नेहा नरूका की कविताएँ

...नेहा नरूका की कविताएँ क्या हैं? सवालों के छापामार दस्ते हैं। ये दस्ते बिना किसी चेतावनी के आपको कहीं भी घेर सकते हैं। वे आपकी पाली-पोसी या उपहार में मिली प्यारी धारणाओं पर बड़ी निर्ममता से हमला करते हैं। उनका निशाना अचूक होता है। उनके पास एक नहीं अनेक तरह की धार होती है। वह आपको स्तब्ध करती हैं और उस गहरे मानवीय दुख को गौर से देखने के लिए मजबूर करती हैं, जिसकी असहनीयताओं ने उन्हें रचा है।

Admin

…नेहा नरूका की कविताएँ क्या हैं? सवालों के छापामार दस्ते हैं। ये दस्ते बिना किसी चेतावनी के आपको कहीं भी घेर सकते हैं।

वे आपकी पाली-पोसी या उपहार में मिली प्यारी धारणाओं पर बड़ी निर्ममता से हमला करते हैं। उनका निशाना अचूक होता है।

उनके पास एक नहीं अनेक तरह की धार होती है। वह आपको स्तब्ध करती हैं और उस गहरे मानवीय दुख को गौर से देखने के लिए मजबूर करती हैं, जिसकी असहनीयताओं ने उन्हें रचा है।

अगर आप जिंदगी को और कविता को सरल सूत्रों के सहारे समझने की आदत से छुटकारा नहीं पा सके हैं तो नेहा नरूका की कविता आपको बचकर निकलने नहीं देगी।

अगर आप अभी भी इस मुगालते में है कि वर्ग संघर्ष की कविता लिखने के लिए स्त्री संघर्ष के सवाल को प्राथमिकता देने से बचना जरूरी है या यह कि मार्क्सवादी और स्त्रीवादी एक साथ नहीं हुआ जा सकता या यह कि प्रेम और यातना की कविता अलग-अलग होती है या यह कि प्रेम की कविता लिखने का मतलब उस समय राजनीति की कविता से किनारा करना है तो नेहा नरूका की कविताओं का सामना आप नहीं कर पाएंगे।

यहाँ हर साँस की पहचान दुख के ताप से होती है।

उस एक वाक्य का दुख जो जीवन भर के लिए एक स्त्री की चुंबन कामना को अभिशाप में बदल देता है। उस पार्वती योनि का दुख जो शिवलिंग को उसकी प्रतिष्ठा सौंप कर भी अपनी अस्मिता गँवा चुकी है। उन गुलामों का दुख जिनके लिए आज़ादी का मतलब ही गुलाम बने रहने की आज़ादी होता है।

कोई भी दुख विशुद्ध नहीं है। हर दुख में दुनिया भर के दुख घुले मिले हैं। नेहा नरूका की कविता पढ़ने और सुनने का मतलब अपने ही दुख की इस सिफ़त को पहचानना भी है।

प्रस्तुत हैं :

जवान लड़की की लाश

लाश! लाश ! लाश!
छुन्ने मामा के खेत पर लाश!
मर्द खेत की तरफ़ जानेवाले कच्चे रास्ते पर भागने लगे
औरतें एक जगह इक‌ट्ठी होकर खुसुर-फुसुर करने लगीं

बच्चे खेल रहे थे
उन्हें लगा यह भी कोई नया खेल है
वे भी भागने लगे
भागते-भागते मर्द आगे निकल गए
बच्चे पीछे रह गए

बच्चे पूरी ताक़त लगाकर दौड़ रहे थे
पर आख़िर थे तो बच्चे ही

रास्ते में उन्हें तरबूज के खेत मिले
खरबूज के खेत मिले
पके आम के पेड़ मिले
पर उन्होंने किसी भी फल को ललचाकर नहीं देखा
वे बस भागते रहे

उन्हें लाश देखनी थी
उन्हें लगा लाश आसमान में उड़ने वाले हवाई जहाज की तरह होगी
उन्हें लगा लाश आसमानी झूले की तरह होगी
उन्हें लगा लाश तेज धूप, तेज बारिश या फिर तेज़ हवा की तरह होगी

