अलविदा फ्रेडरिक जेमसन

वर्तमान समय के सबसे बड़े चिन्तकों में से एक जेमसन अपने पीछे एक बहुत बड़ी दार्शनिक और आलोचकीय विरासत छोड़ गए हैं जिसका हमारे समय, समाज और विश्व-राजनीति पर गहरा और स्थायी असर रहने वाला है। अभी के समय में जो थोड़ा भी पढ़ने वाला है और राजनीतिक-सांस्कृतिक तौर पर मनुष्यता को लेकर सोचता और चिन्ता करता है, वह उनके लिखे को छोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकता।

अंचित
सौजन्य : Locus Magazine
I believe that the emergence of postmodernism is closely related to the emergence of this new moment of late, consumer or multinational capitalism.
Fredric Jameson, Postmodernism or the Cultural Logic of Late Capitalism
प्रखर मार्क्सवादी चिंतक, आलोचक और दार्शनिक फ्रेडरिक जेमसन का निधन 22 सितंबर 2024 को हो गया। उनकी उम्र नब्बे वर्ष थी। वर्तमान समय के सबसे बड़े चिन्तकों में से एक जेमसन अपने पीछे एक बहुत बड़ी दार्शनिक और आलोचकीय विरासत छोड़ गए हैं जिसका हमारे समय, समाज और विश्व-राजनीति पर गहरा और स्थायी असर रहने वाला है। अभी के समय में जो थोड़ा भी पढ़ने वाला है और राजनीतिक-सांस्कृतिक तौर पर मनुष्यता को लेकर सोचता और चिन्ता करता है, वह उनके लिखे को छोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकता। जेमसन ने एक लंबा सामाजिक जीवन जिया और अमेरिका जैसे पूँजीवादी देश में भी एक स्पष्ट द्वंदात्मक दृष्टि के साथ वैश्विक स्तर पर घट रही घटनाओं का विश्लेषण करते रहे। अपने लंबे अध्यापकीय जीवन में वे कई अमरीकी विश्वविद्यालयों में भी पढ़ाते रहे और हार्वर्ड, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैन डिएगो, येल जैसी जगहों पर पढ़ाने के बाद 1985 से ड्यूक विश्वविद्यालय चले गए जहाँ वे आख़िर तक सबसे लोकप्रिय प्राध्यापकों में से एक रहे। मेरी समझ से उनकी लिखी तीस से ज़्यादा किताबों में “द पॉलिटिकल अनकॉन्शियस” और “द कल्चरल लॉजिक ऑफ लेट कैपिटलिज्म” सबसे ज़रूरी किताबें हैं।
अपने लंबे बुद्धिजीवी जीवन में उनके विचार के केन्द्र में संस्कृति, उत्तर-आधुनिकता और पूँजीवादी समय में मनुष्यता रहे और उन्होंने मार्क्सवादी आलोचना के तरीकों के अनुसार हमारे समय के संकटों को इतिहास और राजनीति के ज़रिये पढ़ने की कोशिश की। पिछले तीस-चालीस सालों से उनके दिए गए तर्कों और निष्कर्षों का समकालीन विमर्श में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है जिस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। बीसवीं सदी की पश्चिमी यूरोपियन बुद्धिजीवी परंपरा से प्रभावित जेमसन ने भी अपने यूरोपियन पूर्ववर्तियों की तरह विविध विषयों पर लेख लिखे। उनके लिखे में जर्मन ओपेरा और साइंस फिक्शन उपन्यासों से लेकर होटलों तक पर लेख मिल जायेंगे लेकिन उनके विश्लेषण/पाठ के मध्य में एक रेडिकल मार्क्सवादी आलोचना पद्धति ही रही। बीसवीं सदी क्रिटिकल थ्योरी और ख़ास कर मार्क्सिस्ट विचार के विकास के लिहाज़ से एक महत्वपूर्ण सदी है और अन्य कई प्रतिभावान दार्शनिकों की तरह छात्र जेमसन पर भी इसका गहरा असर रहा। अपने छात्र जीवन की शुरुआत से ही जेमसन ने लुकाच, वाल्टर बेंजामिन, हॉर्ख़ाइमर इत्यादि को पढ़ा और उनके काम में सबसे ज़्यादा उपस्थिति फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारों