दिल्ली के लोदी रोड पर स्थित इंडिया हैबिटैट सेंटर का गुलमोहर हॉल। तारीख 15 नवंबर 2024। अवसर था हिन्दी के प्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित सालाना काव्यपाठ ‘वीरेनियत’ का। वीरेन जी की स्मृति में होने वाले इस काव्यपाठ का यह छठा संस्करण था इसलिए इस वर्ष इसे वीरेनियत-06 नाम दिया गया था।
कार्यक्रम का समय शाम 06:30 निर्धारित था। कोहरे की शक्ल में धुंध की जहरीली चादर ओढ़े दिल्ली की हवा में खुनकी आ गई थी। प्रदूषण, शाम की गुनगुनी ठंढ और दिल्ली के खतरनाक ट्रैफिक से आँख मिलाते हुए मुझ जैसे कई लोग हैबिटैट सेंटर की ओर समय से पूर्व ही चल पड़े थे। शाम के 6 बजे मैं भी वहाँ मौजूद था।
दिल्ली में होने वाले साहित्यिक कार्यक्रम अक्सर अपने समय से शुरू नहीं होते। इस बात को श्रोता जानते हैं इसलिए वे भी देरी से पहुँचते हैं। श्रोताओं के देर से आने की खबर कुछ साहित्यकारों को भी होती है अतः देरी का यह सिलसिला चलता रहता है। लेकिन यहाँ इसके ठीक विपरीत देखने को मिला। गुलमोहर हॉल कार्यक्रम प्रारंभ होने के आधे घंटे पहले खचाखच भर गया था। सभी आमंत्रित कवि समय से पहले मौजूद थे।
श्रोताओं में कई वरिष्ठ कवि, लेखक, संपादक, आलोचक, प्रकाशक, अध्यापक, शोधार्थी एवं युवा विद्यार्थियों के साथ सहृदय साहित्य-प्रेमियों की एक लंबी फेहरिस्त थी। कार्यक्रम प्रारंभ होने से आधे घंटे पहले की यह गपशप, मिलना-जुलना, वीरेन जी को याद करना, आमंत्रित कवियों से परिचय पाना अद्भुत था। युवा वर्ग की बड़ी उपस्थिति कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्ति और युवाओं के बीच वीरेन डंगवाल की कविताओं की बढ़ती लोकप्रियता का परिचय दे रही थी।
कार्यक्रम अपने निर्धारित समय से शुरू हुआ। काव्यपाठ के लिए आमंत्रित आठों कवि-सत्यपाल सहगल, हरिश्चंद्र पांडे, विजया सिंह, पूनम वासम, कविता कादंबरी, अंचित, नादिम नदीम, पराग पावन अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे। सभागार में कुर्सियों की कमी दिखने लगी थी। जिसे जहाँ जगह मिली—कारपेट, सीढ़ी, दरवाजे के मुहाने—वह वहीं बैठ गया। मुझे तहजीब हाफी का शेर याद आया—
बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होती मख़्सूस
जो इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया
मंच संचालन का जिम्मा सँभाला वरिष्ठ आलोचक, ‘आलोचना’ त्रैमासिक के संपादक एवं अध्यापक आशुतोष कुमार ने। वीरेनियत की अपनी एक रवायत रही है। इसमें फूल-माला, धूप-दीप, अगरू-चंदन के बदले वीरेन डंगवाल की किसी एक कविता का पाठ कर, उनके शब्दों के सहारे उन्हें याद किया किया जाता है। इस साल इस काव्यपाठ के लिए आशुतोष कुमार ने मृत्युंजय को बुलाया। मृत्युंजय ने वीरेन जी के आखिरी दिनों की कविता ‘रामपुर बाग की प्रेम कहानी’ का भावपूर्ण पाठ किया। इस काव्यपाठ के बाद आशुतोष कुमार ने कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए वीरेनियत के पिछले आयोजनों की सफलताओं को याद किया। उनके शब्दों में कहें तो “दिल्ली शहर में कविता से प्यार करने वाले, गंभीर कविता से प्यार करने वाले, वीरेन दा की अंदाज की कविता से प्रेम करने वाले लोग इतने सारे हैं कि हमारे कवि इसकी सुखद स्मृतियाँ लेकर जाते हैं।”
आमंत्रित कवियों में छत्तीसगढ़ के बीजापुर से लंबी दूरी तय कर आईं कवि पूनम वासम को काव्यपाठ के लिए बुलाया गया। पूनम वासम हिन्दी आदिवासी कविता की सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। उनकी कविता जल, जंगल और जमीन के उन जरूरी और बुनियादी विषयों को अपना केन्द्रीय कथ्य बनाती है जिसे मिटाने के बहाने आज मंदगति से मनुष्यता को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। उनकी कविता समकालीन हिन्दी की आदिवासी कविता के एस्थेटिक्स पर न सिर्फ खरी उतरती है बल्कि अपना एक एस्थेटिक्स गढ़ती चलती है। ‘मछलियाँ गाएँगी’, ‘एकदिन पंडुम गीत’ उनके कविता संग्रह हैं। उन्होंने बस्तर के परिवेश से संबंधित कुछ कविताओं का पाठ किया। ‘शहीद मंगली के लिए’, ‘मैं देखती हूँ एक पवित्र अनुपस्थिति को’, ‘प्रवेश निषेध है’ जैसी कविताओं के माध्यम से उन्होंने मूल निवासियों के ऊपर विकास के नाम पर होने वाले क्रूर अत्याचारों का मार्मिक चित्र उपस्थित किया।
