इस साल के दुनियावी भूख सूचकांक के मुताबिक भारत का स्थान 127 देश में 105 नंबर पर है। भूख और कुपोषण के लिहाज से भारत की हालत गंभीर बताई गई है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की हालत भी ऐसी ही है। अलबत्ता श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की हालत कुछ बेहतर है।
अधिकांश पढ़े लिखे लोग इस सर्वेक्षण की सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाते। हालांकि सच्चाई इससे भी बदतर हो सकती है। क्योंकि सच्चाई आँकड़ों के आगे नहीं, पीछे चलती है।
सभी जानते हैं की भूख सर्वेक्षण के आँकड़े संयुक्त राष्ट्र और दूसरी भरोसेमंद अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा जुटाए जाते हैं।
भारत सरकार सर्वेक्षण को नामंजूर करती है, यह बात तो समझी जा सकती है, लेकिन पढ़े-लिखे आम लोग क्यों इस पर भरोसा नहीं करते?
इसका सबसे बड़ा कारण शायद यही है कि इस पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय सुखी-संपन्न फुरसतिया समाज को वे लोग कहीं दिखाई ही नहीं देते, जिनकी भूख इस सूचकांक में दर्ज हुई है।
हरे प्रकाश उपाध्याय एक लंबे समय के बाद इस समाज की सच्चाइयाँ अपनी कविताओं में लेकर आए हैं। ये कविताएँ मजदूरों की कविताएँ हैं। ऐसी कविताएँ इन दिनों चलन के बाहर हैं क्योंकि मजदूर प्रचलित विमर्शों के भी हाशिए पर हैं। उन्हें समकालीन प्रदेश के बाहर कहीं दूर छोड़ दिया गया है। हरे केवल उनकी कविताएँ ही नहीं उनकी बोली बानी भी लेकर आए हैं। इन कविताओं में आपकी मुलाकात एक किसान औरत से होगी तो एक राजमिस्त्री से भी। यहाँ आपको चाय वाले मिलेंगे, परचून वाले मिलेंगे, ठेले वाले मिलेंगे, हलवाई मिलेंगे, मोची मिलेंगे, दरजी मिलेंगे… यानी वे सभी लोग मिलेंगे जिनके कामकाज से आपकी ज़िन्दगी बनती है, लेकिन फिर भी जो आपको अपने आसपास कहीं दिखाई नहीं देते!
ये कविताएँ इन्हीं लोगों जैसी हैं। एक बार सरसरी तौर पर मिलने से आप उनसे प्रभावित नहीं होंगे। आपको उन पर हँसी भी आ सकती है। लेकिन जब आप उनसे बार-बार मिलेंगे, प्यार से मिलेंगे, ध्यान से उनकी बातें सुनेंगे, तो वे धीरे-धीरे आपके दिल में उतरने लग जाएंगे और आपकी चेतना पर काबिज हो जाएंगे। फिर आप भी आप कहाँ रह जाएंगे। आइए, आज पढ़ते हैं यही कविताएँ।
***
आगरे से आया राजू
गोरखपुर में फेमस दुकान है चाय की
मऊ से आकर बस गये गोरख राय की
वहीं बरतन धोता आगरे से आया राजू
बैठ गया जाकर एक दिन उसके बाजू
बरतन धोता जाता था
क्या खूब सुरीला गाता था
उमर महज बारह की थी
मगर खैनी वह खाता था
खैनी खाकर बोला, भैया
दस साल की उमर रही
मर गई खांस-खांस कर मैया
बापू के बदन पे फटी बनियान थी
हम तीन भाई बड़े थे
बहन मेरी नादान थी
बापू कैसे अब भूख मिटाता सबकी
गैया तो हमलोगों की बिक गई थी कबकी
मामू कलकत्ता से
घर मेरे आ टपका एक बार
उसने ही किया हम सबका बेड़ा पार
लग गये सब अपने खित्ते
भले गया बिखर अपना परिवार
बड़का रहता एक साहेब के घर
चलकर अब बंगाल में
उससे छोटका काम करता असम के चाय बागान में
बहन की हो गई शादी
जीजा का चलता है ट्रक
देख रहे हैं भैया हम लोगों का लक
बापू की उमर छियालीस साल
पक गये हैं उसके सारे बाल
टूट गये हैं दांत सब
पिचके उसके गाल
आगरे में टेसन पे रिक्शा चलाता है
बाबूजी वह भी अच्छा कमाता है
मेरा तो देख ही रहे हैं हाल
राय ससुर आदमी है या बवाल
बाबूजी इधर आइये
कान में बोला, बाबूजी इसके ठीक नहीं हैं चाल
रात में मुझे भी जबरन पिलाता है
मुर्गा अपने हाथ से खिलाता है
बाबूजी लेकिन अपनी खटिया पर ही
अपनी खटिया पर ही
मुझे भी सारी रात सुलाता है!
