‘आलोचना’ के अंक 72 का यह संपादकीय पिछले साल अक्टूबर के महीने में लिखा गया था। तब से एक पूरा साल बीत गया है। मध्य पूर्व की जंग दुनिया में कैंसर की तरह फैलती जा रही है। यह जंग तब तक जारी रहेगी जब तक उन कुछ सवालों के जवाब नहीं मिलते जिन्हें इस लेख में उठाया गया है।
यह पूर्व प्रकाशित संपादकीय का अपडेटेड संस्करण है।
7 अक्टूबर (2023) को इसराइल पर हमास के अप्रत्याशित हमले की दुनिया भर में निंदा हुई है। राजनीतिक उद्देश्यों से सैनिक आबादियों पर हमला करना आतंकवाद कहलाता है। हमास के इस हमले में लगभग बारह सौ इजराइली मारे गए। लगभग 200 इजरायली लोगों को बंधक बनाकर हमास के हमलावर अपने साथ ले गए हैं। मारे गए और बंधक बनाए गए लोगों में बड़ी संख्या में महिलाएँ और बच्चे शामिल हैं। आज तक बंधक बनाए लोगों की कोई खोज खबर दुनिया को नहीं मिली है।
हमास की इस कार्रवाई को आतंकवाद माना जाए, यह स्वाभाविक है। सन 2006 के फ़िलिस्तीन संसदीय चुनाव में गज़ा पट्टी में हमास की जीत हुई थी। तब से आज तक वहाँ हमास की सरकार चल रही है।
हमास की कार्रवाई का जवाब देने के लिए इसराइल ने उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। लेकिन हकीकत में यह युद्ध गज़ा पट्टी में रहने वाली नागरिक आबादियों के खिलाफ़ लड़ा जा रहा है। मुहल्लों, स्कूलों और अस्पतालों पर हो रही निरंतर बमबारी में अब तक लगभग 4000 (एक साल बाद अब यह संख्या 40000 पार कर चुकी है) लोग मारे जा चुके हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी जेल
गज़ा पट्टी को दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल कहा जाता है। इसके एक तरफ समंदर है और दूसरी तरफ इसराइल की बनाई हुई ऊँची अभेद्य सुरक्षा दीवार। यह सिर्फ़ एक दीवार नहीं है, आधुनिकतम तकनीक के साथ काम करने वाला एक मुकम्मल सैन्य सुरक्षातंत्र है। इस दीवार पर और दूसरी ओर के समंदर पर भी इसराइल का संपूर्ण सैनिक नियंत्रण है। गज़ा पट्टी का आकार प्रकार दिल्ली के चौथाई हिस्से के बराबर है और यहाँ दुनिया की सबसे घनी आबादी रहती है। यानी लगभग 6 लाख लोग।
इसराइल ने शहर की बिजली और ईंधन की आपूर्ति भी बंद कर दी है। गज़ा में काम कर रहे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार समूह बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि अस्पताल पूरी तरह बंद होने के कगार पर हैं, साफ़ पानी की भीषण कमी है, एम्बुलेंस सेवाएँ ठप्प होनेवाली हैं। कल रात यानी इक्कीस अक्टूबर (2023) को इसराइल की सेना ने गज़ा पर हमला और तेज करने की घोषणा की है। कहा जा रहा है कि ऐसा गज़ा में इजरायल की थलसेना के प्रवेश के पहले वहाँ के सुरक्षा तंत्र को पूरी तरह ध्वस्त करने के लिए किया जा रहा है।
पहले से ही दिल दहला देने वाली तस्वीरों की बरसात हो रही है। आने वाले समय में और भी बड़ी तादाद में औरतों-आदमियों और बच्चों का संहार होना तय है।
यह सब सारी दुनिया की आँखों के सामने हो रहा है। अमरीका और उसके साथी देशों के अभूतपूर्व सक्रिय समर्थन से हो रहा है। इन देशों ने गज़ा पर जारी इसराइल के हमले को आतंकवाद नहीं, आतंकवाद के खिलाफ़ न्याय का संघर्ष बताया है। अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इसे इसराइल के आत्मरक्षा के अधिकार के तहत जायज तो ठहराया ही है, इसे दुनिया में लोकतंत्र और शांति के लिए भी जरूरी क़रार दिया है।