थोड़ी देर बाद वे अपने लक्ष्य तक पहुँच गए
परती पड़े एक खेत पर एक जवान औरत की लाश पड़ी थी
उसने नींबू-से रंग का एक सुंदर सलवार सूट पहना था
उसके माथे पर एक छोटी-सी बिंदी थी
उसके हाथ-पैर के नाखूनों में मरून रंग की नेलपॉलिश लगी थी
जो आधी-आधी छूटी थी

उसने पैरों में बिछिया नहीं पहनी थी
उसने हाथों में काँच की चूड़ियाँ नहीं पहनी थीं
मर्दों ने इससे तय किया— जवान लड़की की लाश है

बच्चे देखने लगे लाश का मुँह न काला था न भूरा

बच्चे देखने लगे लाश के मुँह पर न रोने का भाव था न हँसने का
बच्चे देखने लगे लाश के गले पर सूखा हुआ खून था
बच्चे देखने लगे लाश के पास एक मैली-सी चप्पल थी

बच्चे डर गए— तो लाश मम्मी, बुआ, चाची, दीदी… की तरह होती है!

बच्चे भाग आए
और अपनी-अपनी माँओं की गोद में दुबक गए
उन्होंने मन ही मन तय किया
अब कभी नहीं जाएँगे लाश का खेल देखने…

क्या देखा?
क्या देखा?

बच्चे एक स्वर में बोले
‘जवान लड़की की लाश’

मार डाला-फेंक डाला
औरतें आपस में बोलीं
किसने मारा?
कोई बोली बाप ने
कोई बोली भाई ने
कोई बोली जीजा ने
कोई बोली प्रेमी ने

कहाँ मारा?

कोई बोली रेल में मारा
कोई बोली घर में मारा
कोई बोली बाग़ में मारा

कहाँ की थी?

कोई बोली गाँव की थी
कोई बोली शहर की थी

औरतें देर तक लाश का गीत गाती रहीं
बच्चे लाश का गीत सुनते-सुनते सो गए

उन्हें फिर ख्वाब भी आए
तो जवान लड़की की लाश के आए।
***

हिंसक परम्पराएँ

मेरे ऊपर पहली हिंसा कब और किसके द्वारा हुई
कुछ याद नहीं आ रहा…

हो सकता है तब हुई हो जब मेरी उम्र रही हो कोई एक-आध साल
मेरे रोने की ध्वनि और दादी के चीखने की ध्वनि, जब गड्डमड्ड होकर माँ के कानों से टकराई होगी
तब माँ ने मुझे झूले में पटककर तड़ाक की आवाज के साथ पहला थप्पड़ रसीद किया होगा—

माँ : “रोटी के लिए अबेर करवा दी जा मोड़ी ने!”
दादी : “मोड़ों छाती से चिपकाय के रखी जातीं है?”
बुआ : “गोदी में लिवाय-लिवाय कें डुलनी बनाय दई है मोड़ी।”

इत्यादि हिंसक वाक्य जब मुँह से निकलकर हवा में घुलते होंगे
तो गुलाबी गाल से पहले लाल फिर नीला रंग झड़ता होगा

माँ घर में सबसे कमजोर थी
माँ से कमजोर थी मैं
तन, मन, धन तीनों से बेहद कमजोर
और इंसान अपने से कमजोर इंसान पर ही अपनी कुंठाएँ
आरोपित करता आया है

मैंने कोई हिसाब-किताब दर्ज नहीं किया हिंसा का
सम्भव भी नहीं था यह करना
गणित मेरे लिए बेस्वाद विषय रहा हमेशा

माँ ने इसलिए मारा क्योंकि मैं उनकी दुर्गति में सहायक थी,
मैंने उनके दूध से रोते स्तन जख्मी किए थे
पिता ने इसलिए कि मैं जवान होकर भी उदंड थी,
मैंने उन्हें झुककर कभी प्रणाम नहीं किया था
पति ने इसलिए कि मैं बेशर्म थी,
मैं उसके दोस्तों के सामने हँस देती थी
और अकारण ही नाचने लगती थी
नाचने से मेरे भाई को भी सख्त चिढ़ थी,
इसलिए कभी-कभार वह भी प्यार से मार देता था मुझे
चिढ़ तो मेरे प्रेमी को भी मेरे हर शब्द से थी,
इसलिए वह अक्सर शब्दों के थप्पड़ मारता था मेरे गालों पर,
उन्हीं गालों पर जिन्हें वह कई बार पागलों की तरह चूमकर फूल जैसा होने का खिताब दे चुका था।

