आलोचना अंक-78 पर एक नज़र

इस अंक में ज़्यादातर आलेख जहाँ युवा आलोचकों के हैं, वहीं समीक्षाएँ वरिष्ठ और लब्धप्रतिष्ठ आलोचकों तथा रचनाकारों की लिखी हुई हैं। अंक को अंतिम रूप देते हुए इस विपर्यय पर ग़ौर करना सुखद प्रतीत हुआ।

संजीव कुमार

अभिलेख, आलोचना, इतिहास और हरदेवी का जीवन

अपने समय में परिवर्तन और नवनिर्माण के असाधारण जज़्बे का प्रमाण देकर इतिहास के पाठों में गुमनाम रह जाने वाली हरदेवी ‘आलोचना’ अंक-78 के सबसे बड़े लेख, लगभग आधा अंक घेरने वाले लेख का विषय हैं। 

1882 . में छपीएक अज्ञात हिन्दू औरतकी पुस्तक सीमंतनी उपदेश से हिन्दी की समकालीन दुनिया का परिचय डॉ. धर्मवीर ने कराया जिनके सम्पादन में मूल संस्करण के आधार पर इसका दूसरा संस्करण 1988 में प्रकाशित हुआ था। इस क्रांतिकारी पाठ को हाथोंहाथ लिया गया, लेकिन वह अज्ञात हिन्दू औरत हिन्दी की दुनिया में शोधार्थी चारु सिंह के लेखअज्ञात हिन्दू स्त्री कैसे बनती है?” (आलोचना, अप्रैलजून 2016) के प्रकाशन से पहले तक प्रायः अज्ञात ही रही। कुछ साधार और कुछ निराधार अनुमान लगाने के प्रयास चलते रहे। मसलन, स्वयं डॉ. धर्मवीर ने दो अलगअलग तरह के अनुमान लगाए, पर उनके पक्ष में कोई सबूत नहीं दे पाए। 

वीर भारत तलवार रस्साकशी में यहाँ तक तो आते हैं कि लाहौर की कई ख़ूबसूरत इमारतों के वास्तुकार कन्हैयालाल की बालविधवा बेटी हरदेई, जिसनेइंग्लैंड में पढ़ने आए इलाहाबादलखनऊ के भावी बैरिस्टर रोशनलाल से प्रेमविवाहकिया था औरविवाह के बाद स्त्रीप्रश्नों को उठाते हुए 1888 में एक पत्रिका भारत भगिनी निकाली थी, उसकेअज्ञात हिन्दू औरतहोने की, ‘वैचारिक दृष्टि से’, प्रबल संभावना है, लेकिन यह मानकर इस अनुमान को आगे नहीं ले जाते कि ‘1882 में ऐसी किताब लिखने के लिहाज़ से हरदेई की उम्र बहुत कम रही होगी 

अंततः अपने शोध के आधार पर चारु सिंह को हीअज्ञात हिन्दू औरतकी हरदेवी के रूप में पहचान करने और उनके बौद्धिक एवं सामाजिक कार्यों को व्यवस्थित रूप में आलेखबद्ध करने का श्रेय जाता है। 2016 में प्रकाशित पहले आलेख के बाद 2020 में प्रकाशित दूसरे आलेखप्रतिलोकवृत्त के रूप में स्त्रियाँ’ (आलोचना, अक्टूबरदिसंबर 2020) में उन्होंने अपने काम का और परिष्कार किया। 

वर्तमान अंक में आप जो आलेख पढ़ने जा रहे हैं, वह हरदेवी के साथ उनकी लंबी यात्रा के गंतव्य की तरह है। यहाँ चारु सिंह अभिलेखीय सामग्री के साथ इतिहासकार के बरताव की सैद्धांतिक परख करते हुए अपने पिछले कामों की सीमाओं को चिह्नित कर रही हैं और नए सिरे से हरदेवी के ऐतिहासिक आख्यान को ऐसा आकार दे रही हैं जहाँकहानी बस उस स्त्री की नहीं रह जाती, …शोध प्रक्रिया की कहानी भी बन जाती है 