वीरेनियत में काव्यपाठ के लिए कवियों को बुलाने के क्रम में वरिष्ठ-कनिष्ठ का कोई भेद नहीं किया जाता है। संचालक को इसका पूर्ण अधिकार होता है कि वो जिस कवि को जब चाहे बुलाए। दरअसल यह संचालक के संचालन की परीक्षा होती है कि वह इस ग़ज़ल जैसे कार्यक्रम में किस शे’र को कहाँ लगाए। पूनम वासम के बाद श्रोताओं के बीच उपजे मुखर मौन को देखते हुए आशुतोष कुमार ने अगले काव्यपाठ के लिए पंजाब विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त वरिष्ठ कवि एवं आलोचक सत्यपाल सहगल को बुलाया। सत्यपाल सहगल की कविताओं के दो संग्रह ‘कई चीजें’ और ‘दूसरी किताब’ प्रकाशित हो चुके हैं। सत्यपाल सहगल अपनी आँखों की परेशानी के बावजूद कार्यक्रम में शामिल हुए, यह कविता एवं कविता के गंभीर आयोजनों के प्रति उनके प्यार को दर्शाता है। आँखों की तकलीफ़ के कारण उन्होंने केवल एक कविता ‘माँ की एकाकी चिन्ता’ का पाठ किया। उनकी कुछ अन्य कविताओं का पाठ आशुतोष कुमार ने किया। उनमें से ‘दरवाजे के बाहर ही खड़ी होती है’, ‘यहाँ कुछ खून दिखता है बहा हुआ’, ‘आकाश के जल में’, ‘दूर कहीं शोर है’, ‘मुझे ले लो दोने की तरह’ प्रमुख थी। ‘यहाँ कुछ खून दिखता है बहा हुआ’ और ‘दूर कहीं शोर है’ जैसी कविताएँ अपने समय में धर्म एवं सरकारी तंत्र द्वारा प्रायोजित हिंसा को अपना केन्द्रीय विषय बनाती है। इस विषय की गंभीरता एवं सभागार में मौजूद श्रोताओं की सहृदयता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन कविताओं की समाप्ति के पश्चात खचाखच भरे सभागार में एक गंभीर सन्नाटा पसर जाता है। इसमें कुछ भूमिका आशुतोष कुमार के प्रभावी पाठ की भी रही।
इक्कीसवीं शताब्दी की कविता या कहें कि समकालीन कविता में जिन स्त्री आवाजों की गूँज अक्सर सुनाई देती है, उनमें से एक कवि कविता कादंबरी इस कार्यक्रम का हिस्सा थीं। कविता कादंबरी इलाहाबाद से कविता के रूप में इलाहाबादी खुशबू लाई थी। उन्होंने अपनी संगीत-सी सधी आवाज में ‘मेरी बिटिया’, ‘आधा हिन्दू-आधा मुसलमान’, ‘मुहावरे’, ‘मेरे बेटे’ व ‘दुनिया के सबसे शानदार पुरुष’ कविता का पाठ किया। ‘आधा हिन्दू-आधा मुसलमान’ कविता जहाँ भारत के सैकड़ों साल पुरानी साझी संस्कृति को सामने लाती है तो ‘मेरे बेटे’ कविता अंध राष्ट्रवाद के इस दौर में यह कहकर कि—मत होना कभी इतने देशभक्त/कि किसी/घायल को उठाने के लिए/झण्डा जमीन पर न रख सको—पुरुषों के भीतर भी उस मनुष्यता को सुरक्षित रखना चाहती है जो दुनिया को बचाने के लिए राष्ट्रवाद से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
अगले कवि के रूप में पटना से आए युवा कवि अंचित की बारी थी। अंचित पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक हैं। उनके दो कविता संग्रह ‘साध-असाध’ और ‘शहर को पढ़ते हुए’ प्रकाशित हैं। अंचित ने अपने काव्यपाठ में पटना शहर को, इन्कलाबी शायर फ़ैज़ को और इटली के मशहूर मार्क्सवादी चिंतक एंटोनियो ग्राम्शी को याद किया। उन्होंने ‘रोड शो’, ‘एक आदर्श के पीछे’, ‘एक फूल की तलाश में’, ‘माफ़ीनामा’, और ‘इस घनी काली रात में’ कविताओं का पाठ किया। श्रोताओं ने अंचित की कविताओं को खूब सराहा।
