अरुंधति रॉय का दूसरा उपन्यास—‘द मिनिस्टरी ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस—2017 में आया था और 2018 के बीतते-बीतते उसका हिन्दी अनुवाद—अपार ख़ुशी का घराना—प्रकाशित हुआ। उनके पिछले उपन्यास से बहुत अलग इस उपन्यास में पूरा उदारीकृत भारत अपने सबसे गहरे संकटों के साथ मौजूद है। यहाँ कई कहानियाँ समानान्तर चलती हैं और दिल्ली से लेकर गुजरात, कश्मीर और छत्तीसगढ़ तक पसरे हुए विकास के भयावह सच को उजागर करती हुई एक विराट कथा-धारा में एकमेक हो जाती हैं, जैसे मुल्क के अलग-अलग कोनों के बाशिन्दों की नियतियाँ आपस में मिल रही हों। अंजुम नामक एक किन्नर उपन्यास के केन्द्र में है जो ज़िन्दगी से बेज़ार होकर एक क़ब्रगाह में रहने लगती है और धीरे-धीरे वहीं क़ब्रों के इर्द-गिर्द ‘जन्नत गेस्ट हाउस’ नाम का एक अच्छा-ख़ासा आशियाना बन जाता है, जहाँ व्यवस्था की मार खाए उसी की तरह के और लोग इकट्ठा होते जाते हैं। संयोग को नए सिरे से एक कथा-युक्ति की प्रतिष्ठा दिलाते इस उपन्यास में हरियाणा का दुलीना कांड है, गुजरात के दंगे हैं, कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई है (उपन्यास का सबसे बड़ा हिस्सा घेरती हुई), छत्तीसगढ़ का हथियारबन्द माओवादी आन्दोलन है, दिल्ली के फ़सीलबन्द शहर से लेकर जंतर-मंतर और दक्षिणी दिल्ली तक की हलचलें हैं, और इन सबके बीच हैं ऐसे अनेक चरित्र, जिनके लिए ज़िन्दगी के मायने एक औसत मध्यवर्गीय शहरी की अपेक्षाओं से बहुत अलग हैं। यह एक ऐसे यथार्थ से आपका सामना कराता है, जिसके आगे आपको अपना जीवन अयथार्थ जान पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं।
आलोचना के इस अंक के लिए हमने जुलाई महीने में अपार ख़ुशी का घराना पर और उसके बहाने अरुंधति रॉय से बात करने का मन बनाया था। 28 जुलाई की एक उमस-भरी शाम को बातचीत का यह संयोग बना। एक दुर्घटना में पैर तुड़ाकर घर बैठे सत्यानन्द निरुपम और सुदीप्ति की मेज़बानी में यह बातचीत सम्पन्न हुई और निरुपम स्वयं एक प्रश्नकर्ता के रूप में इसमें शामिल भी रहे। मूलतः मळयाळी अरुंधति रॉय हिन्दी बोलने में बहुत सहज नहीं हैं, बावजूद इसके वे लगातार हिन्दी में अपनी बात कहने के लिए प्रयत्नशील रहीं। कई बार अपनी बात को पूरा-पूरा कह पाने के दबाव में उन्हें अंग्रेजी का भी सहारा लेना पड़ा। हमने ज़्यादातर जगहों पर अंग्रेजी के शब्दों/वाक्यों का हिन्दी में तर्जुमा कर दिया है और कहीं-कहीं ज्यों-का-त्यों रहने दिया है। बातचीत का लिप्यंकन करते हुए पूरी कोशिश रही है कि उनकी हिन्दी बोलने की शैली, और इस तरह बातचीत का आस्वाद, भी सुरक्षित रहे। जिन्होंने अरुंधति को हिन्दी बोलते हुए सुना है, वे महसूस करेंगे कि हमने उनकी वाक्य-रचना का मानकीकरण करने से अपने को यथासम्भव बचाया है।
संजीव कुमार : जैसा कि आप जानती हैं, हमारी बातचीत मुख्यतः अपार खुशी का घराना पर केन्द्रित रहेगी। यहाँ आते हुए मैंने ख़ुद से एक सवाल किया कि भले ही हिन्दी अनुवाद 2018 के आख़िर में आया हो, यह उपन्यास तो दो साल पुराना हो चुका है! दो साल के बाद बात करने का क्या मतलब? इसका जवाब यह था कि एक तो इन दो सालों में कई तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं—अच्छी, बुरी हर तरह की और बहुत सारी—उन प्रतिक्रियाओं पर और उनकी रौशनी में आपसे बात करना बनता है। दूसरे, इस उपन्यास में उदारीकरण के बाद के हिन्दुस्तान की एक बड़ी तस्वीर उभरती है, एक तरह से हमारा पूरा समकालीन इतिहास, और अगर उपन्यासकार से अपने समय पर भी बात करनी हो तो इस उपन्यास से बेहतर बहाना और क्या होगा!…तो सबसे पहले मैं यह जानना चाहता हूँ…
अरुंधति रॉय : आपके सवाल से पहले मैं एक बात कहना चाहती हूँ कि उपन्यास की कोई तारीख़ नहीं होनी चाहिए। 20 साल के बाद भी उस पर बात कर सकते हैं। वह कोई पीस ऑफ़ न्यूज़, कोई ख़बर, नहीं है। हम अभी भी शेक्सपीयर के बारे में, टाॅल्स्टॉय की अन्ना कैरेनिना के बारे में बात करते हैं ना!
संजीव कुमार : बिल्कुल सही। यह मेरे मन में आए सवाल का शायद ज़्यादा ठोस जवाब है। तो सबसे पहले यह बताएँ कि इस उपन्यास पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ आई हैं, उनके बारे में आपकी क्या राय है?
अरुंधति रॉय : असल में, मैं तो उतना फॉलो नहीं करती हूँ। मुझे जो चीज़ें अच्छी लगती हैं, वो थोड़ी अलग तरह की हैं। मैं एक नमूना दिखाती हूँ (मोबाइल ऑन करके कुछ तलाशने लगती हैं)। हफ़्ते-भर पहले मैं गाड़ी में थी, रेड लाइट पर। एक आदमी आया और मुझे मेरी ही किताब की पाइरेटेड कॉपी बेचने लगा। मैंने उससे कहा कि आप मुझे मेरी ही किताब बेच रहे हैं। इतना सुनना था कि उसने मोबाइल निकाल लिया और मेरा इंटरव्यू करने लगा कि आप अपनी किताब के बारे में कुछ बताएँगी? (हँसी) और मुझे इतना अच्छा लगा कि जब वो बात कर रहा था, उसी समय फ्रेम में अंजुम भी आ गई और वो हमारी बातें सुनने लगी। (मोबाइल में तस्वीर दिखाती हैं : कार की खिड़की से दिखती किताबों का थाक, उसे थामे पुस्तक-विक्रेता और पीछे एक किन्नर।) सच ए नाइस मोमेंट! अटमोस्ट हैप्पीनेस मोमेंट! जहाँ तक आप जिन प्रतिक्रियाओं के बारे में पूछ रहे हैं उनका सवाल है, मुझे लगता है कि क्या फ़र्क पड़ता है! मुझे मालूम था कि यह एक मुश्किल नॉवल है और शायद इसको समझने में थोड़ा समय लगेगा। इसके बावजूद इसकी पहुँच और अनुवाद वग़ैरह का पैमाना बहुत बड़ा है। 51 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। रोमैनियन, इंडोनेशियन, वियतनामी—सब उसमें शामिल हैं। पोलैंड से किसी ने मुझे इंटरव्यू किया तो कहा कि आप सोचती हैं, यह इंडिया के बारे में है? यह तो पोलैंड के बारे में हैं! अरबी में इसके आने के बाद मुझे पता चला, कोई ईरानियन इस पर एक स्टोरी कर रही थी कि ईरान में हर दूसरा इंसान द मिनिस्टरी ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस क्यों पढ़ रहा है।…मैं इस तरह सोचती हूँ कि…आपने शायद मेरा न्यूयॉर्क वाला पेन लेक्चर पढ़ा होगा, जिसमें मैंने कहा कि लिटरेचर इज़ अ शेल्टर मेड बाय रीडर्स एंड राइटर्स (साहित्य पाठकों और लेखकों की बनाई हुई एक पनाहगाह है)। और अभी मैं इटली में थी…ये हमारा दूसरा नॉन फ़िक्शन इटली में आया तो वहाँ बलूनिया में एक न्यूज़पेपर है, ला रिपब्लिका। वहाँ पर भी ये मुसोलिनी वाला फ़ासिज्म उभर रहा है। वहाँ एक बड़े-से प्लाज़ा में, खुले में एक बहुत अच्छी बातचीत हुई। वह एक पब्लिक मीटिंग की तरह था। मैं तो देखकर दंग रह गई कि वह जगह पूरी भर गई थी! हज़ारों लोग! ख़ैर, मैं जो बताने जा रही थी वो ये कि आख़िर में मुझसे बात करनेवाली पत्रकार ने पूछा कि ‘वैसे बहुत लोग खड़े हो रहे हैं दुनिया में, पर हमें तुम्हारे लिए बहुत फ़िक्र है। आर यू ओके?’ तो मैंने कहा कि देखो, मैं एक उपन्यासकार हूँ। मेरे उपन्यास में एक जन्नत गेस्ट हाउस है जो क़ब्रिस्तान में बना हुआ है और जहाँ हर कमरे में एक क़ब्र है। अंजुम उसे चलाती है। यह ऐसी जगह है जो ज़िन्दगी और मौत के बीच, मर्द और औरत के बीच, जातियों और मज़हबों के बीच की सरहदों को ‘पोरस’ (छिद्रदार) बना देती है। कभी-कभी मुझे लगता है कि पूरी दुनिया दो तरह के लोगों में बँटी हुई है—एक वे जिन्हें अंजुम इस जन्नत गेस्ट हाउस में रहने की इजाज़त दे सकती है और दूसरे जिन्हें वह भगा देती है। और मैं पहली तरह के लोगों में शामिल हूँ। मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानती, पर मैं शामिल हूँ। इसलिए मेरी फ़िक्र मत करो, मेरे लिए उस गेस्ट हाउस में जगह है।…इस बात पर पूरा प्लाज़ा खड़ा हो गया!…तो मेरे लिए जो चीज़ मायने रखती है, वह यह कि आपकी कहानी कहाँ दुनिया में अपने पैरों पर चलने लगती है। ये नहीं कि किसने क्या कहा? मायने यह रखता है कि क्या वह कहानी दुनिया में ज़िन्दा है?