मैंने मारा अपने बच्चों को
क्योंकि वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे
वे तो सार्वजनिक आलोचना भी नहीं कर सकते थे मेरी
अगर करते भी, तो कौन करता उन पर विश्वास?
आखिर मैं माँ थी!
और माँ होती है ममता-त्याग-महानता की मूर्ति

हिंसा हर परिस्थिति में हिंसा नहीं कही जाती
हम इसे पवित्र परम्परा के नाम से जानते हैं
हिंसक परंपराओं के पालन में हम सभी मनुष्य माहिर हैं
हमें अपराधबोध भी नहीं सताता

हम इसे प्रेम कह-कहकर व्याख्यायित करते हैं।
मृत्यु के बाद भी आत्मा पर पड़े हिंसक चिह्न जीवाश्म बन जाने के लिए अभिशप्त हैं
इसलिए हम सब उन हाथों को विराम देने के बारे में विचार कर सकते हैं
जो ‘निर्माण’ की जगह ‘हिंसा’ के लिए उठे।
***

विदाई

‘विदाई’ का मतलब एकता कपूर का लिजलिजी भावुकता परोसने वाला सीरियल ही नहीं होता सिर्फ़

जिसके ज्यादातर एपिसोड में गोरे रंग की साधना बाँधनी प्रिंट की रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहनकर रोते-रोते मॉडलिंग किया करती है

इस देश की सबसे महँगी दुकान से खरीदी गई ‘साधना साड़ी’ पहनकर भी नहीं काटी जा सकती विदाई की बेला…

विदाई यातना का समय है
जिसमें अभी-अभी पटरियों से सरपट भागती रेलगाड़ी से फेंकी गई है एक शिशु स्त्री
वह घायल, जख्मी नन्हीं बालिका विदाई की बेला के बाद वृद्धा में बदल जाती है

विदाई की बेला के बाद
उस बूढ़ी स्त्री की जीभ में स्वाद रह जाता है बस
उसके कान में रह जाता है बासी पड़ चुका कोई संगीत
नाक में रह जाती है तरह-तरह की गंध
त्वचा में रह जाती है प्रेम और उत्तेजना की छुअन
आँख में रह जाते हैं कई-कई दृश्य
कल्पनाओं में रह जाते हैं आधे-अधूरे बिंब

चेहरे पर झुर्रियाँ
बालों में सफ़ेदी
पैरों में थकान
नींद में स्वप्न
स्वभाव में सनक
और जीवन में अश्रुमग्नता रह जाती है विदाई की बेला के बाद

फिर तमाम उम्र ये वृद्धा, हर किसी की विदाई पर रुदाली बनकर प्रगट होती है

ये गला फाड़कर किसी भी अपरिचित या परिचित लड़की की विदाई पर एक जैसे स्वर में रो लेती है

औरों के लिए इसका रोना भी हो जाता है संगीत का बजना

पर ये कोई संगीतज्ञ नहीं
असलियत में इसे रोने के अलावा और किसी हुनर में दक्षता प्राप्त नहीं करने दी गई
कहा गया ये तो पैदा ही ‘विदाई की रस्म’ निभाने के लिए हुई हैं।
***

एलीना कुरैशी

एलीना कुरैशी आज तुम हिजाब पहनकर कॉलेज आईं
याद है वो दिन! जब तुम पहली बार आई थीं तो जींस-टॉप पहनकर आई थीं
तुमने कहा था, “मैम, मुझे आईपीएस बनना है।”

मुझे कितनी खुशी हुई थी यह जानकर कि तुम्हारे पापा तुम्हें पढ़ाने में रुचि रखते हैं
मैंने तुम्हारी मम्मी से बात की थी एक बार फ़ोन पर, और जाना वो तुम्हारी पढ़ाई को लेकर कितनी चिंतित रहती हैं

तुम तब भी हिजाब पहनने वाली लड़कियों के साथ आती थीं
पर सबमें सबसे अलग था तुम्हारा आत्मविश्वास, तुम्हारी चहकती जवानी, तुम्हारी चमकती आँखें उन आँखों से झाँकते सपने, तुम्हारी गूँजती हुई हँसी
एलीना कुरैशी तुम सबसे सुंदर हँसती थी!