भारत ने भी संकट की घड़ी में इसराइल का साथ देने की घोषणा की है। हालांकि भारत ने फ़िलिस्तीन के लिए अपने पुराने समर्थन को दुहराया है। दो-रियासती हल के लिए अपनी प्रतिबद्धता दुहराई है। लेकिन भारत ने अभी तक गज़ा पर इसराइल की अमानवीय कार्रवाई की न तो निंदा की है, न उसे आतंकवाद की श्रेणी में रखने की बात कही है।
संघ के प्रवक्ता बौद्धिक राम माधव ने एक लेख लिखकर इसराइल की सफलता और इस्लामी आतंकवादी हमास के सफाए की कामना की है। लिखा है कि चूंकि भारत भी आतंकवाद का शिकार रहा है, इसलिए वह इसराइल का दर्द समझ सकता है। हालांकि उन्होंने इसराइल को गोल्डा मायर के इस कथन की याद दिलाई है कि इसराइल की सफलता के लिए सैनिक शक्ति के साथ नैतिक शक्ति की भी जरूरत है, लेकिन उन्होंने यह कहने की जरूरत नहीं समझी कि गज़ा में इसराइल की कार्रवाई युद्ध के सभी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानवीय नैतिकता की सभी अपेक्षाओं का नृशंस उल्लंघन है।
जिस तर्क से हमास को एक इस्लामी आतंकवादी कहा जा सकता है उन्हीं तर्कों से इसराइल राज्य को एक यहूदी आतंकवादी राज्य भी कहा जाना चाहिए। जो लोग यह कहते हैं कि ग़ज़ा में इजरायल की कार्रवाई हमास के बर्बर हमले की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, वे फ़िलिस्तीन में इसराइल के अवैध कब्जे और 70 सालों से उसके द्वारा की जा रही उतनी ही बर्बर कार्यवाहियों को याद नहीं करते।
नक़बा निरन्तर
अगर इसराइल की कार्यवाही के लिए स्वाभाविक प्रतिक्रिया का तर्क इस्तेमाल किया जाता है तो हमास की कार्रवाई के लिए भी केवल स्वाभाविक प्रतिक्रिया का बल्कि विकल्परहित प्रतिक्रिया का तर्क दिया जा सकता है। आज भले ही इसराइल को दुनिया के अधिकांश देशों ने मान्यता दे दी हो, लेकिन आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ के 28 सदस्य देशों ने ऐसा नहीं किया है।
जियनवाद इसरायल की वैधता का दावा मुख्यतः दो आधारों पर करता है। पहला आधार यह है कि यहूदी अनादि काल से इसी भूभाग में रहते आए हैं। अगर इस दावे को स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि दूसरे फ़िलिस्तीनी लोग भी वहाँ अनादिकाल से ही रहते आए हैं। ये फ़िलिस्तीनी लोग केवल मुसलमान नहीं है। इसमें दूसरे धर्मावलंबी भी शामिल है।
यह भी सच है कि इतिहास के लंबे दौर में फ़िलिस्तीन में रहने वाले यहूदी अनेक कारणों से अपना वतन छोड़कर सारी दुनिया में फैलने गए। 19वीं 20वीं सदी में दुनिया के विभिन्न देशों में बस चुके यहूदियों को उत्पीड़न, अपमान और संघर्ष से बचने के लिए अपना घरबार छोड़कर फ़िलिस्तीन समेत कई दूसरे अपेक्षाकृत सुरक्षित देशों में शरण लेनी पड़ी। गांधी जी ने 1938 में कहा था कि यूरोप में यहूदियों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार हो रहा है।