संजीव कुमार : मौत के बीच ज़िन्दगी के बहुत ख़ूबसूरत बिम्ब आपके यहाँ उभरते हैं। कैसे एक क़ब्रगाह में बहुत सताये हुए, लेकिन ज़िन्दादिल लोगों का जीवन फूल-फल रहा है, कैसे कश्मीर में महीनों पहले की एक लाश मिलती है तो उसकी मुट्ठी में बन्द मिट्टी से उँगलियों के रास्ते सरसों का एक पौधा निकला हुआ है—इन्हें मैं बहुत मानीख़ेज इशारों की तरह पढ़ता हूँ। क्या सचमुच कोई ऐसा क़ब्रिस्तान है जहाँ से आपको इस कहानी की प्रेरणा मिली है?
अरुंधति रॉय : मेरे पर्स में एक फ़ोटो है। आपको दिखाती हूँ। वैसे आप उसको पहचानते हैं। (फ़ोटो निकालती हैं। एक पुरानी सफ़ेद-स्याह तस्वीर। इसी तस्वीर का एक हिस्सा किताब के मुखपृष्ठ पर है।) ये देख रहे हैं? क़ब्र? इस क़ब्र के दोनों ओर ये दो औरतें 36 साल से सोती हैं।…बाहर बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो इंडिया से कोई कुछ भी लिखे तो उसे कहेंगे, मैजिक रियलिज़्म। क्योंकि उनको यक़ीन नहीं होता है कि कोई क़ब्रिस्तान में रह सकता है। तो मैं उनको समझाती हूँ कि अभी तो भारत के क़ब्रिस्तान, चूँकि वे ज़्यादातर मुस्लिम क़ब्रिस्तान हैं, घेटो बन चुके हैं जहाँ ग़रीब लोग रहते हैं।…जब मैं लिख रही थी तो मैं ऐसा नहीं सोच रही थी, मतलब मैं मेटाफॉरिकली नहीं लिख रही थी, लेकिन अभी मैं सोच रही हूँ कि अगर आप देखो कि कौन जीता है उस गेस्ट हाउस में, कौन उसको चलाता है, किस-किस को दफ़नाया जाता है, किसके लिए फ़ातिहा पढ़ते हैं, किसके लिए इंटरनेशनल गाया जाता है और शेक्सपीयर का पाठ किया जाता है, तो उसमें आपको एक क्रान्ति नज़र आएगी। यही क्रान्ति है जिसकी हमें ज़रूरत है, भले ही अभी वह धकियाकर क़ब्रिस्तान में पहुँचा दी गई हो। और आज तो यह मेटाफ़ॉरिकल भी नहीं रह गया है, क़ब्रिस्तान पर भी हमले हो रहे हैं। लेकिन लोगों को लड़ना ही पड़ेगा, वही अकेला रास्ता है। जब तक इन लोगों के लिए—जिनकी ऐसी कहानियाँ हैं, ऐसी जाति है, ऐसे सामाजिक-आर्थिक हालात हैं—इनके लिए जब तक कुछ नहीं होता, तब तक आप जितना भी वर्ल्ड कप जीतो, जितना भी जीडीपी बढ़ाओ…क्या मतलब है?
संजीव कुमार : पर मुझे लगता है कि क्रान्ति के मामले में आप एक हद तक निराशावादी भी हैं। जैसे मूसा एक जगह कहता है कि कश्मीरी लड़ाकों को उतना ही एक-दिमाग़ी और उतना ही बेवकूफ बनना होगा जितनी हिन्दुस्तानी फ़ौज है जिसका वे सामना कर रहे हैं। और आगे बोलता है, मैं उद्धृत कर रहा हूँ, ‘ऐसा बेवकूफ़ीकरण…ऐसा अहमक़ीकरण…अगर और जब भी हमें हासिल हो पाएगा, वही हमें आज़ादी दिलाएगा। वही हमारी शिकस्त को नामुमकिन बनाएगा। पहले यह हमारी मुक्ति बनेगा और फिर…जब हमारी जीत हो जाएगी…तो यही हमारी ख़ामी में बदल जाएगा। पहले आज़ादी। फिर सफ़ाया। यही पैटर्न है।’ यह आम पैटर्न देखना क्या बताता है? और मुझे लगता है कि यह किसी एक पात्र की राय-भर नहीं है।
अरुंधति रॉय : वो निराशावाद नहीं है, वो एक हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव है। जैसे मुझे लोग पूछते रहते हैं आम चुनाव के बारे में कि क्या आप निराश हैं, क्या आप मानती हैं कि फेलियर हैं…। मैं कहती हूँ कि लेखक के पास कहीं ज़्यादा बड़ा टाइमफ्रेम होना चाहिए, इतिहास की गहराइयों से लेकर सुदूर भविष्य तक। जो हो रहा है, वह हमारे लिए एक अध्याय है—एक ख़ौफ़नाक अध्याय है, पर अध्याय ही है। इसीलिए मुझे लगता है कि आशा-निराशा के सवाल में थोड़ा बचपना है। कोई–उम्मीद–है–कि–नहीं–जैसे सवाल के मुक़ाबले चीज़ें ज़्यादा कॉम्प्लीकेटिड हैं। वो मुट्ठी में जब फूल आता है, तो वह एक साथ उम्मीद और नाउम्मीदी दोनों है।…यह एक उपन्यास है, कोई पॉलिसी स्टेटमेंट नहीं। और उपन्यास मानवीय दशा और लोगों के आन्तरिक जीवन का सस्टेंड एक्स्प्लोरेशन (अविरत अन्वेषण) है—यह अकेला आर्ट फ़ॉर्म है जो थमकर और जमकर उसका अन्वेषण करता है।
संजीव कुमार : लिसनिंग टु ग्रासहॉपर्स की भूमिका में आपने लिखा है कि ‘एक कथाकार के रूप में मैं सोचती हूँ, कहीं ऐसा तो नहीं कि हमेशा सटीक होने की कोशिश करना, तथ्यात्मक रूप से दुरुस्त होने की कोशिश करना और होना, जो कुछ हो रहा है, उसके महाकाव्यात्मक पैमाने को किसी हद तक कमतर करता है! क्या यह चीज़ आख़िरकार एक बड़ी सचाई को ढँकने का काम करती है? मुझे चिन्ता होती है कि मैं ख़ुद को गद्यात्मक और तथ्यात्मक सटीकता के सँकरे रास्ते पर जाने की इजाज़त दे रही हूँ जबकि ज़रूरत सम्भवतः फीरल हाउल/बनैले विलाप की है, या कहिए, कविता की सटीकता और रूपान्तरकारी शक्ति की है।’ तो नॉन-फ़िक्शन के अनुशासन को बरतते हुए आपको जिस तरह के ‘फीरल हाउल’ की ज़रूरत महसूस होती रही, क्या उसका सन्तोष अन्ततः इस उपन्यास से मिला?
