैसे ही हम यह मान लेते हैं कि उपनिवेशक हमसे अलग तरह के लोग हैं, वैसे ही यह भी मान लेते हैं कि हमें उन्हीं की तरह बनना है या उनकी तरह नहीं ही बनना है! या कुछ मायनों में उनकी तरह बनना है और कुछ में नहीं बनना है। मसलन अंग्रेजी तो पढ़नी है, लेकिन आधुनिक विज्ञान नहीं पढ़ना। यानी ‘वे’ हमारी सारी चेतना की धुरी बन जाते हैं। यही हमारी दिमाग़ी गुलामी का आधार बन जाता है। जब तक यह द्वैत बना रहता है, तब तक हम इससे मुक्त नहीं हो सकते। राजनीतिक रूप से सत्ता-हस्तांतरण हो जाने के बाद भी!
नामवर जी के अनुसार भारतीय पुनर्जागरण या नवजागरण के नाम से जानी गई परिघटना इसी द्वैत की निर्मिति थी। भारतीयता यानी विविधता को सँभालकर रखनेवाले सारतत्व की खोज में ‘हिन्दुओं’ और ‘मुसलमानों’ को अपने-अपने स्वर्णिम अतीत की परिकल्पना करनी पड़ी, क्योंकि सारतत्व में मिलावट नहीं चल सकती। इन्हीं परिकल्पनाओं से हिंदू और मुस्लिम अस्मिताएँ बनीं, जो एक दूसरे के साथ निरंतर द्वंद्व-युद्ध की स्थिति में रहने के लिए अभिशप्त थीं। देश का विभाजन इसी द्वंद्व की अंतिम परिणति थी।
जिस तरह ग्राम्शी ने इटली में उभरे फ़ासीवाद के बीज वहाँ 19वीं सदी में हुए पुनर्जागरण या रिजारोमेंटो की वैचारिकता में पाए थे, उसी तरह नामवर सिंह भी भारतीय फ़ासीवाद के बीज भारतीय पुनर्जागरण की चेतना में तलाशने पर ज़ोर देते हैं। फ़ासीवाद को परास्त करने के लिए उन बुनियादी अवधारणाओं की छानबीन ज़रूरी है, जो इसे वैधता प्रदान करते हैं। जेल जीवन के दौरान ही ग्राम्शी भी यह समझ पाए थे कि फ़ासीवाद सिर्फ अधिरचना नहीं है। वर्ग-संघर्ष इसका तोड़ नहीं है। उलटे वर्ग चेतना के विकास के लिए फ़ासीवादी नज़रिए को परास्त करना पहली शर्त है।
नामवर जी के सामने यह भी स्पष्ट है कि फ़ासीवाद का बीज राष्ट्रवाद की विचारधारा में ही है। राष्ट्रवाद उपनिवेश की विचारधारा है। राष्ट्रवाद का मूलाधार है ‘राष्ट्रीय’ और ‘अराष्ट्रीय’ का द्वैत। फ़ासीवाद इस द्वैत का प्रत्यक्ष युद्ध में बदल जाना है। यों ही नहीं था, वे याद दिलाते हैं, कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और शहीदे आज़म भगत सिंह जैसे लोग खुद को राष्ट्रवादी कहना पसंद नहीं करते।
हिंदी की बदनसीबी कि फ़ासीवाद की इतनी बारीक समझ देने वाले नामवर जी फ़ासिस्ट सरकार के खि़लाफ देश-भर के लेखकों के पुरस्कार वापसी अभियान के साथ खड़े होने से चूक गए!
हिंदी ‘नवजागरण’ के प्रति यह आलोचनात्मक नज़रिया वीर भारत तलवार, वसुधा डालमिया और आलोक राय जैसे नवजागरण के नए अध्येताओं के मेल में है। इन सभी ने कथित नवजागरण के साथ चल रही साम्प्रदायिक विभाजन की प्रक्रिया पर अलग-अलग ढंग से रोशनी डाली है, लेकिन राष्ट्रवाद की समस्या को रेखांकित करना नामवर जी की नई सूझ है।
हिंदी आलोचना के स्वरूप-विकास पर औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा का गहरा असर पड़ना स्वाभाविक था। लेकिन हिंदी आलोचना ने धीरे-धीरे इसके विरुद्ध अपना प्रतिरोध भी विकसित किया। राष्ट्रवादी चेतना, हिंदी की ‘महान परम्परा’ के निर्माण का उपक्रम और उसका ‘ब्राह्मणवादी’ आग्रह, हिंदू-मुस्लिम संघर्ष को मध्यकालीन भारतीय इतिहास के मुख्य द्वंद्व के रूप में स्वीकार करना, कला के प्रति कुलीनतावादी दृष्टिकोण, आलोचना के ये सभी प्रस्थान-बिन्दु औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा की देन थे। साथ ही उपनिवेश के विरुद्ध एक सचेत प्रतिरोध भी था, जिसने हिंदी आलोचना को मानवतावादी दृष्टिकोण के अलावा लोकमंगल, संघर्ष, स्वाधीनता और समता के मूल्य दिए। कला में रीतिबद्धता, अलंकार-प्रियता और रहस्यवाद को निरुत्साहित करने का नज़रिया दिया।
हिंदी आलोचना के आत्मसंघर्ष का एक रूप ‘ब्राह्मणवादी’ संस्कार और उससे छूटने की छटपटाहट है। कबीर और तुलसीदास के मूल्यांकन का इतिहास इसकी सबसे साफ समझदारी दे सकता है। जब नामवर सिंह ने कबीर के द्विवेदी-मूल्यांकन को दूसरी परम्परा की खोज के रूप में निरूपित किया, तब वे अपने ढंग से एकल परम्परा के औपनिवेशिक विचार को परम्पराओं की बहुलता के विचार से विस्थापित कर रहे थे। आचार्य द्विवेदी ने भले ही कबीर को भारतीय धर्म-साधना की एक ही परम्परा में स्थापित करना चाहा हो, नामवर जी ने उन्हें उससे आज़ाद कर दिया!