मगर आज तुम बहुत गम्भीर थीं
लगा जैसे तुमने हँसना बन्द कर दिया है
लगा जैसे तुम खबरें पढ़ने लगी हो
लगा जैसे तुम टीवी देखने लगी हो
लगा जैसे तुमने फेसबुक पर कोई मजहबी ग्रुप ज्वाइन कर लिया है
एलीना कुरैशी तुम भी हिजाब पहनने लगी हो!

एलीना कुरैशी मैं अब्दुल्लाह हुसैन की किताब ‘उदास नस्लें’ पढ़ रही हूँ
मैं इस किताब को पढ़ते हुए बस तुम्हें देख रही हूँ
मेरे देखते ही देखते तुम असमय ही कितनी बूढ़ी होती जा रही हो
न जाने कौन-सा कमबख़्त वजन है जो तुम्हारे होठों से चिपककर बैठ गया है
काश तुम इस सियाह हिजाब के बारे में कोई टिप्पणी करते एलीना कुरैशी!

हिंदू शिक्षक कह रहे हैं, “एलीना का हिजाब-विवाद के बाद हिजाब पहनना बताता है कि मुसलमान कितने कट्टर होते हैं।”
एलीना कुरैशी तुम्हें पता भी है कुछ
तुम्हें कट्टरपंथी घोषित किया गया है
और यह वाक्य लिखते हुए मेरा ब्लड प्रेशर लो हो रहा है

राजनीति बहुत क्रूर हो गई है
उसकी क्रूरता से बचने के लिए मैं भी पीछे की तरफ चल रही हूँ
तुम भी चल रही हो पीछे की तरफ़ एलीना कुरैशी

राजनीति के बचाव-दबाव-जवाब में और कितना पीछे की तरफ चलना है हम दोनों को
तुम्हें अरब जाकर रेत पर लेटना है और
क्या मुझे भगवा पहनकर हवन कुंड में बैठना है?

तुम्हें पुलिस में जाने से पहले और मुझे कविता लिखने के अलावा और क्या-क्या करना है एलीना कुरैशी?
***

कार्बन

हाड़-मांस का जीता-जागता-बोलता-बिलखता एक पूरा का पूरा इंसान अचानक एक दिन मरकर कहाँ चला जाता है?

कोई तो जगह होगी जहाँ वह जाता होगा
कोई तो रास्ता होगा जो उस जगह तक जाता होगा
फिर क्यों नहीं मालूम किसी को उस रास्ते के बारे में?
मैं नहीं मानती कि इंसान सबसे आखिर में मिट्टी हो जाता है
नहीं मानती कि नचिकेता यमराज के पास जाकर मृत्यु का रहस्य पता करके आया था
मुझे सब बक लगता है

तो मरने के बाद इंसान सबसे आखिर में मांस-मिट्टी-राख की यात्रा तय करने के बाद कार्बन बन जाते हैं क्या?
रहने लगते हैं आवर्त-सारिणी के सभी तत्वों के साथ
बनाने लगते हैं आपस में मिल-मिलकर तरह-तरह के यौगिक विपरीत-विपरीत स्वभाव और शक्ल वाले

मरने के बाद क्या सब इंसानों के साथ प्रकृति एक जैसा व्यवहार करती होगी
इतनी विविधताओं के बीच क्या सबका अंत एक जैसा होता होगा?

कोई-कोई फ़ॉसिल बनकर
शताब्दियों के बाद बाहर आता होगा अपने सम्पूर्ण दस्तावेजों के साथ
आकर सिद्ध करता होगा अपने युग की प्रासंगिकता

फिर जब तेल के कुओं पर युद्ध की बात छिड़ती होगी तो तेल के कुओं से निकलने लगते होंगे मुर्दा
फिर जब गरीब देशों को लूटने के दावे किए जाते होंगे तो हीरे की खदानों से निकलने लगते होंगे मुर्दा

हजारों-हजारों सालों से पेड़-पौधे जीव-जंतु-इंसान मर रहे हैं
मरकर कहीं जा रहे हैं
न जाने कहाँ जा रहे हैं?
किसी ने मेरे कान में धीरे-से फुसफुसाया है, “कार्बन बनकर तुम्हारे पेट में भी तो जा रहे हैं मुर्दा।”
***