अरुंधति रॉय : ये तो है। काफ़ी लोग सोचते हैं कि जो कुछ नॉन फ़िक्शन में है, उसे ही फ़िक्शनल फ़ॉर्म दिया गया। लेकिन ऐसा नहीं है। जैसे नॉन फ़िक्शन में कश्मीर के बारे में मैंने ज़्यादा नहीं लिखा है, क्योंकि लिखा नहीं जा सकता है। सिर्फ़ फ़िक्शन से आप कश्मीर की असलियत को पकड़ सकते हैं। या फिर जाति की, या हम भाषाओं के जिस महासागर में रहते हैं, उसकी। आपने शायद मेरा वो डब्ल्यू. जी. सेबाल्ड लेक्चर पढ़ा हो, ‘इन विच लैंग्वेज डज़ रेन फॉल ओवर टॉरमेंटेड सिटीज़’। उसमें मैंने कहा था कि हम लोग भाषाओं के एक महासागर में रहते हैं और कैसे उसको एक नॉवल की भाषा में पकड़ सकते हैं, क्योंकि अभी किसी भी भाषा में आप प्योर नहीं हो सकते। मिनिस्टरी में सभी चरित्र एक-दूसरे के लिए अनुवाद कर रहे हैं, एक-दूसरे के लिए व्याख्या कर रहे हैं, वे सभी अलग-अलग जुबानें बोलते हैं और वही इस जगह की वास्तविकता है।
संजीव कुमार : ये पाब्लो नेरूदा की लाइन है ना जो उपन्यास में भी एक जगह आती है?
अरुंधति रॉय : हाँ, वही है। वही मेरे लंदन वाले उस लेक्चर का भी शीर्षक है। वह भाषा और अनुवाद के बारे में है। आपको गूगल करने पर मिल जाएगा। उसको आप ज़रूर पढ़िएगा।
संजीव कुमार : ये सिडशियस हार्ट में संकलित नहीं है?
अरुंधति रॉय : नहीं, उसमें तो दोनों नॉवल के बीच के बीस साल में लिखे गए लेख हैं। यह लेक्चर अभी सिर्फ़ नेट पर है। उसमें इस नॉवल के बारे में भी काफ़ी चर्चा है कि कैसे अलग-अलग ज़ुबानें बोलनेवाले लोग हैं और वे एक फैमिली की तरह इसमें हैं।
संजीव कुमार : आम तौर पर हिन्दी में यह मानने का चलन है कि कोई अगर भारतीय भाषा में नहीं लिख रहा है तो वह भारत के यथार्थ को नहीं जानता है। आपको एकबारगी ख़ारिज कर देने के लिए यह पर्याप्त आधार है कि आप अंग्रेजी में लिखती हैं।
अरुंधति रॉय : यह बड़ी मुश्किल है। आप हिन्दी बोलकर क्या केरल या तमिलनाडु का यथार्थ समझ पाएँगे? नहीं ना? अब ये दलित बुद्धिजीवी तो कहते हैं कि हमको अंग्रेजी सिखाओ, क्योंकि आपकी भाषा में तो पूरा जातिवादी मायने अन्दर तक घुसा हुआ है। तो वो सब इस उपन्यास में है। उर्दू और हिन्दी की लड़ाई भी है।
संजीव कुमार : अच्छा, मैंने जिस भूमिका की चर्चा की, उसमें जो आपने कहा था कि एक लेखक में यथातथ्यता से छूट पाने की इच्छा होती है, तो नॉवल का फ़ॉर्म कितनी छूट देता है? मैं जब यह कह रहा हूँ तो मेरे ध्यान में है कि घराना में बहुत सारी बातें ऐसी हैं जिनको तथ्य की तरह कहने में आपको ख़ासी मुश्किल होती। और चीजें तो छोड़िए, हमारे समय के बड़े राजनीतिज्ञों और दूसरे बड़े नामों की जो तस्वीर इसमें उभरती है, बिना उनका नाम लिए, वह भी नॉन-फ़िक्शन की विधा में कर पाना शायद मुमकिन न होता।
अरुंधति रॉय : असल में, वो तो कोई नई चीज़ नहीं है, टॉल्स्टॉय से लगाकर बहुतों के यहाँ वह मिलता है। उसमें कुछ नया नहीं है। केरल में जाओ तो वहाँ सबको लगता है कि द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स में ये ये है, वो वो है, जबकि यहाँ वो सब काल्पनिक चरित्र लगते हैं। इसी तरह इस उपन्यास में यहाँ सबको चरित्रों में दिखाई पड़ता है कि ये ये है, वो वो है, जबकि वहाँ जाओ तो उनको ये काल्पनिक लगते हैं। फ़ॉर्म को लेकर आपका सवाल महत्त्वपूर्ण है। यह उपन्यास नॉवल के फ़ॉर्म को भी तोड़ता है और उपन्यास होने के बजाय एक शहर होने की कोशिश करता है। और कैसा शहर? मैं ये सोचती हूँ कि जैसे कोई शहर में चल रहा होता है और वो सोचता है कि अरे ये तो मोची है, ये खोमचेवाला है, ये गार्ड है…हम लेबल देते हैं। लेकिन यहाँ हम ऐसा नहीं करते। यहाँ हम देखते हैं कि वो कहीं से आया है, उसकी कोई कहानी है, उसके पास बैठो, बीड़ी पिओ, पूछो कि वह कहाँ से आया है। मतलब, पाठक भी घबरा जाते हैं, क्योंकि आप शहर में ऐसे नहीं चलना चाहते ना! आप आँख बन्द करके चलना चाहते हैं। आप नहीं समझना चाहते कि इस सड़क पर कौन-कौन-से लोग हैं, कहाँ-कहाँ से आए हैं, क्या कहानियाँ लेकर आए हैं। और यह उपन्यास आपको मजबूर करता है कि आप लोगों के बारे में सिर्फ़ उनके पेशे के हवाले से न सोचें। एक तरह से यह सिर्फ़ नॉन फ़िक्शन से छूट नहीं लेता, नॉवल से भी सवाल उठाकर कोशिश करता है कि उसकी चौहद्दियों को भी थोड़ा धक्का दिया जाए। जैसे मैं कहती हूँ द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स के बारे में कि वह एक संरचना और एक भाषा ईज़ाद कर रही थी, लेकिन वहाँ लोगों को पता था कि यह एक फ़ैमिली है। यहाँ अंकल है, आंट है, ग्रैंड पैरेंट्स हैं, बच्चे हैं, और इन सबके बीच एक टूटा हुआ दिल है। लेकिन इस किताब में शुरू से ही वो दिल ध्वस्त और चूर-चूर है। आपकी हर सामान्य धारणा, वह परिवार से सम्बन्धित हो कि जेंडर से सम्बन्धित हो, हर चीज़ यहाँ टूटी-फूटी हुई है। और फिर वे इस क़ब्रिस्तान में अपने टूटे हुए दिल के टुकड़े लेकर आते हैं और एक मरम्मत किया हुआ दिल बनाते हैं। और सारे जो चरित्र हैं ना, सबके भीतर एक बॉर्डर है। अंजुम में जेंडर का है, सद्दाम में जाति और धर्म का है, तिलोत्तमा में वो जाति का है, मूसा में वो कश्मीरी और हिन्दुस्तानी का है, और विप्लव दास गुप्ता में…वो आधा स्टेट है जो सब कुछ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में डालकर बिना किसी अहसास, बिना किसी फीलिंग के, देख सकता है—कोई मर रहा है कोई मार रहा है, सब कुछ—और आधा वह एक असफल आशिक और पियक्कड़ है, एक मानवीय व्यक्तित्व। तो सरहदें उन सभी के भीतर से होकर गुज़रती हैं। और उन सरहदों से आप इस समाज को देखते हैं। यों कहें कि ऐसी जगह से समाज को देखते हैं कि उसके भीतर की सरहदें रौशन हो जाती हैं। समाज के अन्दर के बॉर्डर्स का ग्रिड साफ़-साफ़ दिखने लगता है।…आजकल ये जो इतनी सारी आइडेंटिटीज़ बनाकर उसके अन्दर रहते हैं लोग, उसका बाप तो हमारा कास्ट सिस्टम है, लेकिन सभी पहचानें झिरझिरी, छेददार हैं, और उन्हें ऐसा ही होना है। एक नॉवल में हम…अभी मैं एयरपोर्ट पर थी तो एक आदमी आया, बोला, ‘अरुंधति, कैन आई आस्क यू अ क्वेश्चन? आय एम अ साइकियाट्रिस्ट, दिस इज़ माई पेशेंट।’ तो मैंने कहा, ‘आर यू श्योर इट इज़ नॉट द अदर वे राउंड?’ (हँसी) ख़ैर, उसने मुझसे पूछा, ‘क्या आप मुझे बता सकती हैं, नॉवल और कविता के बीच क्या अन्तर है?’ मैंने कहा, ‘कविता में रचनाकार स्वयं को समेटती है और अपना आसवन करती है और अपने को निर्मल करती है, और फिर वह कविता लिखती है। उपन्यास में उपन्यासकार अपने को बिखेरती है। वह कई लोग बन जाती है। (इन अ पोयम, द पोएट गैदर्स हरसेल्फ़, एंड डिस्टिल्स हरसेल्फ़, एंड क्लैरिफ़ाइज हरसेल्फ़, एंड राइट द पोयम। इन ए नॉवल, नॉवलिस्ट डिस्पर्सेज़ हरसेल्फ़। शी बिकम्स सो मेनी पीपुल।)
संजीव कुमार : वही जो तिलो ने अपनी डायरी में दर्ज किया है कि ऐसी दास्तान को कई चीज़ें होकर ही लिखा जा सकता है।…आपकी बात से मुझे इस उपन्यास को पढ़ने के दौरान शिद्दत से महसूस होनेवाली एक बात याद आ गई। वह यह कि यह उपन्यास मुझे कई ऐसे चरित्रों से मिलवाता है जिन्हें मैं जानता हूँ, पर पहचानता नहीं। मेरी जिज्ञासा है, क्या आपके मन में किसी विचारधारात्मक परियोजना की तरह यह बात रही है कि हम जैसे सामान्य मध्यवर्गीय को जो चीज़ें सामने होकर भी दिखती नहीं हैं, वे दिखनी चाहिए, जो आवाज़ें सुनाई नहीं पड़ती हैं, उन्हें सुनने के लिए कान मिलने चाहिए, जो ज़िन्दगियाँ लगभग बेमानी नज़र आती हैं, उनके मानी पता चलने चाहिए?