इसके अलावा भी, अपने महान गुरु के प्रति सारी श्रद्धा के बावजूद, नामवर सिंह ने कबीर का मूल्यांकन द्विवेदी जी से भिन्न ढंग से किया। द्विवेदी जी के कबीर अपनी सारी क्रांतिकारिता के बावजूद मूलतः एक भक्त हैं। नामवर सिंह कबीर के दुख की सांसारिक जड़ों की तलाश करते हैं और किसान और मज़दूर के शोषण की व्यवस्था में उसे देख लेते हैं। जो वे नहीं देख पाते, वह है जाति-व्यवस्था से कबीर के दुःख का रिश्ता! यह नामवर जी का अंधविंदु है।
इसी तरह दलित साहित्य और स्त्री-लेखन भी उनके बड़े ब्लाइंड स्पॉट हैं। ज़माने की हवा के खि़लाफ जाते हुए भी वे अपने इस अतार्किक ख़याल पर आखिर तक टिके रहे कि साहित्य में विभाजन और आरक्षण नहीं हो सकता! साहित्य केवल साहित्य है, जो स्त्री-पुरुष ब्राह्मण-दलित सबके हाथ आज़माने के लिए समान रूप से खुला हुआ है। आश्चर्य की बात है कि साहित्यिक रूपों और प्रवृत्तियों की राजनीति को समझने-समझाने वाला उनसे बेहतर कोई न हुआ। छायावाद से लेकर नई कविता तक और रूपवाद से लेकर उत्तर-आधुनिकता तक की राजनीति की वे सटीक पहचान कर लेते हैं, लेकिन दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श के उभार के पीछे सक्रिय राजनीतिक आकांक्षाओं को नहीं देख पाते।
कवि के रूप में मुक्तिबोध के महत्व को स्थापित करने वाले नामवर सिंह का उनकी आलोचना-पद्धति से एक नाजुक और जटिल रिश्ता था। मुक्तिबोध ने सबसे पहले आलोचना की जड़ समाजशास्त्रीय पद्धति और आधुनिकतावादियों की जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि को कठघरे में खड़ा किया था। उन्होंने रूप और अंतर्वस्तु के द्वन्द्वात्मक रिश्ते की छानबीन पर आधारित मार्क्सवादी आलोचना की नई पद्धति का विकास किया, जिसकी श्रेष्ठ उपलब्धि ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ है।
द्वंद्वात्मकता और सापेक्षता विपरीत दृष्टियाँ हैं। नामवर जी ने मुक्तिबोध से सूत्रा ग्रहण करते हुए साहित्य की ‘‘सापेक्ष स्वतंत्रता’’ का सिद्धांत प्रस्तावित किया। लेकिन वे बख़ूबी समझते थे कि ‘सापेक्षता की तनी हुई रस्सी पर सब समय संतुलन के साथ चल पाना सम्भव नहीं होता।’ इस रस्सी पर चलता हुआ आलोचक कभी-कभी नई समीक्षा के संरचनावादी आग्रहों की ओर अधिक झुक जाता है। तब वह साहित्य से एक विशिष्ट सौंदर्याभिरुचि की माँग करने लगता है। जहाँ वैसी अभिरुचि नहीं मिलती, वहीं उसके ब्लाइंड स्पॉट बनने लगते हैं।
परम्परा का कोई मूल्यांकन तभी सार्थक है, जब वह वर्तमान की गहरी आलोचनात्मक दृष्टि के साथ किया जाए, यह गुरुदेव से मिली सबसे बड़ी सीखों में एक है। नामवर सिंह की आलोचनात्मक उपलब्धियाँ जगजाहिर हैं। नामवर सिंह के बाद छायावाद ‘स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह’ नहीं रहा, मुक्ति की ऐतिहासिक आकांक्षा का उन्मेष बन गया। छायावाद को दुबारा छायाभास बनाना नामुमकिन हो गया।
नामवर सिंह के बाद किसी रचना को महज सामाजिक आशय और यथार्थबोध के आधार पर महान बताना सम्भव नहीं रहा। इसी तरह महज ‘कलात्मकता’ अथवा ‘आध्यात्मिकता’ के आधार पर निबाहना भी।
नामवर सिंह के बाद आलोचक कहलाने के लिए रचना में निहित रचनात्मक संघर्ष और उसे उत्प्रेरित करने वाले सामाजिक संघर्ष की पड़ताल करने की सलाहियत ज़रूरी हो गई।
नामवर सिंह में यह साहस था कि एक अज्ञात कवि धूमिल की कविता को अपने प्रिय शमशेर जैसे स्थापित कवि की कविता से बड़ी बता सकें और उसे रातोंरात हिंदी का सितारा बना सकें।
आलोचना के विभाजन-अंक की योजना के साथ जब मैं और संजीव जी उनसे मिले तब उनसे ढेर सारी बातें हुईं। आलोचना पत्रिका की भावी रूप-रेखा तय करने के लिए कीमती सुझाव उन्होंने दिए। चलते-चलते मीर साहेब का एक शेर पढ़ा, जो अब हर क्षण हमारे कानों में गूँजता रहता है:
हमसे जो हो सका, सो कर गुज़रे
अब तेरा इम्तहान है प्यारे!
(‘आलोचना’ के सहस्त्राब्दी अंक-60 (अप्रैल-जून, 2019) में प्रकाशित आशुतोष कुमार का ‘आख़िरी सफ़ा’)