हिटलर के नेतृत्व में नाजी जर्मनी ने यहूदियों के जनसंहार के लिए जिन क्रूरतम तरीकों को अपनाया, उस परिघटना को होलोकास्ट कहा जाता है। इन तमाम कारणों से दुनिया भर में यहूदियों के प्रति सहानुभूति की भावना थी। लेकिन होलोकास्ट से त्रस्त हुई मानवता के लिए भी यह मुमकिन नहीं था कि वह फ़िलिस्तीनियों के साथ फिर उसी तरह के व्यवहार को अपना नैतिक समर्थन दे सकें।
यही कारण था कि गांधी जी ने फ़िलिस्तीन पर यहूदियों के मातृदेश के दावे को नामंजूर कर दिया। उनकी दृष्टि में फ़िलिस्तीन फ़िलिस्तीनियों का था, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। चाहे वे मुसलमान हों, ईसाई हों, हिन्दू हों, या यहूदी हों।
इसी कारण वे धर्म के आधार पर फ़िलिस्तीन के बंटवारे के भी पूरी तरह खिलाफ़ थे।
इसराइल की वैधता के दावे का दूसरा आधार 1948 के संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को बताया जाता है। इस प्रस्ताव में धर्म के आधार पर फ़िलिस्तीन में दो राज्यों के निर्माण की बात कही गई थी। धर्म के आधार पर दो राज्यों के बीच फ़िलिस्तीन के बंटवारे का यह प्रस्ताव सैद्धांतिक और नैतिक दृष्टि से अनुचित था। गैर-यहूदी फ़िलिस्तीनियों और अरब देशों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, लेकिन इसराइल ने अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
यह घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों के अनुरूप भी नहीं थी, इसलिए कम से कम दो बार संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के लिए आए इसराइल के आवेदन को ठुकरा दिया गया। अगर संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को लागू किया गया होता तो फ़िलिस्तीन में कम से कम दो राज्य बने होते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
1948 में इसराइल द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा के बाद लाखों की संख्या में फ़िलिस्तीनी अरबों को अपने घर से बेघर होना पड़ा, अकल्पनीय मुसीबतें उठानी पड़ी और अनगिनत लोगों को जान से भी हाथ धोना पड़ा। इस घटना को नक़बा के नाम से याद किया जाता है और नक़बा की स्मृति फ़िलिस्तीनियों के मन में वैसी ही है, जैसी यहूदियों के मन में होलोकास्ट की है।
नक़बा एक दुर्भाग्यपूर्ण ऐतिहासिक परिघटना की शुरुआत भर था। इसी के साथ फ़िलिस्तीन के अधिक से अधिक इलाकों पर इसराइल के कब्जे और उसी के साथ फ़िलिस्तीनी अवाम के उत्पीड़न, अपमान और जनसंहार का एक लंबा इतिहास शुरू हो जाता है।
होलोकास्ट की स्मृति को बनाए रखने की जितनी भी कोशिश की जाती हैं वे सभी बिल्कुल जायज हैं। दुनिया में होलोकास्ट जैसी घटनाएँ कभी दुहराई नहीं जानी चाहिए। लेकिन फ़िलिस्तीन में नक़बा लगातार जारी है और विडंबना यही है कि इसे अंजाम देने वाले वे लोग हैं जो खुद अतीत में होलोकास्ट के शिकार रहे हैं । हालांकि इसी बात को यूँ भी कहा जा सकता है कि वे ख़ुद उपनिवेशकों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के उसी तरह शिकार हैं, जैसे हम हिन्दुस्तान के लोग हैं।
विडंबना यह है कि होलोकास्ट को जितना ही याद किया जाता है लगातार जारी नक़बा को उतना ही भुला देने की कोशिश की जाती है। अगर इसराइल को आत्मरक्षा और अस्तित्व का अधिकार है तो यही अधिकार फ़िलिस्तीन को क्यों नहीं है?