अरुंधति रॉय : आप एक तरह से ऐसा सोच सकते हैं, लेकिन मैं कोई यह मध्यवर्गीय व्यक्ति को पेटीशन नहीं कर रही हूँ। मैं ये कह रही हूँ कि अरे, हम लोग मस्ती कर रहे हैं, तुमको कुछ पता नहीं है। तुम अपना रहो अपने बसाए हुए घर में, और जनेऊ पहन लो, और जो कुछ भी करना है, करो, लेकिन असल में अटमोस्ट हैप्पीनेस/अपार ख़ुशी/बेपनाह शादमानी हमारे पास है। हम हार रहे भी होते हैं, मर रहे भी होते हैं, जंग कर रहे भी होते हैं, तब भी हमारे पास है। उपन्यास में जो लोग हैं, बेशक उनका दिल टूटा हुआ है, चूर हो चुका है, लेकिन बहुत बड़ा दिल है। छप्पन इंच का सीना भी उसको समेट नहीं सकता।
संजीव कुमार : अच्छा, पूरे उपन्यास में एक ही चरित्र है जो प्रथम पुरुष में अपनी कहानी कहता है। वह है विप्लव दासगुप्ता, जिसे उसके संगी-साथी गार्सन होबार्ट भी कहते हैं। यह उन चरित्रों में से है जिनसे आपकी वैचारिक दूरी बहुत ज़्यादा है। वह आईबी का आदमी है—एक तरह से वह आपसे ठीक दूसरे छोर पर खड़ा है, हालाँकि वह बदलता भी है। तो ऐसे चरित्र को ही उपन्यास के अच्छे-ख़ासे हिस्से में फ़ोकलाइज़र बनाने की ज़रूरत आपको क्यों महसूस हुई?
अरुंधति रॉय : क्योंकि आपको अपने दुश्मन को भी ठीक से समझना और वाजिब जगह देना है। अपने दुश्मन की बातों में दख़ल देना या उसे कमतर आँकना ओछापन है। मेरे लिए गार्सन होबार्ट एक प्रतिभाशाली व्यक्ति है। और इसीलिए, जैसा कि मैंने पहले कहा, ग्रीक माइथॉलजी में जो आधा घोड़ा आधा मनुष्य होता है ना, उसकी तरह है। वह बंदा आधा ह्यूमन बीइंग है और आधा स्टेट है।…मैंने बहुत कोशिश की उसे थर्ड पर्सन में लाने की, पर वह मान नहीं रहा था। और मैंने सोचा कि एक तरह से यह मेरे ऊपर स्टेट की प्रभुसत्ता की दावेदारी है।…वो सब कुछ को कॉम्प्लीकेट करता है। मतलब अभी का वो स्टुपिड वाला स्टेट नहीं है, वो होशियार, धोखेबाज़, नेहरूवियन स्टेट है। अभी का तो बहुत अपरिस्कृत, भोंडा है। अभी डर सकते हैं लेकिन मज़ा नहीं आता है। ये इडियट हैं। मतलब इडियट उस मायने में नहीं, इलेक्शन और दूसरी सब चीज़ में बहुत तेज़ हैं, पर सचमुच का सॉफिस्टिकेटेड स्टेट तो वो था ना! ऑल बॉल्स वेयर इन द एयर। उनके पैरों के निशान आसानी से नहीं दिखते थे, आज वाले तो धम-धम, धम-धम करके चलते हैं।
सत्यानंद निरुपम : हाँ, ये अपने हर अत्याचार के निशान छोड़ते हैं। और आमने-सामने करते हैं, कोई दुराव-छिपाव नहीं। पर्देदारी ख़त्म हो गई।
अरुंधति रॉय : हाँ, उसके साथ एक तरह की होशियारी भी ख़त्म है। अब तो ये पूरा आईक्यू ड्रॉप का मामला है। इसीलिए तो ये इतना चिढ़ते हैं लेखकों-कलाकारों से। मेनस्ट्रीम मीडिया को भी ख़रीद कर या डरा-धमका कर इन्होंने उसी काम में झोंक दिया है। अभी मैं एक फ़िल्म देख रही थी, गुड नाइट एंड गुड लक। यह 1950 के दशक के अमेरिका के बारे में है, जहाँ सीबीएस न्यूज़ में एक एंकर था मॉरो, और वह सीधा टकराया सीनेटर मॅकार्थी से। मैं देखते हुए हँस रही थी कि हमारे देश में तो टीवी एंकर ही मॅकार्थी हैं।
संजीव कुमार : अभी मैंने इंडियन एक्सप्रेस में आपकी नई किताब माइ सिडिशियस हार्ट की भूमिका पढ़ी। उसमें एक बहुत दिलचस्प बात लगी मुझे। आपने लिखा है कि जिस समय बाबरी मस्जिद का ध्वस्त होना और बाज़ार का खोला जाना एक साथ घटित हुआ, और भारत की जनता पर साम्प्रदायिकता तथा उदारीकरण का कहर बरपा होने लगा, वह समय आपके लिए बहुत अजीब-सी बेचैनी का समय था। आपके पहले उपन्यास को एक बड़ा अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया था और आप एक नए, आत्मविश्वासयुक्त, बाज़ारोन्मुख भारत की छवि पेश करनेवाले लोगों की क़तार में गिनी जा रही थीं। आपने लिखा है, ‘इट वाज़ फ़्लैटरिंग इन अ वे, बट डीपली डिस्टर्बिंग, टू’। जहाँ असंख्य लोग दरिद्रता के मुँह में धकेले जा रहे थे, वहीं आपकी किताब लाखों की संख्या में बिक रही थी और आपका बैंक-खाता फल-फूल रहा था।…आपकी यह बात, मुझे लगता है, सीमित अर्थ में हम जैसे नौकरीपेशा लोगों की बात भी है। हमारी भी आमदनी और सुविधाएँ बढ़ी हैं। आमदनी में इतना उछाल आया कि मेरे कॉलेज में अब गाड़ी लगाने की जगह नहीं रहती। पहले सब आते होंगे बस से, अब सबके पास एक से ज़्यादा गाड़ियाँ हैं। बहुत सुनियोजित तरीक़े से मेरे पूरे वर्ग की क्रय-शक्ति को बढ़ाया गया है। तो अपनी, और सीमित अर्थ में हम जैसों की भी, व्यक्तिगत ख़ुशक़िस्मती को आप कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय : अपने लेखों में मैंने यह बात कही है कि उदारीकरण ने एक बहुत बड़ा मध्यवर्ग तैयार किया है, जो बाज़ार है और वह सामान ख़रीद सकता है। और जब एक मध्यवर्ग को तैयार किया जाता है तो उसका मतलब है कि उन्हें ग़रीबी से बाहर निकाला जा चुका है। लेकिन किस क़ीमत पर? एक बहुत बड़े निम्नवर्ग की क़ीमत पर, पर्यावरण की क़ीमत पर, जंगलों और नदियों और…इन तमाम चीज़ों की क़ीमत पर। एक समय तक इस प्रक्रिया को लोग समझ नहीं पा रहे थे। किसी भी भाषा में—हिन्दी में, उर्दू में, मलयालम में—इसे समझ नहीं पा रहे थे। क्योंकि वे जाते नहीं हैं, घर में बैठे रहते हैं। पोखरण विस्फोट के बाद मैं नर्मदा गई और जहाँ कहीं भी गई, मुझे यह दिखा कि कितनी बड़ी क़ीमत चुकाई जा रही है इसके लिए। अब आप देखिए कि जो आँकड़े ये देते हैं ग़रीबी के बारे में, उसका क्या मतलब होता है। कल के अख़बार में जब ये बताया गया कि 49 मिलियन, लगभग पाँच करोड़ बच्चे कुपोषित हैं तो इसका मतलब यह भी तो है ना कि उनके मां-बाप भी कुपोषित हैं, उनके दादा-दादी, नाना-नानी भी कुपोषित हैं! लेकिन आप सेलिब्रेट कर रहे हैं! क्योंकि आप जैसे चाहो ग़रीबी रेखा को इधर कर दो, उधर कर दो, जहाँ मर्ज़ी कर दो, ग़रीबी ख़त्म हो गई कि नहीं ख़त्म हुई, यह दावा करने का आधार और अधिकार मिल जाता है ना!…तो मैं जो उस समय लिख रही थी, वह सम्पन्न होते मध्यवर्ग और ऊँची जाति के लोगों के लिए किसी हद तक काउंटर इंट्यूटिव (सहज ज्ञान के विपरीत) था। उनको तो यह दिख रहा था कि इतनी प्रगति हो रही है, गाड़ियाँ आ रही हैं, ये हो रहा है, वो हो रहा है। बाक़ी तो वे नहीं देख रहे थे, तो सोचते थे कि ये क्या कह रही है!