उन्हीं के शब्दों में, ‘लेख का स्वर अब हरदेवी संबंधी इस शोध के सूचनात्मक चरण से विश्लेषणात्मक होने की ओर अग्रसर है। यह हरदेवी के जीवन का एक आलोचनात्मक इतिहास है जिसका मुख्य स्वर क़िस्सागोई का रहेगा। हरदेवी के जीवन की कहानी से पहली बार रूबरू कराने की कोशिश में अपनायी गई पिछली वर्णनात्मक शैली की उपयोगिता उन लेखों के साथ समाप्त हो जाती है। उसी कहानी को दोबारा सुनाने का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं। अब कहानी ख़ुद आलोचना के घेरे में होगी। सिर्फ़ कहानी नहीं, वे अभिलेखीय सूचनाएँ भी जिनकी सत्यता का परीक्षण पिछले लेखों में नहीं किया जा सका था। 

इस तरह यह आलेख जितना हरदेवी के बारे में है, उतना ही इतिहास में गुम हो गई ऐसी शख़्सियतों के सामने लाने की पद्धति के बारे में भी है।

अन्य आलेख व समीक्षाएँ

फ़िल्म इतिहासकार रविकांत ने इस बार आलोचना के पाठकों के लिए सिनेमा के बारे में डॉ. आंबेडकर के एक दुर्लभ साक्षात्कार का हिन्दी में तर्जुमा किया है और साथ में एक छोटीसी भूमिका लिखकर आंबेडकर की बातों के महत्त्व पर रौशनी भी डाली है। 

खुशबू सिंह का आलेखलिखी हुई साहित्यिक दुनिया से परे मौखिक साहित्य की विपुल संपदाकी ओर हमारा ध्यानाकर्षण करता है और एक फ़ील्डवर्क के दिलचस्प उदाहरणों से उस संपदा के अभिलेखनविश्लेषण की दिशा में प्रेरित करता है। 

अनुरंजनी, राजेश कुमार, प्रभात कुमार और सुभाष राय के आलेख शोध और आलोचना की अभिसंधि के प्रेरक उदाहरण हैं।

उर्दू के युवा शायर, कथाकार और ब्लॉगर तसनीफ़ हैदर ने हिन्दीउर्दू रिश्तों पर राजकमल प्रकाशन के सालगिरहसमारोह में जो पर्चा पढ़ा था, उसकी ताज़गी तो सम्मोहनकारी है ही, इन दिनों बारबार सिर उठा रहे विवादों के बीच उसके तर्क बेहद मौजूँ हैं। हमें इस अंक में उनके वक्तव्यआलेख को आपके लिए सहेज लेना ज़रूरी लगा। 

इस अंक में ज़्यादातर आलेख जहाँ युवा आलोचकों के हैं, वहीं समीक्षाएँ वरिष्ठ और लब्धप्रतिष्ठ आलोचकों तथा रचनाकारों की लिखी हुई हैं। अंक को अंतिम रूप देते हुए इस विपर्यय पर ग़ौर करना सुखद प्रतीत हुआ। 

हम आशा कर सकते हैं कि मृदुला गर्ग, जवरीमल्ल पारख, अनामिका और महेश दर्पण की लिखी हुई समीक्षाएँ पढ़कर हिन्दी में समीक्षालेखन के प्रति बढ़ती हुई अरुचि में थोड़ी कमी आएगी।

विषय-सूची

संपादकीय

नया इंसान बनाएँगे : संजीव कुमार 

कविता

हिम्मत शाह को याद करते हुए तीन कविताएँ : राजेंद्र शर्मा

आलेख

अभिलेख, आलोचना, इतिहास और हरदेवी का जीवन : चारु सिंह

गीत कहाँ मिलते हैं? : भोजपुरी-भाषी महिलाओं के संसार में रामकथा : खुशबू सिंह

रसराज की नायिकाओं का स्त्री-पाठ : अनुरंजनी

हिन्दी साहित्य में जल-जनित संकट के आख्यान, 1940-60 : प्रभात कुमार

परसाई की निगाह में लेखकों की दुनिया : डॉ. राजेश कुमार

‘वृंदावन’ : आंडाल का महास्वप्न : सुभाष राय

उर्दू-हिन्दी : नया दौर, नए सवाल : तसनीफ़ हैदर

धरोहर

सिनेमा पर डॉ. आंबेडकर : रविकांत

समीक्षा

कोयला खदान में मजूरी : विकट खेला : मृदुला गर्ग

इतिहास की एक ज़रूरी और प्रासंगिक किताब : जवरीमल्ल पारख

नदी घर : तेरह सोपान : अनामिका

आख़िर इस ज़िंदगी से हासिल क्या है? : महेश दर्पण

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संपादक, आलोचना; दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में प्रोफेसर
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