और उसमें भी विशेष कर थियोडोर एडॉर्नो की दिखती है क्योंकि जेमसन के काम के मध्य में भी सांस्कृतिक कृतियाँ ही हैं। उत्तर मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों को समझने, और उनमें साम्यता खोजने की कोशिश करते हुए, वे पूँजीवाद के चरम पर “शैली” (style) की अवधारणा से आकर्षित हुए। एडॉर्नों ने भी कल्चर इंडस्ट्री पर लिखे अपने प्रसिद्ध लेख में “शैली” की चर्चा करते हुए कहा था कि वर्तमान समय में “शैली” के इस्तेमाल से ही कृतियों को अलग दिखाया जाता है अन्यथा पूँजीवाद के निरीक्षण में हर उत्पादन एक जैसा ही होता है।  जेमसन आगे इतिहास से शैली को जोड़ते हुए यह कहने वाले थे कि उत्तर-आधुनिकता ने इतिहास को एक “रिक्त शैलीकरण की एक शृंखला” (a series of empty stylizations) में बदल दिया है। उन्होंने अपनी पीएचडी भी “सार्त्र: द ओरिजिन ऑफ ए स्टाइल” विषय पर लिखी। यहाँ यह सोचना रोचक है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सार्त्र, एक नाज़ी कैम्प में बंदी रहे थे और वहाँ हुए अनुभव उनके अपने दर्शन के लिए एक प्रस्थान बिन्दु साबित हुआ था। इसी के बाद सार्त्र ने अपने अस्तित्ववादी दर्शन से मार्क्सवाद को जोड़ने की कोशिश शुरू की थी। जेमसन के सन्दर्भ में यही लगता है कि सार्त्र के अध्ययन ने भी उन्हें मार्क्सवाद की तरफ़ खींचा होगा। इसी समय वह “न्यू लेफ्ट” से जुड़े और एक जगह उन्होंने कहा था कि क्यूबा में हुई क्रान्ति ने मार्क्सवाद में उनके विश्वास को और दृढ़ बनाया। साथ ही यह भी दर्ज करना चाहिए कि ऐसे समय में जब अंग्रेजी की दुनिया में, अमेरिकी प्रभाव के चलते मानवतावाद का ज़ोर था, उनके हेगेलियन मार्क्सवाद ने उस दुनिया में एक नया आलोचनात्मक फ्रेमवर्क, एक विकल्प की तरह प्रस्तुत किया और एक उदारवादी और वक्रपटुता से निर्देशित होती दुनिया को तार्किक बनाने की कोशिश की। शीत युद्ध के मध्य, अमरीका द्वारा जगह-जगह थोपे गए युद्धों के बीच जब अमेरिकी ख़ुफ़िया तन्त्र अपने सबसे प्रभावशाली दौर में था, यह कोई छोटी बात नहीं थी कि इस तरह उन्होंने प्रतिरोध का स्वर बुलन्द किया।
इसी बीसवीं सदी में उन्नीस सौ सत्तर के आसपास उत्तर-आधुनिकता का विस्फोट हुआ और इससे संबन्धित दार्शनिक और विचार तेज़ी से चलन में आए। इसी समय जीन ल्योटार्ड ने “द पोस्टमॉडर्न कंडीशन” जैसी किताब लिखी और इसी समय बार्थ ने “डेथ ऑफ़ एन ऑथर” नामक लेख लिखा। यह घोषणा हुई कि महाख्यानों को संशय से देखना होगा (skepticism towards grand narratives)। यह धारणा बौद्धिक दुनिया में तेज़ी से आग की तरह फैली और उस समय भी यह कहना अतिशयोक्ति नहीं रहा होगा कि आने वाले समय में अकादिमिया और दर्शन दोनों इस संशयात्मकता से गहरे प्रभावित होंगे―कि उत्तर-आधुनिकता सब कुछ “विचारधारा” के भीतर ही देखती है, जेमसन आगे कहते। उस समय, यानी 1971 में वे फ्रैंकफर्ट और मार्क्सवादी आलोचना को यूरोप से अमेरिका ला रहे थे और उन्होंने इसके लिए एक किताब लिखी जिसका नाम था, “मार्क्सिज़्म एंड फॉर्म”। इस किताब में एडोर्नो, वाल्टर बेंजामिन, मर्क्यूज़, लुकाच, एर्नेस्ट ब्लॉक जैसे चिन्तकों पर लेख थे जो एक प्रकार से अंग्रेजी दुनिया में इन चिन्तकों का प्रथम परिचय साबित हुए क्योंकि तब तक अंग्रेजी भाषी दुनिया इनसे लगभग अछूती थी। इसी किताब में उन्होंने कला के उत्पादन