संजीव कुमार : और आपके पाठक उसी तबके से थे।
अरुंधति रॉय : नहीं, उसी तबके से नहीं थे। मैं जो लिखती हूँ, वो तुरन्त कई ज़ुबानों में अनुवाद हो जाता है और उसको उड़ीसा में, बस्तर में, सब जगह लोग पढ़ते हैं, लेकिन मैं मुख्यधारा में अपने पैर जमाकर रख रही थी। मैंने सोचा था कि मैं यहीं रहूँगी, यहीं अपनी बात कहूँगी।
संजीव कुमार : ताकि उनको पता चले।
अरुंधति रॉय : हाँ। और बहुत देर लगी लोगों को पता चलने में। मैं ये कहती हूँ कि माइ सिडिशियस हार्ट के लेख बीस साल तक चली मौसमवैज्ञानिक भविष्यवाणियाँ हैं, और अब वह मौसम आ गया है। अब हमें इसको झेलना है। लोकतंत्र का क्या हुआ, लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं का क्या हुआ, देख लीजिए।…गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स के आने के कुछ ही समय बाद सरकार बदली और फिर न्यूक्लियर टेस्ट हुआ जो आरएसएस का पुराना सपना था। तब जब लोग इसकी ख़ुशी मना रहे थे, मैंने अपना पहला लेख लिखा, ‘कल्पना का अन्त’। मुझे यह समझ में आया कि एक नया दौर शुरू हुआ है, एक नई भाषा आ गई है और हमारी ज़िन्दगियाँ एक नई तरह की राजनीतिक मशीन से मैनेज होनेवाली हैं, जिस मशीन के कल-पुर्ज़ों को हमें गहराई से समझना होगा। एक कल्पनाशील लेखक के दिमाग़ से समझना होगा। चीज़ों की रिपोर्टिंग करना या उनका वर्णन करना काफ़ी नहीं है। जैसे गुजरात कांड हुआ, अब आप इसका वर्णन कर लो कि एहसान जाफ़री के साथ क्या हुआ, इसके साथ क्या हुआ, उसके साथ क्या हुआ, लेकिन इससे आप करुणा या हमदर्दी नहीं जगा सकते। लोगों को फ़र्क़ नहीं पड़ता। वे कहते हैं, ‘तो क्या! सो व्हाट!’ मैं हमेशा से एक बात कहती रही हूँ कि 1990 से पहले दो ताले खुले—बाबरी मस्जिद का और बाज़ार का। दो ताले खोलने से दो क़िस्म का फ़ंडामेंटलिज़्म, इकोनॉमिक फ़ंडामेंटलिज़्म और रिलीजियस-हिन्दू फ़ंडामेंटलिज़्म साथ-साथ आगे बढ़े। किसी को लगा कि ये दोनों तो दुश्मन हैं, एक आधुनिक है और दूसरा आधुनिक नहीं है। पर ऐसा नहीं था। ये साथ मिलकर, हमेशा साथ मिलकर चले और दोनों ने अपना-अपना आतंकवाद मेन्युफेक्चर किया। एक ने कहा, मुस्लिम आतंकवाद, दूसरे ने कहा, माओवादी आतंकवाद। दोनों ने इस बहाने से स्टेट को पुलिस स्टेट बनाया, यूएपीए और आतंकवाद निरोधक क़ानून और ऐसे कई कानून लाए और एक तरह से ये पूरा निगरानी वाला/सर्विलिएंस पुलिस स्टेट बना दिया। क्योंकि पुलिस स्टेट के बग़ैर नवउदारवादी क़ानूनों को लागू करना सम्भव ही नहीं है। मैं अभी बलूनिया में थी तो न्यूयॉर्क के एक सज्जन ने मुझसे बात करते हुए कहा कि उनके विचार में लोकतंत्र और मुक्त बाज़ार साथ-साथ ही चलते हैं। मैं तो ज़ोर से हँसने लगी। मैंने पूछा कि आपकी तबीयत तो ठीक हैं ना, क्या आप गंभीरता के साथ यह बात कह रहे हैं? यह एकदम नामुमकिन है कि आप नवउदारवादी नीतियों को पुलिस स्टेट के बग़ैर लागू कर पाएँ। बस्तर, झारखंड, उड़ीसा—ये सारी जगहें पुलिस स्टेट हैं। सैकड़ों आदिवासी जेल में हैं। और क्यों हैं? बेहतर निवेश वातावरण तैयार करने के लिए ही ना!…उधर पुतिन कह रहा है कि लिबरलिज़्म एक पुराना आइडिया है। अभी चीन में हमारे लोग जाकर इसका बहुत अध्ययन कर रहे हैं कि वे अपने यहाँ के डिसेंट को, असहमति को कैसे-कैसे दबाते हैं, उनका तरीक़ा क्या है। आपने देखा होगा बीबीसी डॉक्यूमेंट्री में कि वहाँ किस तरह हज़ारों-हज़ार मुसलमानों को रीएजुकेशन सेंटर में ला रहे हैं, हमारी उमर के लोगों को नर्सरी राइम सिखा रहे हैं, डांस करा रहे हैं…कितना अपमानजनक है!
संजीव कुमार : नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के हमक़दम होने की बात तो, मेरा ख़याल है, और लोगों ने भी कही है। जैसे मुझे एजाज़ अहमद का लेख याद आ रहा है जिसमें वे बताते हैं कि किस तरह नवउदारवादी निज़ाम इतने कामगारों को बेरोज़गार या अंडरपेड रखता है और अपराध में झोंकता है और वही तबका फ़ासिस्टों को अपनी पैदल सेना के रूप में उपलब्ध हो जाता है, यही उनके स्टॉर्मट्रूपर्स बनते हैं।
अरुंधति रॉय : हाँ, लेकिन अपने प्रकाश करात तो कहते हैं कि अभी पूँजीवाद का विकास वहाँ नहीं पहुँचा है कि फ़ासिज़्म की ज़रूरत पड़े।…असल में, ज़्यादातर लोग बहुत सारी चीज़ों की ओर से आँख मूँदते रहे हैं। पिछले दिनों कारवान में एक आर्टिकल आया था, ‘द लिबरल्स हू लव्ड एंड लॉस्ट मोदी’। न देखा हो तो देखिएगा। मैंने 2004 में एक व्याख्यान दिया था—‘हाउ डीप शैल वी डिग’—जिसमें मैंने कहा था कि हमें फ़ासिज़्म शब्द लापरवाही से इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, पर अगर ये ये ये ये हो रहा है तो यह फ़ासिज़्म है। रेटॉरिकल पैराग्राफ़ था। उसके छपने पर सबसे ज़्यादा मुझ पर हमला किसने किया था? ये लिबरल। अभी जो जगह बनी है, उसको तैयार करने में लिबरल्स की बड़ी भूमिका है।
सत्यानन्द निरुपम : हाँ, पुरस्कार वापसी वाले समय भी आप पर कुछ जाने-माने लोगों की ओर से हमले हुए थे, मुझे याद है…और उसकी कुछ बहुत कटु यादें हैं…
अरुंधति रॉय : और साहित्य अकादेमी वाले मुझे किस चीज़ पर पुरस्कार दे रहे थे? गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स पर नहीं, मेरे लेखों के कलेक्शन पर। मैंने कहा कि यार, तुम्हारे ख़िलाफ़ मैं लिख रही हूँ, तुम्हारी सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़; या तो नीतियों को बदलो या फिर मुझे अवार्ड मत दो!
संजीव कुमार : तो वापस मैं उपन्यास पर जा रहा हूँ।
अरुंधति रॉय : हाँ हाँ, मुझे भी ज़्यादा ख़ुशी उसी बात में मिलती है। उसके साथ जीना मुझे पसन्द है।
संजीव कुमार : घराना की कथा टाइम लाइन पर बहुत आगे-पीछे होती रहती है। बहुत बाद की बात आपको बिना किसी भूमिका के पहले पता चलती है और पहले की बात धीरे-धीरे बाद के किसी मौक़े पर पता चलती है। तो कई लोगों से यह शिकायत मिली कि पढ़ते गए, पढ़ते गए, बहुत दूर तक तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। क्या आपको लगता है कि इसे आसान बनाया जा सकता था?