***
जैसे यह जीवन
हींग हल्दी जीरा लहसुन
कभी ड्यूटी
कभी दुकान परचून
ड्यूटी है करोल बाग में
डेरा यमुना पार
मालिक देखता हमें बैठकर
सीसीटीवी में नौ से चार
आती पगार तीस-इकतीस को
उड़ जाती लगते बीस को
किराया बिजली राशन-पानी
भैया को लगता
बबुआ काट रहा दिल्ली में चानी
जैसे-तैसे कटते
महीने के अंतिम दस दिन
काम आ जाते बच्चों के गुल्लक
जिसमें रखते चिल्लर गिन
घरनी के हैं छोटे-छोटे अरमान
गुस्सा जाती है देख झोला भर सामान
पगार मिलने के दिन
जब थोड़ा पी लेता हूँ
ज़रा-सा जी लेता हूँ
सो जाती है पगली चादर तान
उसके छोटे-छोटे अरमान
यार यह जीवन जैसे जंग हो
बताना भाई
अगर कोई सुविधाजनक ढंग हो!
***
खेत में एतवारू
खेत पर मिल गए आज एतवारू
दोनों, मरद और मेहरारू
हाड़ तोड़ कर मेहनत करते
कहते कैसा अंधा कुँआ है यह पेट
जो भी उपजाते
चढ़ जाता सब इसके ही भेंट
खाद बीज पानी
के प्रबन्ध में खाली रहती इनकी चेट
फसल उपजती तो घट जाती उसकी रेट
बोले भैया
मीठा-मीठा बोल के
हर गोवरमिंट करती हमलोगों का ही आखेट
खाकर सुर्ती
दिखा रहे एतवारू खेत में फुर्ती
सूरज दादा ऊपर से फेंक रहे हैं आग
जल रहे हैं एतवारू के भाग
हुई न सावन-भादो बरसा
बूंद-बूंद को खेत है तरसा
एतवारू के सिर पर चढ़ा है कर्जा
बिन कॉपी किताब ट्यूशन के
हो रहा बबुआ की पढ़ाई का हर्जा
हो गई है बिटिया भी सयानी
उसके घर-वर को लेकर चिन्तित दोनों प्रानी
थोड़ी इधर-उधर की करके बात
मेड़ पर आ सीधी कर अपनी गात
गम में डूब लगे बताने एतवारू
रहती बीमार उनकी मेहरारू
बोले,
भैया सपनों में भी अब सुख नहीं है
जीवन किसान का रस भरा ऊख नहीं है
अच्छा छोड़ो एतवारू
क्या पीते हो अब भी दारू
मुस्काकर बोले भैया यह ससुरी सरकार
है बहुत बेकार
जब से बिहार में बन्द है दारू
तबसे गरदन पे चढ़ने को थाना-पुलिस उतारू
साहेब सब पीते हैं
पैसेवाले भी पीते हैं
हम लोग भी थोड़ा-मोड़ा जब-तब ले लेते हैं
पर शराब माफ़िया भैया खून चूस लेते हैं
ले ली मैंने भी ज़रा चुटकी एतवारू से
बोला सुनाके उनकी मेहरारू से
लाओ बना लें खेत में ही दो पेग एतवारू
लाया हूँ मिलेट्री से बढ़िया दारू
हँस रहे हैं बेचारे एतवारू
आँख तरेर देख रही हम दोनों को
उनकी मेहरारू!
***
रामचनर उरांव
बहुत दिनों बाद गए जब अपने गाँव
धूप से हारकर बैठे पीपल की छाँव
वहीं मिल गए मुझे बकरी चराते रामचनर उरांव!
दुआ सलाम के बाद शुरू हो गई अपनी बात
बोले अच्छा किये भैया आ गए हो गई मुलाक़ात
अब तो हुए हम पके आम
जाएंगे टपक जल्दी ही किसी दिन या रात
रामचनर भी गजब इन्सान हैं
लगे कहने भैया हमको नहीं पता हम कौन कुल खनदान हैं
ये सब ऊ लोग जानत हैं जो खावत माँग के दान हैं
ई सब मामला में हम तो भैया बहुत नादान हैं
बोले भैया
अपने गाँव में दूबे जी का लड़का है प्रधान
मनरेगा में काम के बदले मांगत है दछिना-दान
बुलेट पर उड़त फिरत है
मुर्गा-दारू में डूबल रहत है
धारे खादी के कुरता गजबे उसका शान
हम नहीं चढ़ा पाए चढ़ावा ससुर प्रधान के
खा गया पैसा हमरा पैखाना और मकान के
भैया हम कहाँ से उसको कुछ देते
बोलो कर्जा किससे हम ले लेते
हमरे ऊपर चार महीने की उधारी दुकान परचून के
हम तो खावत है रोटी अपना पसीना औ खून के
वृद्धा पेंशन भी हमारा नहीं आता है
कैसे जिएं हम हमें नहीं बुझाता है
काहे भैया हर आदमी कमजोरे को सताता है
रोने लगे रामचनर उरांव
यह देख शर्माने लगी पीपल की छाँव
अच्छा छोड़ो काका
कहो तुम काकी का हाल
बोले भैया बुढ़िया अलग बवाल
साल भर से पायल-पायल रटत है
समझाए बहुत मगर अब पास में नहीं सटत है
उसको लगता है
बूढ़ा बहुत कमाता है
सब बहराइच वाली पतरकी को दे आता है!