अपमान का अपार्थाएड
हमास के आतंकवाद के निंदा होनी चाहिए। हमास के धार्मिक राष्ट्रवाद की भी भरपूर आलोचना की जानी चाहिए। लेकिन हमास की निंदा करते हुए जब इसराइल पर चुप्पी साध ली जाती है तो यह केवल पक्षपात का मामला नहीं रह जाता है। यह राष्ट्रीय अपमान का लोमहर्षक उदाहरण बन जाता है। यह इस बात का उदाहरण बन जाता है कि किस तरह दुनिया की बड़ी ताक़तें एक दूसरी बड़ी ताकत के पक्ष में कमजोर के खिलाफ़ एकजुट हो जाती हैं।
ताकतवर द्वारा किए जा रहे अन्याय को न्याय का नाम दे दिया जाता है और कमजोर के द्वारा प्रतिरोध में उठाए गए कदम को आतंकवाद का बता कर उस मूल अन्याय को छुपा लिया जाता है, जिसने उसे पैदा किया।
अंग्रेजी में जिसे ‘अपार्थाएड’ कहते हैं, उसे हिन्दी में आमतौर पर रंगभेद कहा जाता है। लेकिन रंगभेद केवल रंग के आधार पर नहीं होता। यह राष्ट्रीयता, धर्म, नृजाति और जात-पात के आधार पर भी हो सकता है। यह राष्ट्रीय अपमान की सुनियोजित अधिरचना है। फ़िलिस्तीनी लोग पिछले 75 सालों से इस भीषण राष्ट्रीय अपमान का सामना उसी तरह कर रहे हैं, जैसे पहले दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोगों ने अथवा यूरोप-अमेरिका के अश्वेत लोगों ने या लंबे समय तक दक्षिण एशिया के दलित और पिछड़ी जातियों ने किया है। इस अपार्थाएड को हिन्दी में अपमानवाद कहा जाना चाहिए।
यह अपमानवाद निश्चय ही उपनिवेशवाद और आतंकवाद की तुलना में कहीं अधिक दुखदाई है। तुलसीदास ने लिखा है: ‘जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना।’
यह अपमानवाद फ़िलिस्तीन उत्पीड़न के इतिहास को भुला देने की कोशिशें में है। यह अपमानवाद नक़बा को एक न हुई घटना के रूप में स्मृति से गायब कर देने की कोशिशों में है। यह अपमानवाद फ़िलिस्तीन को उसकी जमीन से लगातार बेदखल करते जाने, उसके साथ किए जाने वाले सभी समझौतों को अर्थहीन बनाते जाने और सभी वादों को तोड़ते जाने में है।
यह अपमानवाद फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय अपमान को सनातन बना देने में है। अपमान की यथास्थिति को स्थायी सामान्य में बदल देने में है।
7 अक्टूबर (2023) के पहले तक फ़िलिस्तीन के साथ जो कुछ हो रहा था, इसका सटीक वर्णन इन्हीं शब्दों में किया जा सकता है। गज़ा पट्टी को एक खुली जेल में बदलकर और फ़िलिस्तीन के बाकी बचे सभी हिस्सों पर अपना सम्पूर्ण सैनिक प्रभुत्व स्थापित करके इसराइल ने इसी अपमानवाद को उसके चरम पर पहुँचा दिया है। इसी के साथ बाकी अरब देशों के साथ अपने रिश्तों को सुधारते हुए इसराइल ने जो संकेत दिया है कि यही यथास्थिति अब स्थायी है।
हमास ने जो किया, वह नैतिक दृष्टि से निंदनीय है। राजनीतिक दृष्टि से भी अनेक रूपों में उसकी आलोचना की जानी चाहिए। लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि रणनीतिक रूप से वह यथास्थिति को एक जोरदार धक्का देने में सफल हुआ है। किस इंसानी कीमत पर, यह सवाल हमेशा पूछा जाएगा, लेकिन उसने इसरायल की सैनिक अजेयता और उसकी अवैध प्रतिरक्षा के मिथक को तार-तार कर दिया है। हमास की कार्रवाई ने इसरायल की दिव्य शक्ति और फ़िलिस्तीन की कातर अपंगता की उस बाइनरी को भी चकनाचूर कर दिया है, जिस पर फ़िलिस्तीन अपमानवाद का किला खड़ा हुआ है।
दुनिया के अनेक हिस्सों में आतंकवाद अक्सर अपमानवाद के खिलाफ़ कमजोर की निर्विकल्प कार्रवाई के रूप में सामने आता दिखता है।
फ़िलिस्तीन के लोग अगर प्रतिरोध का कोई गांधीवादी तरीका खोज पाते तो यह उनके लिए, इसरायल के लिए और सारी दुनिया के लिए अच्छा होता! अगर सत्याग्रह, मौन उपवास और भूख हड़ताल का इस्तेमाल करते हुए वे इसराइल का और उसके पीछे खड़ी महाशक्तियों का हृदय परिवर्तन कर पाते तो यह लोकतंत्र और मानवतावाद की निर्णायक विजय होती! लेकिन यह तब होता जब मानव जाति का हृदय एक होता। आज मानवता जिस तरह विभाजित है, उसी तरह मानवता का हृदय भी।
दुनिया अगर सचमुच आतंकवाद से मुक्ति पाना चाहती है तो आतंकवाद के स्रोत रूप में राष्ट्रीय अपमानवाद या अपार्थाएड को निर्मूल करने पर गहराई से विचार करना पड़ेगा।