अरुंधति रॉय : नहीं। मुझे अच्छा लगता है। तकलीफ़ होनी चाहिए। लोगों का कॉन्सन्ट्रेशन ट्वीट में गया और पता नहीं किस-किस चीज़ में गया। याद कीजिए कि जब हम बच्चे थे, किस तरह अपने खिलौने बनाते थे, कितना मशगूल होकर वह सब करना पड़ता था। अब बच्चों के दिमाग़ में बस तैयार चीज़ें धकेली जा रही हैं। तो एटेंशन ग़ायब हो रहा है।…जॉन बर्जर को मैंने बहुत क़रीब से देखा जाना है। वे अब नहीं रहे। मैं उनकी एकाग्रता को याद करती हूँ। किस तरह वो आदमी सुनता था! जैसे धरती पर बारिश की एक-एक बूँद जज़्ब हो रही हो, कुछ भी ज़ाया न जाए। मैं शुरू में जब यह उपन्यास लिख रही थी, तब उन्हीं के घर पर थी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि अरुंधति, तुम कुछ लिख रही हो। अपना कम्प्यूटर खोलो और मुझे सुनाओ।…और वह सुनना मैं याद करती हूँ…। अब इस ट्विटर के दौर में हालत यह है कि आपको अगर एक सेकंड में कुछ समझ नहीं आ रहा है तो हमें एडजस्ट करना पड़ेगा, थोड़ी और बेवकूफ़ी लानी पड़ेगी। ये करने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ।
संजीव कुमार : तो आप ‘स्टूपिडीफिकेशन’ के लिए तैयार नहीं हैं।
अरुंधति रॉय : (ठहाका) अच्छा लगा, आपको याद है। हाँ, मैं तैयार नहीं हूँ। यह नहीं हो सकता कि आप एक शहर से ड्राइव करते हुए गुज़रें और सोचें कि आप इस शहर को जानते हैं। आपको वहाँ जीना होगा। आपको वह समझ बनानी होगी। जैसे द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स के लिए जब बोली लग रही थी—तब तो मैं कुछ भी नहीं थी—तो यूरोप के एक बड़े प्रकाशक ने मुझसे कहा कि आपको पहला चैप्टर दुबारा लिखना होगा। मैंने पूछा, आपको ऐसा क्यों लगता है? तो बोले, कि आप अपने पाठक का एक परायी दुनिया से तआरुफ़ कुछ ज़्यादा ही जल्दी करा रही हैं। तो मैंने कहा कि मुझे लगता है, उस तरह की चीज़ (ठहर कर तआरुफ़ कराना) साठ के दशक में ख़त्म हो गई। लोगों को अपनी ओर से कोशिश करनी पड़ेगी। मैं कुछ भी बदलने नहीं जा रही।…मुझे जटिलता पसन्द है। आपको उससे थोड़ा जूझना पड़ता है और जब आप आख़िरकार उसमें दाख़िल हो जाते हैं, तो आपको महसूस होता है कि हर वाक्य, हर चीज़, वहाँ किसी वजह से है। हर टाइम फ्रेम भी वहाँ किसी वजह से है।
सत्यानन्द निरुपम : आप कई माध्यमों में अपने को अभिव्यक्त करती रही हैं। उसमें सिनेमा है, आर्किटेक्चर है, डिजायन है…और अब आपके लेखन में वे सारे माध्यम रिफ़्लेक्ट होते हैं। मैं चाहता हूँ कि आप मीडियम्स की इस जर्नी के बारे में कुछ बताएँ।
अरुंधति रॉय : जहाँ तक उपन्यास में इन सारे मीडियम्स के हुनर का इस्तेमाल करने की बात है, मैं तय करके तो शायद कुछ भी नहीं करती हूँ। किसी और को जो जवाब मैंने दिया था, वही यहाँ भी कहूँगी। उसने मुझसे पूछा था कि आप जब कुछ लिखती हैं तो अपनी भाषा का चुनाव कैसे करती हैं? मैंने कहा, ऐसा नहीं है कि मेरे सन्दूक में अलग-अलग स्टाइल्स रखी हैं और मैं चुन लेती हूँ कि इस चीज़ के लिए यह वाली ठीक रहेगी, जैसे कबर्ड खोला और देखा कि कहीं जाने के लिए कौन-से कपड़े अच्छे रहेंगे। वह अपने-आप होता है, मुझे पता चल जाता है कि क्या होना चाहिए, एंड आइ नो बिकॉज द ब्लड वेसल्स इन माइ बॉडी ओपन अप। आजकल आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का ज़माना है। वो लोग क्या कर रहे हैं कि म्यूज़िक या नॉवल पूरा फीड करते हैं डेटा की तरह और वे एक परफ़ेक्ट मास्टरपीस बना सकते हैं। ऐलगोरिद्म उसे बनाता है। वे इसे एक प्रॉडक्ट की तरह देखते हैं और फिर परफ़ेक्शन की खोज करते हैं। लेकिन मेरे लिए आनन्द रचने में है। हर वो चीज़, जो आपने पढ़ी है, जी है, जिसके बारे में बातें की हैं, जिससे होकर गुज़रे हैं, वो एक कलाकृति को बनाने में जिस तरह से एक जगह लगती है, आनन्द उसमें है। फिर यह दोयम चीज़ है कि दो लोग उसको पसन्द करते हैं या दो लाख लोग पसन्द करते हैं या पचास लाख करते हैं, या कोई पसन्द नहीं करता। मैं इस उपन्यास के साथ 10 साल रही हूँ। इस भाषा के साथ रही हूँ, इन नोट्स के साथ, इस सोच-विचार के साथ रही हूँ। और जब यह तैयार हो गया तो मेरी देह ने कहा कि यह तैयार हो गया है, दिमाग़ ने नहीं। सो इट इज बिटविन मी, माइ बॉडी एंड दिस नॉवल। इसके अलावा हर चीज़ दोयम है।…और मेरे लिए, मैं नहीं कह रही कि सबके लिए, पर मेरे लिए उपन्यास, कला का सर्वोत्तम रूप है, और इबादत के सबसे क़रीब ठहरने वाली चीज़ है। मेरा हर कौशल और मेरी हर चीज़ उसके लिए इस्तेमाल हो जाती है। मेरे बाल, मेरे नाखून, मेरी आँखें, मेरा दिमाग़…हर चीज़। जैसे आपने इस उपन्यास पर मिलने वाली प्रतिक्रियाओं के बारे में पूछा, वैसे ही द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स के बारे में किसी ने पूछा मुझसे, तो मैंने कहा कि यह उसी तरह है जैसे कोई मुझसे कहे कि आपका गॉल ब्लाडर बहुत छोटा है, या आपके लिवर का आकार बहुत अजीब है। (ठहाका)
सत्यानंद निरुपम : उपन्यास में पहले कोई किरदार आपको कहानी के लिए उकसाता है, या कोई घटना उकसाती है या सीधे प्लॉट उभर कर आता है?