***
ज़िदगी अपनी थोड़ी कड़क है
नहीं जानते कौन बाप कौन माई है
मुझे क्या पता मेरी ज़िन्दगी कहाँ से आई है!
बाबूजी शहर के बाहर
गन्दे नाले से आगे
जो बस्ती झुग्गी है
वहीं तो रहती मेरी नानी डुगडुगी है
कहते हैं लोग वही मुझे
भगवान जी से माँग कर लाई है
बाबूजी वो बुढ़िया भी बहुत कसाई है
पर करिएगा क्या
उस पर भी मुझे आती दया
बाबूजी लगता है मुझे वह भी ज़माने की सताई है
उसने भी न जाने किस-किससे मार खाई है
छोड़िए ख़ैर अब उसकी बात
दिन भीख माँगते मेरी फुटपाथ पर कटती है रात
कभी-कभी तो एक ही चद्दर में हम लौंडे होते हैं सात
हँसकर कहा, बाबूजी है न यह अनोखी बात
ज़िन्दगी अपनी थोड़ी कड़क है
पर मत समझिए बस यही सड़क है
जीने-पाने को और भी कई पतली गली है
बाबूजी यह दुनिया भी बहुत भली है
क्या जाड़ा क्या गरमी क्या बरसात
हम तो ठहरे बाबूजी माँगने वाली जात
हमें नहीं कोई शिकवा किसी से
जितना मिले पेट भरते उसी से
बाबूजी कहाँ देता है कोई काम
गिरे सब जिनके बड़े हैं नाम
ख़ुशबू से महकते हैं जिनके चाम
मुँह सूँघना उनका आप किसी शाम
बाबूजी अच्छा लगा
आपने कर ली इज्जत से थोड़ी बात
वरना तो अपन खाते ही रहते हैं लात
क़िस्सा बहुत है
कभी फुर्सत से करते हैं मुलाक़ात!
***
नाम मतवाला
दो गाय एक भैंस चार बकरी नाम मतवाला
जादो जी के खाली प्लॉट में रहता है एक ग्वाला
लंबे कद का दुबला-पतला चौड़ी मूँछों वाला
मुहल्ले में सब कहते उसे भैया लंबू दूधवाला!
मुर्गों से बहुत पहले से वह जगता है
सारे कुत्तों के सो जाने पर ही सोता है
कभी चारा-पानी कभी दूध दुहता होता है
दस बजते-बजते अपनी भैंस वो धोता है
कर्जा लेकर ख़रीदा था परसाल एक गाय
पता नहीं क्या रोग लगा क्या लिया चबाय
मुँह बाकर मर गई गया घर में शोक छाय
कैसे उबरे, जिए किया उसने खूब उपाय
पूरे परिवार संग मतवाला बस लगा ही रहता
कभी चोकर कभी गोबर हरदम जुटा ही रहता
हाथ कभी सानी में कभी पानी में उसका रहता
कभी दूध कभी कंडा लेकर मुहल्ले में हाजिर रहता
दूध बेचकर परिवार उसका जीता है
कहते लोग शाम को बढ़िया देसी पीता है
मैंने देखा सुबह खाता वो बेर पपीता है
उसकी बीवी भली हमारी भाभी गीता है
हरदम हँसकर ही वो सबसे बोले
काज परोजन संग साथ वो डोले
ज़रा मोहब्बत में वो आपकी हो ले
रहता सुबह शाम दुकान वो खोले
जो कहते दूध में मिलाता पानी है
वो उनकी समझ की नादानी है
पेशा उसका दूध का खानदानी है
ज़रा से पानी से क्या आ जानी है
पूरा जीवन जैसे उसका दूध गोबर पानी है
बुढ़िया दिखती चालीस की उसकी रानी है
खटते-खटते उसकी ज़िन्दगी कट जानी है
कौन महल उसका, रहने को बस टूटी पलानी है!
***
रफीक मास्टर
हरदोई से भाग कर आये हैं रफीक मास्टर
पंडितखेड़ा में डेढ़ कमरे का किराये का घर
बरतन बासन कपड़ा लत्ता और बिस्तर
हँसकर कहते हैं, देख रहे नवाबों का शहर
कुछ अपनों ने मारा कुछ गैरों ने मारा
कब तक सहते छोड़ आये निज घर सारा
ज़िन्दगी ऐसी दिखा रही दिन ही में तारा
सी कर ढँक रहे गैरों के तन फट गया वसन हमारा
पुलिया से आगे फुटपाथ के किनारे
तानी है पन्नी बाँस बल्ली के सहारे
यही झोपड़िया लगाएगी नैया किनारे
फटी सब सीएंगे टूटी मशीन के सहारे
सुनो रे भैया कहानी उनकी तुम सच्ची
कभी कभी फाका कभी पक्की औ कच्ची
नेक है बगल वाली अपनी कलावती चच्ची
दे जाती है सुबह में रात की रोटी उनकी बच्ची
घर में मुर्गी न बकरी बस बीवी और बच्चे
समय पर चुके किराया मौला दे न गच्चे
सुबह से शाम करते हैं काम
कभी न उनको छुट्टी आराम
बड़े छोटे सबको करते सलाम
हफ्ते के सौ रुपये लेता चौराहे का सिपहिया
कभी आ जाता रंगदार मनोजवा चलाता दुपहिया
फटी उघड़ी सबकी बनाते, देखते सुखवा के रहिया
कैंची चलाते सोचते जाएगा दुखवा ई कहिया
पैंडल मार मार फूल रहा दम टूटही सड़क पे चलना मुश्किल
कहते रफीक होके उदास कैसे चलेगी जीवन की साइकिल
कहिये भैया अब आप ही कहिए
लग रहा पंचर भी हैं इसके दोनों पहिये!