को ऐतिहासिकीकरण से जोड़ने के तरीके पर विस्तार से लिखा और एस्थेटिक फॉर्म पर बात की। आगे वे उत्तर-आधुनिकता के एक विख्यात आलोचक साबित होने वाले थे पर अतिरेकों से परे और किसी प्रकार की आलोचना के लिए उनका सूत्र एक ही रहने वाला था, “द्वन्दात्मक विचार”। जेमसन की किताब “द पोलिटिकल अनकॉन्शियस” भी ऐसे ही एक सूत्र से शुरू होती है―“हमेशा ऐतिहासिकीकरण करो”। इन्हीं सूत्रों से उनका “मेथड” बनता है। इसी ऐतिहासिक सन्दर्भ की माँग उनकी उत्तर-आधुनिकता की आलोचना के मध्य में है और वे ऐतिहासिकीकरण (historicizing) की अनुपस्थिति को आधार बना कर उत्तर-आधुनिक समय का एक डिस्टोपियन चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि वर्तमान समय ने इतिहास से अपना सम्पर्क पूरी तरह से खो दिया है और उत्तर-आधुनिक समय सिर्फ़ वर्तमान की फ़ंतासी में जीता है। इस वजह से इतिहास और लोगों के बीच कोई सम्पर्क नहीं बचा और स्कूल में पढ़ाये जा रहे इतिहास और आम जन के इतिहास का कोई संबन्ध नहीं रह गया है। उनके हिसाब से यह अन्य सभी तरह के विचारों पर पूँजीवादी विचारों की जीत की तरह था और इस आधार पर इस निष्कर्ष को भी बल मिलता है कि भले ही बाहर से देखने में ऐसा लगता हो कि उत्तर-आधुनिकता विभिन्न विचारों को जगह देती है लेकिन अंतत: उसका संचालन, पूँजीवादी समरूपता के सिद्धान्त से ही होता है। मेरी समझ से जेमसन का सबसे बड़ा योगदान उनका ‘वर्तमान समय और संस्कृति’ का यही पाठ और विश्लेषण है जिस पर उनकी किताब “द कल्चरल लॉजिक ऑफ़ लेट कैपिटलिज्म” केंद्रित है। इसी किताब में वह कहते हैं कि अभी के समय में, आम तौर पर कलात्मक उत्पादन, वस्तु के उत्पादन के साथ एकीकृत हो गया है और एक वहशी आर्थिक तात्कालिकता के साथ किसी भी चीज़ को अच्छा और नया दिखाने के लिए लगातार उत्पादन किया जा रहा है। ऐसे में कलात्मक उत्पादन जिस प्रयोग और नवाचार की माँग करते हैं, वह उपलब्ध नहीं है।
उत्तरआधुनिकता का ज़ोर और फैशन अमेरिकी तन्त्र से समर्थित था और लिंडा हचियन जैसे विचारकों ने अतिरेक में जा कर उसकी बड़ाई की और महाख्यानों के अन्त का उत्सव मनाया। उनका तर्क था कि उत्तर-आधुनिक विमर्श, समाज की असमानताओं को केन्द्र में लाता है और यह कि संस्कृति में सुधार, अन्त में व्यवस्था के सुधार में योगदान करता है। ख़ुद में उत्तर-आधुनिकता, पुरानी व्यवस्था, परंपरा और महाख्यानों का विखंडन थी। इसके उलट पारंपरिक मार्क्सवादियों ने उत्तर-आधुनिकता की आलोचना की, और उत्तर-आधुनिकता को केवल मार्क्सवाद को चुनौती देने के लिए पैदा किए गए अमरीकी षड्यंत्र की तरह देखा। ज़ाहिर है ऐतिहासिक पाठ की माँग करने वाले और वेस्टर्न लेफ्ट के सदस्य जेमिसन, सरलताओं के विपरीत उत्तर-आधुनिकता के उत्सव के ख़िलाफ़ थे और सबसे पहले उनकी यह चर्चित किताब, एक लेख के तौर पर, 1984 न्यू लेफ्ट रिव्यू में छपी। इसके 1991 में पूर्ण पुस्तकाकार में छपने के ठीक एक साल बाद, सोवियत संघ के विखंडन का जश्न मनाते हुए, अमरीकी राजनीतिशास्त्री फ्रांसिस फुकोयामा ने इतिहास के अन्त की घोषणा की। यह जेमसन की दूरगामी दृष्टि का एक उदाहरण ही है कि वह पहले ही इस विचार और इसकी अतार्किकता को उजागर कर चुके थे। यह उनका ही योगदान है कि उन्होंने मार्क्सवादी आलोचना को संस्कृति के पाठ से जोड़ा और उत्तर-आधुनिकता को एक प्रक्रिया के तौर