अरुंधति रॉय : यह मामला बहुत उलझा हुआ है। आइ एम अ पर्सन ऑफ़ इंस्टिंक्ट। मतलब, आम तौर पर कुछ प्लान नहीं करती हूँ। आप कुछ-कुछ चीज़ें अपने दिमाग़ में रखने लगते हैं, वह बस धुएँ की तरह होता है और सालों-साल वह धुआँ ही होता है। फिर वह इकट्ठा होने लगता है और आप उससे कोई शक्ल, कोई शिल्प बनाना शुरू करते हैं, और किताब निकल कर आती है। यह कभी इतना सरल नहीं होता कि कोई चीज़ अलग से निकाल कर बताई जा सके। कहानी, और कैरेक्टर्स, और भाषा तथा संरचना—मेरे लिए बराबर का महत्व रखते हैं। मैं कभी ऐसी नॉवलिस्ट नहीं बनूँगी कि कोई पूछ दे मुझे कि आपको किस चीज़ से प्रेरणा मिली और मैं कहूँ, ‘ओ, यू नो, वन डे आइ वाज वॉकिंग एंड आइ थॉट…’ वग़ैरह वग़ैरह। (ठहाका) लिखने की प्रक्रिया में ही चीज़ें अपने को उद्घाटित करती हैं। ऐसा नहीं होता कि आप कोई न्यूज़पेपर कटिंग देखते हैं और फिर सोचते हैं कि आपको इस पर एक कहानी लिखनी है। इसीलिए मैं नहीं चाहती हूँ कि मैं ढेर सारे उपन्यास लिखकर जाऊँ। जो मैं लिखूँगी वह मेरे लिए एक चुनौती होनी चाहिए।…कभी-कभी कोई वाक्य ही आपके लिए एक शुरुआत बन सकती है। इस फ़ोन में मेरे पास इतने सारे नोट्स हैं जो मुझे पता ही नहीं है कि क्यों मैंने लिखा और कब? और इस उपन्यास में वो हैं। (अपने स्मार्टफ़ोन से कई वाक्य पढ़ कर सुनाती हैं।) ऐसी कई चीज़ें हैं, कई नोट्स हैं, बड़ी भारी तादाद है उनकी। जैसे कई साल पहले, मैं उस समय थी जंतर मंतर में जब एक बच्चा रात के दो बजे वहाँ पड़ा मिला था। सब अचरज कर रहे थे, फिर आख़िरकार पुलिस को बुलाया। मैंने बहुत साल उसके बारे में सोचा और मुझे लगता रहा कि हम लोग कितनी सारी चीज़ों के बारे में कितना कुछ कहते हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि उस बच्चे के साथ क्या किया जाए! (उपन्यास में जूनियर मिस जुबीन की घटना ऐसी ही है)…तो इतनी सारी चीज़ें हैं इसमें। जैसे मैं कश्मीर जाती थी तो सबसे पहले मैंने कश्मीरी इंग्लिश अल्फाबेट लिखना शुरू किया (उपन्यास में एक जगह ढाई पेज में कश्मीरी इंग्लिश अल्फाबेट आता है)। मैंने सोचा, ये पूरे मुल्क में एक ऑक्युपेशन की भाषा है।…और कई बार यह भी होता है कि आपको बाद में जाकर कोई ऐसी ख़बर मिलती है जो आपने उपन्यास में लिख रखा है। आपको याद होगा उपन्यास का एक प्रसंग, जिसमें तिलोत्तमा आज़ाद भारतीय के बारे में सोच रही है और फुटपाथ पर सोनेवाले इस बंदे के बारे में सोचते हुए वो उन लोगों के बारे में सोचती है जो सड़क के किनारे सोते हुए कुचल गए थे और वे वहाँ इसलिए सोते थे कि ट्रकों के डीजल के धुएँ से डेंगू के मच्छर मर जाते हैं। अच्छा, अब उपन्यास के आने के महीनों बाद की एक न्यूज कटिंग है मेरे पास, जिसमें फुटपाथ पर सोनेवाले लोग ठीक यही बात कह रहे हैं, वहाँ सोने के बारे में!…तो कितनी ही चीज़ें हैं…और वो सब मेरे पास हैं।…मैं पुरानी दिल्ली में बहुत घूमती हूँ ना, तो अंजुम जैसे लोगों से मेरी पहली मुलाक़ात कैसे हुई, वह दिलचस्प है। मैं सरमद शहीद की दरगाह में बैठी थी। वहाँ पर एक डेरा है जिसमें किन्नर लोग रहते हैं। और मैंने देखा कि कोई एक बूढ़ी-सी थीं, वो किसी को उर्दू अख़बार से पढ़कर पैलेस्टाइन (फ़िलिस्तीन) के बारे में समझा रही थीं। दरगाह के पास वो एक झोपड़ी में रहती हैं। मैंने कहा उनसे, मैं कल-परसों आऊँगी, आपको एक चीज़ दूँगी। मेरे पास एक पोस्टकार्ड था जिसमें पैलेस्टाइन का एक मानचित्र था। उसमें 1948, 1962 और…कैसे कैसे इज़रायल ने पैलेस्टाइन का टेरिटरी ऑक्युपाइ किया, यह उससे बड़ी अच्छी तरह समझ आता था। मैंने उनको दिया और समझाया कि आप जब किसी से बात करते हो तो आराम से समझा सकते हो कि ऐसा हुआ। तो, वो तो उसको पीछे दीवार पर लगाकर क्लास ही लेने लगीं। (हँसी) फिर वहाँ जमावड़ा लगने लगा। मेरा ऐसा कोई प्लान नहीं था कि मैं ये करूँगी। मैं बैठती थी, उनसे बात करती थी और वे मुझसे बात करते थे और फिर और लोग आ जाते थे। वो एक अड्डा जैसा बन गया था।
संजीव कुमार : और ख़्वाबगाह? मतलब इस नाम से नहीं, पर इस तरह की कोई जगह?
अरुंधति रॉय : ऐसी जगह तो होगी, पर…
सत्यानन्द निरुपम : अगर आपको किसी शहर का आर्किटेक्चर/स्थापत्य तैयार करना हो तो कैसा बनाएँगी?
अरुंधति रॉय : वो तो फ़ासिज़्म होता है ना, मतलब, किसी शहर को बनाना। शहर तो अपने-आप बनता है, तैयार होता है।
सत्यानन्द निरुपम : मेरा मतलब था कि आपकी कल्पना के हिसाब से उसमें ख़्वाबगाह जैसी भी एक जगह होनी चाहिए ना!
संजीव कुमार : उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है शायद जन्नत गेस्ट हाउस जैसी जगह।…अच्छा, हम जब इस तरह उपन्यास के कई हिस्सों को लेकर आपसे ऐसे बात करते हैं जैसे यह कोई साथ जिया हुआ जीवन है, तब कौन-सी चीज़ है जो आपको लगता है कि हर बार छूट जाती है? यानी उपन्यास का कोई ऐसा हिस्सा जिसको हमने, लोगों ने उस तरह से नहीं समझा जैसे उसे समझा जाना चाहिए था?
अरुंधति रॉय : एक चीज़ है जो किसी ने इस उपन्यास में नहीं पकड़ा है और मेरे लिए यह उपन्यास का सबसे मार्मिक हिस्सा/मोस्ट पॉयनन्ट पार्ट ऑफ़ द नॉवल है। लोग उसे नहीं समझ पाए हैं, पर उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वो है, जब तिलोत्तमा की माँ हॉस्पिटल में हैलुसिनेशन में कुछ-कुछ बोलती है। केवल मेरे नॉर्वेजियन प्रकाशक ने कहा कि यह हिस्सा सबसे अच्छा है, पर उसको भी यह ज़्यादा समझ में नहीं आया। अगर आप ग़ौर करें तो एक तरह से गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स की अमू, राहेल से बात कर रही है। नहीं, राहेल से नहीं, उस बेबी से जो उसको वेलूथा से हुआ होता। उसकी जाति पर बात करती है, तुम कौन हो…वग़ैरह। इस माँ ने बहुत विरोध झेला है और अब उसे ही अपने हैलुसिनेशन में वह अपनी बेटी की ओर मोड़ रही है, रिडाइरेक्ट कर रही है। यह प्रतिक्रिया है उन सारी चीज़ों पर जो उसने झेली हैं। फिर एक दिन वह तिलो से कहती है कि ‘परयाओं (अछूतों) से कहो कि जल्दी से मेरी टट्टी साफ़ करें!’ यह तिलो के बर्दाश्त से बाहर चला जाता है। उसकी तो रगों में अछूत का ख़ून है। यहाँ आकर वह एकदम फट पड़ती है। (हिस्सा पढ़कर सुनाती हैं) :
‘‘तिलो का ख़ून जैसे अपनी राह से भटककर जंगली रास्तों की ओर चला गया। जिस कुर्सी पर वह झुकी हुई थी, वह बग़ैर चेतावनी के ऊपर उठी और नीचे गिरकर खंड-खंड हो गई। दरकती हुई लकड़ी की आवाज़ से पूरा वार्ड गूँज उठा। सुइयाँ नसों से बाहर निकल आईं। ट्रे में रखी हुई दवा की बोतलें खड़खड़ाने लगीं। कमज़ोर दिलवाले लोगों की एक धड़कन गुम हो गई। तिलो ने उस आवाज़ को अपनी माँ के पैरों से ऊपर की ओर पूरे शरीर में इस तरह जाते हुए देखा जैसे किसी लाश का कफ़न हटाया जा रहा हो।’’
फिर डॉक्टर वर्गीज उसे अपने कमरे में ले जाते हैं।
‘‘उन्होंने कॉफ़ी पी और तिलो की कॉफ़ी अनछुई रही तो उन्होंने कहा कि आईसीयू में जाकर वह अपनी माँ से माफ़ी माँग ले।
‘तुम्हारी माँ कोई मामूली महिला नहीं है। तुम्हें समझना होगा कि ऐसे भद्दे शब्द वे नहीं बोल रही हैं।’
‘ओह, तो कौन बोल रहा है?’
‘कोई और है। उनकी बीमारी। उनका ख़ून। उनकी तकलीफ़। हमारा परिवेश, हमारे दुराग्रह, हमारा इतिहास…’
‘तो किससे माफ़ी माँगनी होगी? दुराग्रह से? इतिहास से?’