***
मेरी भीषण पीर
न जाने कौन देवता कौन फकीर
वही हरते रहते मेरी भीषण पीर
कह रहे ओला बाइक चलाते सुधीर
सर मन हो जाता है कभी बहुत अधीर
पहले एक सिक्यूरिटी कंपनी में गुड़गांव जाके कमाते थे
उसके पहले एक फैक्ट्री में पानी की टंकी बनाते थे
सब खर्चा काट पीट कर महीने का पाँच हजार बचाते थे
चल रही थी ज़िन्दगी सही ही, सर हम भी ठीक ही कमाते थे
इस बीच सुनीता मेरी वाइफ की किडनी में हो गई दिक्कत
सर आँधी तूफान में कैसे उखड़ते हैं पेड़ समझ गए हकीकत
होता था बीपी अप एंड डाउन पर अचानक आई ऐसी मुसीबत
पता नहीं किस जनम का पाप जो चुका रहे उसकी अब कीमत
लखनऊ में हफ्ते में होती है दो दिन सुनीता की डाइलिसिस
चार हजार किराया दो हजार बिटिया की जाती है फीस
सर पेट मुँह दाबते कैसे भी उड़ जाते हैं बीस-इक्कीस
किसी महीने में उधारी दे देता है प्यारा दोस्त सतीश
बारह बजे दिन से बारह बजे रात तक गाड़ी चलाता हूँ
बहुत कोशिश करके महीने में बीस या बाईस कमाता हूँ
सर इतने से कैसे चलेगा, मैं लोगों को प्लॉट भी दिलाता हूँ
आपको कुर्सी रोड की तरफ चाहिए तो कहिए बताता हूँ
सीतापुर के बाशिन्दा सुधीर के भाई हैं पाँच
सर आज के ज़माने कौन किसका यही है साँच
सब अपने में मगन दूर से हकीकत लेते हैं जाँच
सर लीजिए पहुँच गए, रुपये हुए कुल एक सौ पाँच!
***
सबसे सुन्नर भिंडी का फूल
कल फोन कर खेत पर बुलाये यार मनसोखा
आओ भैया बनेगा झोपड़िया पे लिट्टी-चोखा!
मनसोखा ने गाँव के सिवान पर सब्जी उपजाई है
खेत के किनारे बड़ी सुन्दर छोटी एक झोपड़ी बनाई है
दिन रात खेत में खटते रहते घर पे रहती भौजाई है
गरू-बछरू वे देखतीं यही उनके परिवार की कमाई है
मनसोखा भाई करते हैं मुझसे पूरी मन की बात
फोन-तोन रेडियो-फेडियो से बनती नहीं वो बात
इसीलिए पखवारे महीने में चाहते हैं एक मुलाकात
साथ जुटकर कभी हम लिट्टी कभी खाते मछली भात
कल तो भैया खाते-पीते बतियाते हो गई बहुत देर रात
मेरी जान ने कहा गुस्से में वही सो जाओ आना तुम प्रात
भैया खैर अपने मनसोखा दिलचस्प इन्सान है
उनकी बातों में गरू-बछरू खेती का बखान है
बता रहे थे गरू-बछरू ही उनके भगवान हैं
उनके ही बलबूते पल रहे उनके चार नादान हैं
उनका पड़वा कमबख्त तनिक हो गया शैतान है
पीकर दिन दोपहर दूध महीने भर में हुआ जवान है
मनसोखा बोले भैया बहुत मेहनत माँगती खेती तरकारी
खुरपी लेके जुटे रहते धूप बारिश जाड़ा में क्यारी-क्यारी
टूटकर जाती तोरई लौकी बाज़ार में तो फिरती मारी-मारी
हम हिम्मत से लगे रहते हारने लगती सूरजा की महतारी
ऊपर से धौंस जमावत हैं खेत के मालिक वीरेन्दर तिवारी
बन्दर जइसन पौधन के नोचत तोड़त हैं खेत की तरकारी
करो नौकरी सरकारी या बोओ तरकारी लोग कहत हैं
बोले मनसोखा सबको भला आन के काम लगत है
भैया जड़ जमीन जल को क्या बूझे जो नगर बसत है
आकर कौन सूंघे हमार पसीना जो दिन रात महकत है
हमरे ऊपर बहत जल पर अन्दर हमरे आग लहकत है
मजबूरी में पड़ल मानुख ही सबके दू-चार बात सुनत है
अच्छा मनसोखा छोड़ो हो जाओ तनिक अब कूल
कहो क्या जाते हैं तुम्हारे बच्चे भी अब पढ़ने इस्कूल
नदी पार कर थोड़ा-सा आगे जहाँ है पेड़ तरकूल
तुम्हारा बगीचा भी होगा हरा-भरा खिलेंगे खूब फूल
क्या देखकर जीते हो भाई कहो कड़वाहट अपनी भूल
हँसकर बोले मनसोखा― भैया सबसे सुन्नर भिंडी का फूल!