अंचित के बाद पंजाब के खूबसूरत शहर चंडीगढ़ से आईं कवि विजया सिंह के काव्यपाठ का समय था। विजया सिंह हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखती हैं। वे चंडीगढ़ के विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाती भी हैं। उन्होंने ‘खान यूनिस’, ‘उम्मीद है तुम महफूज हो’, ‘हबीबा’, ‘मच्छर’, ‘छिपकली’, ‘दफ्तर का ताला’, ‘बहनें’, ‘स्वर्ण चम्पा दहक रहे हैं’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। विजया सिंह ने अपनी शुरुआती कविताओं के माध्यम से फ़िलिस्तीन में हो रहे नरसंहार पर चिन्ता जाहिर की और ‘मच्छर’, ‘छिपकली’ तथा ‘दफ्तर का ताला’ सरीखी हास्य-व्यंग्य की कविताओं से सभागार के सन्नाटे को भेदकर अप्रत्याशित कहकहों से भर दिया। विजया सिंह की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता उनकी कविताओं का विस्तृत फलक है।
वीरेनियत-06 में हिन्दी कवियों के साथ-साथ हिन्दुस्तानी जुबान के युवा शायर नादिम नदीम भी शामिल थे। उर्दू शायरी की नई नस्ल के शायरों में नादिम नदीम का नाम प्रमुख है। उनकी ग़ज़लों पर जिस तरह से उन्हें दाद मिली वह अद्भुत था। यह इस बात का भी परिचायक था कि हिन्दी के श्रोता फकत हिन्दी के श्रोता नहीं होते। वे उर्दू जबान को आज भी हिन्दुस्तानी यानी अपनी जबान समझते हैं। उनकी सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों एवं अदीबों/लेखकों की परिस्थिति पर उनके दो शे’र देखिए—
रक्स में साथ जो सेहरा को भी ढाले हुए हैं
ये किसी शहर-ए-तमन्ना के निकाले हुए हैं
आह को साज बनाते हैं दुखों की रुत में
दिल शिकस्ता हैं पर आवाज सँभाले हुए हैं
इस शृंखला में अगली कड़ी के रूप में पराग पावन ने काव्यपाठ किया। पराग हिन्दी कविता के युवा कवियों में चर्चित नाम हैं। उनकी कविताएँ मुख्य रूप से युवा वर्ग की समस्याओं को संबोधित हैं। अपनी बात को बेबाकी से रखने के कारण पराग युवाओं के बीच खूब लोकप्रिय हैं। उन्होंने ‘चूल्हे की राख’, ‘स्त्रियाँ’, ‘असली हत्यारे’, ‘मंगलेश की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात’ एवं बेरोजगार सीरीज की कविताएँ पढ़ीं। 41 कविताओं की इस शृंखला में से उन्होंने कुछ कविताओं का पाठ किया। ये कविताएँ इसलिए भी अनूठी हैं क्यूंकि इस गंभीर समस्या पर शायद पहली बार किसी कवि ने कविताओं की एक पूरी शृंखला रची है।
कार्यक्रम के अंतिम कवि के रूप में हरिश्चंद्र पांडे ने अपनी कविताओं का पाठ किया। वे संभवतः कार्यक्रम के वरिष्ठतम कवि थे। उन्होंने ‘वेश्यालय में छापा’, ‘मैं इक्कीसवीं सदी का दृश्य हूँ’, ‘मैं एक भ्रूण गिराना चाहती हूँ’, ‘कछार-कथा’ जैसी कविताओं का पाठ किया। उनकी कविता तथाकथित सभ्य समाज की विद्रूपताओं एवं बनावटीपन का नग्न चित्र श्रोताओं के सामने उपस्थित कर रही थीं। उनकी कविताओं में जंगल, जल और जमीन के खतरनाक दोहन एवं अंधे नगरीकरण एवं इसके फलस्वरूप मानवता के लिए, प्रकृति के लिए, दुनिया के सामने खड़ी होती चुनौतियों का भी रेखांकन दिखता है।
रात के साढ़े नौ बज गए हैं। अभी भी कुछ युवा श्रोता जगह के अभाव में खड़े हैं। कुछ नीचे बैठे हैं। कार्यक्रम की समाप्ति की औपचारिक घोषणा हो गई है। इस भागदौड़ भरे समय में तीन घंटे लगातार बिना हिले-डुले अपने स्थान पर एकाग्रचित्त बैठे, कविता सुनते, दाद देते इन श्रोताओं को देख मैं विस्मय-विमुग्ध था। वीरेन डंगवाल जी की कविताओं, उनके रंग की, महक की कविताओं में कैसा सम्मोहक आकर्षण है, श्रोताओं का यह धैर्य इस बात की बानगी है।
वीरेनियत के आयोजक कहते हैं कि वीरेनियत एक ‘कविता समारोह नहीं कविता है’। इस कार्यक्रम को नजदीक से महसूस कर वाक़ई ऐसा लगता है कि यह कविता है, समारोह नहीं। इस कार्यक्रम में वीरेन डंगवाल जी के प्रति हिन्दी समाज एवं युवाओं के आदर एवं सम्मान को देखते हुए मुझे मीर तकी मीर का शेर याद आ रहा है—
सहल है‘मीर’ का समझना क्या
हर सुखन इस का इक मक़ाम से है
— आशुतोष नंदन
बहुत अच्छी, सारगर्भित रिपोर्ट।