कहते हुए वह बरामदे से नीचे उनके पीछे चल पड़ी। आईसीयू की तरफ़।
उनके वहाँ पहुँचने से पहले तिलो की माँ कोमा में चली गई थीं। वे जानने से परे, इतिहास से परे, दुराग्रह से परे, माफ़ी से परे जा चुकी थीं। तिलो बिस्तर पर आई और अपना चेहरा माँ के पैरों में तब तक रखे रही जब तक वे ठंडे नहीं पड़ गए।…सुबह होते ही मरियम आइप की मृत्यु हो गई।’’
आप हमारे ख़ून में बैठी जाति की क्रूरता के बारे में बात कर रहे हैं और इसकी प्रतिक्रिया में आप अपनी माँ को मार देते हैं और उसके बाद आप उस माँ के पैर पकड़ कर बैठे रहते हैं। यह जो जाति की व्यवस्था है, यह ऐसी है कि इसे ऐड्रेस करने के लिए पहले हमें अपनी माँओं को मारना पड़ता है और फिर उसका मातम मनाना पड़ता है। जाहिर है मैं मेटाफोरिटकली कह रही हूँ। यह उपन्यास का बहुत दारुण क्षण है।…मैंने लिखा नहीं, पर यह सचमुच मेरे साथ हुआ। मेरी माँ मरी नहीं, पर कोमा में चली गई थीं। मैंने गुस्से में कुर्सी तोड़ी थी। मेरे अन्दर इतना ग़ुस्सा था!…हर चीज़ में कुछ होता है जिसे आकार लेने में बरसों लग सकते हैं। ये कोई खिलौने की तरह नहीं है।
सत्यानन्द निरुपम : कभी-कभी मुझे मेम्वायर या ऑटोबायोग्राफ़ी पढ़ते हुए लगता है कि उसमें भी आदमी कुछ छुपा लेता है। लेखकों से बात करते हुए कई बार ऐसा सुनने को मिलता है कि यह तो मैंने लिखा नहीं, पर ऐसा हुआ था। ऐसे में मुझे लगता है कि जब आदमी फ़िक्शन लिखता है तो जिस तरह वह दूसरों की ज़िन्दगी के बारे में लिख लेता है, अपने जीवन की घटना उतनी ही आसानी से शायद वह नहीं लिख पाता होगा?
अरुंधति रॉय : फ़िक्शन में आपके सामने मेमोरी, इमैजिनेशन, इंवेंशन, स्टीलिंग (ठहाका)…इन सबके बीच कोई बॉर्डर नहीं होता। गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स में एक हिस्सा है जहाँ एस्था और राहेल याद करते हैं कि अलग होने से पहले उनके माँ-बाप कैसे लड़ते थे, कैसे वे बच्चों को एक दूसरे की ओर धक्का देते थे कि तुम इसको रखना, मुझे नहीं रखना है। तो मेरी माँ ने मुझसे पूछा कि यह सब तुम्हें कैसे याद है? मैंने कहा कि मुझे कुछ याद नहीं, मैंने तो बस अपने मन से गढ़ा है यह सब। तो उन्होंने कहा, ‘नहीं, तुमने अपने मन से नहीं गढ़ा है।’ सोचिए! मैं समझ रही थी कि मैंने यह सब बनाया है।
संजीव कुमार : मतलब आप जो अपने जानते कल्पना से लिख रहे हैं, वह भी शुद्ध कल्पना नहीं है, कहीं आपके ही अन्दर है।
अरुंधति रॉय : मैं हमेशा कहती हूँ, फ़िक्शन इज़ ट्रूथ। मेरे पास एक टीशर्ट है जिस पर यह लिखा है। मेरे लिए यह हाइएस्ट ट्रुथ है—मतलब, अच्छा फ़िक्शन, फालतू का फ़िक्शन नहीं। (ठहाका) यह टीशर्ट की दूसरी तरफ़ लिखा होना चाहिए, फुटनोट।
संजीव कुमार : मैं आपकी हाइएस्ट ट्रूथ वाली बात को इस तरह से भी लेता हूँ कि सच के जिन रूपों का हम साक्षात्कार नहीं करना चाहते, या जिसका साक्षात्कार करने में हमारी बनी-बनायी धारणाएँ कहीं बीच में बाधा बन जाती हैं, एक अच्छा फ़िक्शन एकाएक उन बाधाओं को हटा देता है। जैसे मैं आपको बताऊँ कि घराना में ये जो आज़ाद भारतीय का चरित्र है, ऐसे लोगों को पता नहीं कितनी बार मैंने जंतर मंतर पर देखा है और लगभग हिक़ारत के साथ देखा है कि यह एक पागलपन है, ये जाने कैसे लोग हैं, महीनों-महीनों यहाँ जमे रहते हैं। पर घराना ऐसे लोगों को देखने के लिए मुझे नई निगाह देता है।
अरुंधति रॉय : ये आज़ाद भारतीय मुझे कई जगह मिलते हैं। मेरे कई कैरेक्टर्स इधर-उधर मिलते रहते हैं। अभी मैं पर्यावरण को लेकर किसी सेमिनार में आईआईसी गई थी तो वहाँ आज़ाद भारतीय दिख गए। ये जो आदमी देख रहे हैं ना (तस्वीर दिखाती हैं), वहाँ आए हुए थे।…हम और आप जैसे लोग भी एक तरह से आज़ाद भारतीय जैसे हैं।
संजीव कुमार : अच्छा, एक सवाल रह गया। उपन्यास से मिलनेवाली छूट की जो बात मैं कर रहा था, उसमें यह तो है ही कि कश्मीर के सच को फ़िक्शन में ही पकड़ा जा सकता है, किसी फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग रिपोर्ट में नहीं। पर साथ में यह भी कि कश्मीर के बारे में आप तथ्यात्मक लेखन वाली विधा में कितनी बातें लिख भी सकते हैं? क्या स्टेट उसकी इजाज़त देगा? उपन्यास है तो आप कथा कहकर बहुत कुछ बता सकते हैं। ऐसा है क्या?
अरुंधति रॉय : बिल्कुल है। आप तो बोल भी नहीं सकते। और फिर यह देखिए ना कि कश्मीर की कितनी सारी चीज़ें नॉवल में अलग-अलग व्यूप्वाइंट से आती हैं। वही-वही कहानी आप गार्सन होबार्ट की जगह से देखते हैं, अमरीक सिंह की जगह से, अमरीक सिंह की बीवी की जगह से, मूसा की जगह से, तिलो की जगह से, नागा की जगह से और…यानी कई कोणों से आप एक ही चीज़ को देखते हैं। तो वहाँ एक कॉम्प्लैक्सिटी है। यह कोई ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट नहीं है।…कभी कभी मुझे लगता है कि मैं घराना की दुनिया में ही रहना चाहती हूँ। जिस दुनिया में मैं दस साल थी।
संजीव कुमार : क्या गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स के साथ भी ऐसा हुआ था?
अरुंधति रॉय : गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स की दुनिया तो ऐसी थी जिसे मैंने झेला था और उससे बाहर निकल भागने के बारे में सोचती थी। हम जब छोटे थे तो क्योंकि मेरी माँ तलाकशुदा थी, हमें हमेशा दुर्व्यवहार झेलना पड़ा। लोग कहते, जाओ यहाँ से, यह तुम्हारा घर नहीं है। हमें बड़े-बड़े लोगों के यहाँ कोई न्योता नहीं मिलता था, हम बुलाए नहीं जाते थे।…आज जाने पर पता चलता है, सब लाइन में लगे हैं।
सत्यानन्द निरुपम : अपनी किताबों की असली कमाई आप किस चीज़ को मानती हैं?
अरुंधति रॉय : असली रॉयल्टी? लोगों का प्यार और भरोसा। आपको दिलचस्प घटना बताती हूँ। मैं लन्दन में थी तो अपने भाई के लिए मुझे एक दवा लानी थी। बहुत ज़्यादा मात्रा में लाने की वजह से वह काफ़ी महँगी थी। लगभग 200 पाउंड। केमिस्ट एक पंजाबी थे। उन्होंने पैक कर दिया और दाम लेने से मना कर दिया। मैंने उनसे कहा कि अरे, ऐसे नहीं होता। आप मेरी कोई और ख़ातिरदारी कर दो, पर ये दाम तो ले लो, लेकिन वो माने नहीं। उसके बाद हम मीट लेने गए। वहाँ मीट वाले ने पैसा लेने से इंकार कर दिया। वो पाकिस्तानी थे। उन्होंने कहा कि आपकी किताब मैंने उर्दू में पढ़ी, इतना कुछ सीखने को मिला, आपसे पैसा नहीं लूँगा। हम वहाँ से चले तो मेरे साथ जो दोस्त था, उसने बोला कि आज तो लन्दन का पूरा मार्केट लूटना चाहिए तुमको साथ लेकर।…मैंने अपनी किताबों से बहुत भरोसा कमाया और भरोसा कमाने से क्या होता है कि आपके पास और नायाब चीज़ें आती हैं। जैसे घराना में जो कुछ है, वह आपको रिसर्च से नहीं मिलेगा, वह आपको लोगों से बात करके नहीं मिलेगा। वह ऐसे ही मिलेगा कि पहले आपने जो लिखा है, उससे लोगों का भरोसा हासिल किया और फिर…जैसे मैं बस्तर गई, या कश्मीर गई, वो आप किसी भी क़ीमत में नहीं ख़रीद सकते। यह भरोसा है जिसकी वजह से वे आपको इनवाइट करते हैं। ये भी नहीं है कि वे जब आपको बुलाते हैं तो सोचते हैं कि आप हू-ब-हू उनकी पार्टी लाइन का समर्थन करेंगे। नहीं। यह एक लेखक को दिया जानेवाला विशेष न्योता है।…और बाहर आकर मैंने कोई माओवादी पार्टी लाइन लिखी भी नहीं।…आप जो लिखते हैं, उससे लोगों का आपमें भरोसा जग जाए, इससे बड़ा क्या रिटर्न होगा!
(आलोचना सहस्त्राब्दी अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2019 में प्रकाशित साक्षात्कार)