***
बाल काटते संजय भाई
तेलीबाग सब्जी मंडी में बाल काटते संजय नाई
राम राम! कैसे हो कहो अपनी कुछ प्यारे भाई!
भैया दिन भर काटत हैं तो है पाँच-छह सौ कमाई
छूटा है इधर शादी ब्याह मरनी जीनी में आवाजाई
पापा की चल रही पीजीआई में चार महीने से दवाई
हर तीन दिन पर डाक्टर साहेब लेते हैं उन्हें बुलाई
यही ले लिये हैं बगले में बढ़िया एक कमरे का डेरा
भैया देखिये कब तक छँट पाता है जो दुख आ घेरा
दिन भर खटते बीतता आशंका के संग होता सवेरा
क्या कर सकते हैं मालिक ने लिखा यही भाग है मेरा
गाँव में रहते मेरे पप्पू रिंकू छोटू और उनकी माई
घर छोड़कर सूरत कमाने चला गया है छोटा भाई
बरसात में घर गिरा तो मेहरी कर्जा लेकर है बनवाई
रोज़ उसकी वसूली में घर आता शंकर सिंह का भाई
मेहरी ने कल फोन किया था चिढ़कर बोल रही थी
गाँव की हालत सही नहीं सबका पोल खोल रही थी
पल्ले कुछ न आया जैसे पीट वो बेसुरा ढोल रही थी
पूछा खाया क्या मालूम कि रोज सतुआ घोल रही थी
बच्चे छोटे-छोटे हैं पर वे भी अब कुछ न कुछ कमाते हैं
बड़का तो पंडी जी की भैंस छोटके सब बकरी चराते हैं
अब ये न कहिएगा कि स्कूल भेज कर क्यों नहीं पढ़ाते हैं
अरे वहाँ तो जाते ही हैं सब उन्हें मीड डे मील खिलाते हैं
भैया कोई ख़ास दिक्कत नहीं है सरकार भी राशन देती है
यही कर्ज-तर्ज हारी बीमारी जोंक जैसी खून चूस लेती है
बहुत है कर्ज भर देंगे कुछ बकरिया अबकी बच्चा देती है
मेरी उसकी का क्या वह तो फटा-पुराना भी पहन लेती है
राशन कार्ड आधार कार्ड वोटर कार्ड श्रमिक कार्ड आयुष्मान कार्ड
बहुत बने हैं भैया तरह-तरह के कार्ड हमको तो बोलने में भी लगता है हार्ड
उनको संभालकर रखना तो और भी हार्ड जब ज़रूरत जिसका वही नहीं मिलता कार्ड
भैया! वीडियो मत बनाइए अच्छा नहीं लगता हमको ये सब रेकार्ड!
***
राम अकेला
यह है मेरा ठेला
नाम लिखिए राम अकेला!
बाज़ार हो या मेला
मिलता लगाए मैं अपना ठेला
कभी तरकारी बेचता कभी केला
इस ठेले के बल अपने दुख को ठेल रहा हूँ
मौसम की मार
जीवन का भार
बारहो मास खूब बढ़िया से झेल रहा हूँ
ज़िन्दगी खेल नहीं भाई
पर देखिये अड़ा हुआ हूँ खेल रहा हूँ
कोई क्या कुछ देगा मुझको
कहते सब क्या पड़ी जीने को तुझको
रोने से नहीं चलेगा साहब
लड़ना होगा
भले न मानो
लाख भृकुटी तुम अपनी तानो
हम भी तो मनुष्य हैं
गढ़ रहे इस सभ्यता का भविष्य हैं
तेरे पैसे से ही नहीं चलता यह संसार
सबको लूट रहे बनकर दुनिया का भार
हम अपनी मेहनत से नाव ये खे रहे हैं
इस दुनिया को हम अपना पसीना दे रहे हैं
मेरा यह ठेला हो
या तेरा महल अकेला हो
सब ठाठ तो यहीं रह जाएगा
हर आदमी एक ही बाट से आया
एक ही बाट वह जाएगा
ऐसे न अपनी गाड़ी का पों-पों बजाओ
रहम करो शरम करो
अपने भरम को न ऐसे ओढ़ो-बिछाओ
उसे समेट किनारे धरो!
***
सुनील मास्टर
मैं, सुनील कुमार थाना सहार राज्य बिहार
आप सबको करता हूँ नमस्कार!