पर वस्तुकरण की सरासर खपत (consumption of sheer commodification as a process) की तरह देखा। इसी को आधार बनाते हुए उन्होंने हमारे समय के बारे में कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिए। उनका कहना कि उत्तर-आधुनिकता पूँजीवाद जनित है और ऐतिहासिकीकरण के ह्रास की वजह से विशिष्ट और सामान्य संस्कृतियों के बीच के भेद का ख़त्म होना, समाज से गंभीरता का ख़त्म होना और पूरे नए तकनीकी तन्त्र का खड़ा होना, इन निष्कर्षों में प्रमुख थे। उन्होंने उत्तर-आधुनिकता को पूँजीवादी समाज के एक वैश्वीकृत वित्तीय चरण की तरह देखा और कहा कि उत्तर-आधुनिकता स्वयं में एक महाख्यान ही है जो भेस बदल कर सामने आती है और अपने आपको छिपाती है। ऐसे ही उन्होंने पैरोडी की अवधारणा के ख़िलाफ़ “पैस्टिश” (शैली इत्यादि की नक़ल) को प्रस्तुत किया और कहा कि उत्तर-आधुनिकता अन्त में पैस्टिश पैदा करती है जिसमें कोई राजनीतिक आलोचनात्मक तत्व नहीं होता। सिर्फ़ ऐसा लगता है। उनके हिसाब से पैस्टिश का जन्म ही इसलिए होता है क्योंकि वहाँ कोई ऐतिहासिक सन्दर्भ मौजूद नहीं होता और सिर्फ़ भूत का विखंडन होता है।
हमारे समय को लेकर जेमसन की दृष्टि एक महत्वपूर्ण दृष्टि है जो पूरी द्वंदात्मकता के साथ बदलते-बिखरते समय का आँकलन करती है। जिस नव-उदारवादी दुनिया में हम रह रहे हैं, वहाँ मनुष्य मात्र का वस्तुकरण रोज़ बढ़ता जा रहा है और हर टूटन बदस्तूर और गहरी होती जा रही है। यहाँ रोज़ एक नई फाल्ट लाइन बनती है जो अन्त में पूँजीवाद की ही संरचना को और मज़बूत करती है। भारत और विश्व के सन्दर्भ में हिंसा का संगठन रोज़ और दृढ़ होता जा रहा है और सुधारवाद और सुविधापरस्ती का बोलबाला हर जगह है। इस टूट के अन्त में किसी बेहतर व्यवस्था का कोई वादा नहीं है और इसी निराशा के बरक्स मुझको लगता है जेमसन की मार्क्सवादी उम्मीद, उनके मेथड के सहारे खड़ी है जो सही मायने में मार्क्सवादी विचार का विस्तार करती है। उन्होंने पश्चिमी मार्क्सवाद को संस्कृति के अलावा साहित्यिक आलोचना से भी जोड़ा और किसी तरह के कलात्मक उत्पादन में संलग्न व्यक्ति के लिए यह प्रश्न पीछे छोड़ा कि क्या उसका लिखा/रचा किसी तरह से बाज़ारी उत्पादन से अलग है? इसलिए अभी वे आने वाले दौर में लंबे समय तक प्रासंगिक रहेंगे।
फ्रेडरिक जेमसन के जीवन का एक पक्ष यह भी है कि वे एक लोकप्रिय अध्यापक रहे और पूरी दुनिया में उनके छात्र फैले हुए हैं। “लिटरेरी थ्योरी” को पाठ्यक्रम में शामिल करने वाले, वे पहले शिक्षकों में से थे। वे ताउम्र लिखते रहे और अभी मई में ही उनकी एक किताब, “इन्वेंशंस ऑफ़ ए प्रेजेंट: द नावेल इन इट्स क्राइसिस ऑफ़ ग्लोबलाइजेशन” प्रकाशित हुई थी। अक्तूबर में ही उनकी एक और किताब “द ईयर्स ऑफ़ थ्योरी: पोस्ट वॉर फ्रेंच थॉट टू प्रेजेंट” प्रकाशित होगी। एक ऐसे दार्शनिक विचारक का जाना एक बड़ी घटना है हालांकि उन्होंने एक बड़ी उम्र जी। उनके जाने से पूँजीवाद के ख़िलाफ़ संघर्षरत लोगों को एक बड़ा खालीपन महसूस होगा पर उनके दो सूत्र “द्वन्दात्मक विश्लेषण” और “हमेशा इतिहासीकरण करो” आने वाले समय में हर प्रतिबद्ध व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण रहेंगे।
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कवि-आलोचक
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