क्या बताना कि कितने लोगों को नौकरी देती है सरकार
बीएससी बायलोजी से कर मैं भी एक शिक्षित बेरोजगार
आगे भी पढ़ने का मेरा मन था
पर पिता की दो बीघे की खेती, उनके पास न धन था
कमाने का साधन-स्रोत क्या बस उनका तन था
जीवन हमारे परिवार का बहुत विपन्न था
लगना था मुझको भी खेती मजूरी में
पहले तो मारा हाथ पैर पढ़ाई के सुरूरी में
चांस लिया फारम-तारम परीक्षा-तरीक्षा जी हुजूरी में
हँसने लगे थे लोग, लगा प्राइवेट में मास्टर मजबूरी में
सुबह नौ से शाम तीन बजे तक चिल्लाता हूँ
डायरेक्टर साहेब के चाबुक पर घोड़े-सा हिनहिनाता हूँ
महीने भर खट के बस सात हजार कमाता हूँ
कैसे चलेगा, घर-घर साइकिल से जा ट्यूशन पढ़ाता हूँ
पीरो है क़स्बा वही राय जी के स्कूल में ज्वाइन किया हूँ
नई-नई हुई है शादी पर अपनी उसको गाँव में छोड़ दिया हूँ
कैसे रखते यहाँ पर, हर महीने माई की बीमारी में पैसे दिया हूँ
अपने से पकाकर कच्चा-पका जैसे हो खाया-पिया हूँ
देह दुखता है दिन भर खटने से साइकिल पर चलने से
माथे को आराम मिलता है झंडू बाम मलने से
मैं भी विधाता की मछरी हूँ उनको स्वाद मिलता है तलने से
क्या ख़्वाब पाले होंगे मेरे माई बाबू भी पाँव देख मेरे पलने से
मात्रा सिखाता हूँ पहाड़ा पढ़ाता हूँ मेढ़क चीर कर दिखाता हूँ
मैं भी शिक्षक हूँ पर मजबूरी का अर्थ ही मास्टर बताता हूँ
सुनो मेरे बच्चो उस राह न चलना जिस राह मैं आता-जाता हूँ
गजब हूँ मैं भी इस बहरे शहर में किसको दुखड़ा सुनाता हूँ!
***
ललिया
मैं हूँ ललिया, पुकारते कह सब चंदन की महतारी
कानपुर से बीस किलोमीटर आगे बढ़िये उत्तर
वहीं क़स्बे में घर-घर घूम बेच रही तरकारी
मेरे बापू भोला सरोज, चपरासी नौकरी थी सरकारी
उनको खा गये काली मंदिर के कृष्णादास पुजारी
माई को ले गये दिल्ली गाँव के ही ललन तिवारी
मेरे खसम को था पीने का रोग
चढ़ गया वह उसके ही भोग
जवानी काटोगी कैसे पूछते हैं अब लोग
जैसे कितने ये अपने देखो इनका ढोंग
खसम के इलाज़ में बिक गया घर और सब कुछ
उन दिनों भीख न देने वाले अब हैं डुलाते मेरे आगे पूँछ
देख लिया कितनों के नग्न रूप उतरते उनके सब कुछ
रात अंधेरे आते शर्माते जो दिन में ऐंठे रखते अपनी मूँछ
मैंने तो बचपन से ही बहुत कुछ झेला है
पता मुझे मर्दों की मर्दानी का सारा खेला है
चाहे हो तिजोरी वाला चाहे जिसके पास पाई न धेला है
इस दुनिया में औरत का जीवन बड़ा लफड़ा झमेला है
कैसे मैं अपने बाबू चंदन को पालूँगी
अँधेरे और अभाव में कैसे दीपक बालूँगी
लोहा हूँ पर रबड़ सी अब ज़िन्दगी ढालूँगी
भरम में न रहना कि जहर मैं खा लूँगी।
***
कुछ तो बताओ
लो आ गया दरवाज़े को खटखटाता
लगा रहा आवाज़ अरे सुनती हो माता
तुम्हारा भंडार भरेंगे भला करेंगे विधाता
आया है बाबा वही फटेहाल माँगता खाता
यह बाबा हर दरवाज़े पर जा लगाता पुकार
कोई देता अठन्नी कोई दे देता रोटी-अचार
कुछ लोगों को लगता निठल्ला देते दुत्कार
उलटकर कहेगा क्या सब करता है स्वीकार
कहाँ से आया है बाबा कहाँ जाएगा यह
क्या सुबह-शाम कहीं चुल्हा जलाएगा यह
क्या काटेगा पकाएगा और क्या खाएगा यह
कहाँ कंबल बिछाकर अपनी रात बिताएगा यह
कहाँ घर होगा इसका कहाँ होगा परिवार
माँ के पेट से जन्मा है या निकला धरती फार
कौन माथे में डालेगा तेल जब होगा ये बीमार
इसके घर का पता मिले तो भेजता समाचार
यह मठ का वासी है या मस्जिद में रहता है
पूछने पर कमबख्त देखो चाकू-सा हँसता है
चुप रहकर सवालों पर सीना यह चीरता है
कुछ तो बताओ मुझे जानने को अधीरता है
माँग-माँग कर खाते हो कमाते क्यों नहीं हो
प्यार तो करते होगे घर बसाते क्यों नहीं हो
गीत गाते हो किताब छपवाते क्यों नहीं हो
हरे प्रकाश को हाल पूरा बताते क्यों नहीं हो?
***
मर गए तो देना प्रभु कफ़न
माथे पर सूटकेस दोनों कंधों पर उठाकर झोला
चलिए सर कितने प्यार से वह मुस्कुराकर बोला
बस्ती से कमाने चारबाग स्टेशन आया है भोला
डेरा लखनऊ शहर से बाहर दूर है इसका टोला
सर दिन भर खटता हूँ सात-आठ सौ कमाता हूँ
जो लोग खड़े हैं पहरे में उनसे ही लुट जाता हूँ
दौड़ते भागते हाँफते दिन भर पसीने से नहाता हूँ
यही लिखाकर लाया हूँ ऊपर से तभी मार खाता हूँ
पिछले साल घरवाली की बीमारी में करजा चढ़ा है
हमारी किस्मत में बीमारी लाचारी दुख ही तो मढ़ा है
माफ़ करते नहीं देव गलती हमारी वे कितने नकचढ़ा हैं
हमने भी अक्सर खाते कमाते हनुमान चालीसा पढ़ा है
हमें क्या चाहिए पेट भरने को अन्न तन पर वसन
मेहनत करते गाली सुनते ही अघाया रहता है मन
बच जाएँ बीमारी अकाल से कौन चाहिए हमें धन
पेट भरते सामान ढोते मर गए तो प्रभु देना कफ़न
कहते हैं बड़े लोग हिकारत से कि मैं दारू पीता हूँ
हाँ मालिक किसी इन्सान का खून तो नहीं पीता हूँ
सब लेते हैं अग्नि परीक्षा कहूँ क्या कैसे जीता हूँ
राम हैं आप लोग फटे धरती अब मैं भी सीता हूँ!
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इडली-सांभर
अरे भाई सागर!
कब से बेचने लगे ये इडली-सांभर
और कहो, सब कैसा है घर-बाहर
तुम तो कमाने गये थे मद्रास
वहाँ का हाल कहो
कब आये, क्या पुरानी नौकरी छोड़ आये
वह जो तुम लाये थे वहाँ से छाता
वह रेडियो वह घड़ी
पिछली बरसात
फिर गये तो मैं भी चला गया दिल्ली
तुमसे तबसे हुई ही नहीं मुलाक़ात
मेरे गाँव की तरफ तो हुई ही नहीं
अबकी बारिश
धान सूख रहा खेत में लावारिस
कितना चलाये कोई बोरिंग
किसके घर में धरी है इतनी हींग
क्या बंटवारा हो गया भाइयों में
कुछ झगरा था लुगाइयों में
तो अब तय किया कि
अब यही कमाओगे
बाहर नहीं जाओगे
इडली-सांभर बेच के घर चलाओगे
अच्छा है गाँव-घर में रहोगे
गरू-बछरू भी करोगे
अपना काम है यह
किसी के अधीन तो नहीं रहोगे
बढ़िया किये गये बाहर
सीख आये बनाना इडली-सांभर
हमारे यहाँ के लोग भी
देखें दूर दखिन का स्वाद खाकर
आओ मुन्ना, आओ चाचा
खा लो इडली-सांभर!
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आपके जूतों पर क़िस्मत हमारी
उमर चौदह की भी नहीं है
पर देखो बातें करता कितनी बड़ी-बड़ी है
कह रहा, साहब करा लीजिए बूट पॉलिश
कहाँ भागे जा रहे
ज़िन्दगी लंबी है, ऐसी क्या हड़बड़ी है
इन जूतों को भी देखिए, कितनी धूल पड़ी है
इतने प्यार से मनुहार से बोला कि रुक गया
न जाने उसकी आँखों में क्या था, झुक गया
कहा आपके जूतों पर क़िस्मत हमारी
आप समझते तो होंगे ही हमारी लाचारी
आपके जूतों के सहारे ही
कटती है ज़िन्दगी हमारी
मारकर पॉलिश जूते नये बना दिये
चमक में चेहरे दिखा दिये
बोला साहब दस रुपये दीजिए
बोहनी भी नहीं हुई है, टूटे ही दीजिए
जबकि दिन के बारह बजने लगे थे
सूरज दादा सिर पर टहलने लगे थे
कौन बेरहम जो इसका भाग्य ऐसे लिखने लगे थे
कहने लगा सुबह से कुछ खाया नहीं है
आया है कमाने सुबह से घर में बताया नहीं है
दोपहर तक कुछ भी तो कमाया नहीं है
कल जो कुछ कमाया, बचाया नहीं है
कल एक साहब ने मारा था
पता नहीं क्या गलती थी मेरी
लगता है, कहीं और का गुस्सा उतारा था
जाने दीजिए, यही भाग हमारा था
चलते-चलते बोला, साहब फिर आइएगा
कोई काम हो मेरे लायक तो बताइएगा!
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पढ़िये ताज़ा समाचार
लीजिए आ गया आज का अख़बार
पढ़िया ताज़ा समाचार
चार हत्या तीन बलात्कार
ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रहे हैं राम आधार
क्या सबसे पहले ये पढ़ लेते सारा समाचार
जबकि महज छठवीं पास हैं राम आधार
अख़बार की ख़बर का है जो कारोबार
उसमें तो सबसे कम के हैं ये हिस्सेदार
मगर देखिए कैसे लहरा रहे हैं ये अख़बार
मंत्री ने किया है सरकारी खजाने से करोड़ों पार
नोटों के बंडल पर सोता अफ़सर हुआ है गिरफ़्तार
कुछ ख़बरें दबा कर कमाया होगा पत्रकार
सेठ तो ख़बरों से फ़ायदा उठा कर ही करता कारोबार
अख़बार बेचकर भी पेट नहीं भर पाएंगे राम आधार
साइकिल पर आगे बाँधे हैं कई अख़बार
कुछ दूर पैदल चलेंगे साइकिल के संग
फिर साइकिल पर होके सवार
घर-घर डालेंगे मुल्क़ का समाचार
राम आधार का रोज़ का यह काम है
उनकी ज़िन्दगी इसी पेशे में हो रही तमाम है
अख़बार में छपता वही नेताओं का ताम-झाम है
कभी नहीं निकलता अख़बार में इनका नाम है
पर ख़ुश हैं, कोई शिकवा नहीं
कहते, भैया हमें तो चार पैसों से काम है
अख़बार बेचकर करते तीन-चार हजार कमाई हैं
कहते शाम को अंडों की एक दुकान भी जमाई है
कपड़े सीने का कुछ काम करती लुगाई है
किसी तरह कटता महीना,
कह रहे भैया ज़िदगी बहुत दुखदाई है
पिछले महीने साइकिल में मोटर ने मारी थी टक्कर
गिर गए थे सड़क पर, आ गया था चक्कर
कर रहे हँसकर दुनिया में हैं बहुत घनचक्कर
अख़बार में छपी दुनिया अलग है
अख़बार वालों की दुनिया अलग है
राम आधार की दुनिया बिलकुल अलग-थलग है!
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दिन भर धोता-सुखाता हूँ
मेरे सपनों में आते हैं आपके गंदे कपड़े
मुझे रहता पता बहुतों के लफड़े
धो दिये दाग़, बिना आपको पकड़े
मुझे पता है झीने कपड़ों के जिस्म मोटे-तगड़े
धोने से पहले कपड़े गोता करता हूँ
पानी में राज़ सारे डुबोता रहता हूँ
मैं आँखें मूँदकर धोता रहता हूँ
आपको लगता होगा कि मैं सोता रहता हूँ
कभी इस घाट पर कभी उस घाट पर
ज़िंदगी मेरी घूमती है घाट-घाट पर
पता है मुझे कितना और कैसा पानी है किस घाट पर
आइये दिखाता हूँ कैसी गंदगी निकलती है पाट पर
आपके उतारे कपड़ों के गट्ठर सिर पर उठाता हूँ
दिन भर धोता सुखाता हूँ
मोड़ कर गर्म लोहा घुमाता हूँ
इस तरह पेट भरने-तन ढँकने की चीज़ें जुटाता हूँ
जी बुरा क्या मानना, मुझे तो आदत है आपकी डाँट का
क़िस्मत ऐसी है कि मेरा कुत्ता भी न घर का न घाट का
अपनी फटेहाली भूल ध्यान रखना है आपके ठाट-बाट का
इससे तो अच्छा था खटमल ही होता आपकी खाट का
ज़रा दूर खड़े रहा कीजिए छू जाएंगे आप
बिगड़ेंगे मुझ पर और मुझे लगेगा पाप
पता नहीं किसका है यह मेरे ऊपर शाप
मंत्र भी तो कोई नहीं कर सकता मैं जाप!
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पूछने लगे मज़दूर
पूछने लगे मज़दूर भवन बनाने वाले
भैया हमसे क्यों घिन खाते भवन में रहने वाले
हम ही इसे उठाते ऊँचा
हम ही इसे रंग पोत चमकाने वाले
काम हुआ ख़त्म हम पर ही लग जाते ताले
पाते खूब रुपैया कलम चलाने वाले
क्यों भूखे रह जाते कुदाल चलाने वाले
अन्न उपजाने वाले
भर जाता गोदाम सेठ का
क्यों झोपड़ी में रह जाते बोझ उठाने वाले
काम करने वाले को मिलता कम है
क्यों मोटा माल पाते काम कराने वाले
बता इसे हमारा भाग्य
देखो कैसे इतराते कलम चलाने वाले
अन्न हम उपजाते हैं
महल हम उठाते हैं
कपड़े जूते कार सब बनाते हैं
मगर मालिक आप कहलाते हैं
हमें देकर टुकड़े जूठन दया दिखलाते हैं
हमें नचाकर अपना जी बहलाते हैं
पीकर-खाकर अपनी महफ़िल से हमें भगाते हैं!
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