चच्चा चल बसे

जिंदगी के अंतिम मोड़ पर ऐसा क्या हुआ
चच्चा ने छलांग लगा दी कुएँ के भीतर
नहीं सोचा अपने बेटे-बेटियों और नाती-पोतों के बारे में
जरा भी
भूल गए पत्नी
कुछ साल पहले
जिसे मौत के मुँह से खींचकर लाए थे चच्चा
कहते हैं सब ठीक था
बस…
बुढ़ापे में गड़बड़ा गई थी उनकी मानसिक स्थिति
बड़ी बहू आग लगाकर मर गई
मंझली बेटी का पति ब्याह में ही मर गया
बड़ी का कुछ साल बाद
दो पोतियाँ ब्याह होते ही
पेट से हुई
फिर बारी-बारी से मर गई
(या मार दी गई)
और भी न जाने क्या-क्या देख चुके थे चच्चा
पर नहीं हुए थे पागल
वैसे ही चलते थे
वैसे ही खाते थे
वैसे ही बोलते थे
अपनी दबंगई में
रहते थे हरदम
कभी साग
कभी गन्ना
कभी बेर
चच्चा का अपना एक लोक इतिहास था
चर्चे थे असफेर के गाँवों में
पिछले एक-दो सालों से
हर वक्त बरबराते थे
उनके पोपले मुँह पर लगा रहता था गालियों का अंबार
जिसके पास बैठ जाते
उसे कोई काम-धाम न करने देते
पीठ पीछे सब कहते
चच्चा सिधार जाएँ स्वर्ग
मालूम नहीं उस वक्त
क्या आया होगा उनके दिमाग में
बस निर्णय लिया
कूद गए
और चल बसे!
***

पुरखिनें

पुरखे युद्ध करते रहे घाव लेकर घर लौटे
वीर कहलाए।
पुरखिनें कारावास में रहीं
बेड़ियाँ पहने-पहने पुरखों के घावों पर मरहम लगाती रहीं
मरहम लगाते-लगाते मर गई।

घाव और कारावास में से कोई एक विकल्प चुनना हो तो तुम क्या चुनोगी?
तुम कहोगी : घाव की पीड़ा से तो कारावास की बेचैनी भली!

पर पुरखिनें कहेंगी : घाव को समय भर देता है पर समय कारावास को कम नहीं कर पाता।
समय; कारावास का आदी बना देता है, फिर स्वतंत्रता से भय लगने लगता है
फिर नींद में भी स्वतंत्रता भयानक स्वप्न के रूप में आती है।

समय पुरखिनों के कारावास को कम नहीं कर सका
पर समय ने पुरखों के घाव जरूर भर दिए।

घाव और कारावास में से एक चुनना हो तो तुम कारावास मत चुन लेना मेरी बच्ची
माना कि घाव से मर सकते हैं पर मरकर वीर तो कहलाते हैं न?
घाव से तड़प-तड़पकर मर जाना, कारावास में रहकर घुट-घुटकर मरने से सौ गुना बेहतर विकल्प है।

तुम्हें जिस तरह मरना है मर जाना मेरी बच्ची पर कम से कम मेरी तरह पश्चात्ताप की अग्नि में जलना मत!
***

गोंद वाले पेड़

लाडो जब छोटी थी
पेड़ पर चढ़ना जानती थी

लाडो को पसंद थे
नीम, बबूल और शीशम के पेड़
जिन पर गोंद का मिलना ऐसा था
जैसे किसी खजाने का मिल जाना

पर जब से लाडो जवान हुई है
सूख गई है उसकी बाढ़
यह सूखापन सबसे ज्यादा दिखता है उसके चेहरे पर
उसके दोनों गाल इस तरह से चिपक गए हैं हड्डियों से
जैसे चिपक जाती है तवे पर कोई रोटी,
(बहुत अधिक आँच के कारण)
लाडो को दिल्ली में देखकर लगता है जैसे आफ्रीका के जंगलों से निकला एक गुलाम अमेरिकी सभ्यता देखकर हतप्रभ हो

लाडो जानती है
उसके शरीर को दूध नहीं, गोंद लगता है
और दूध कितना नुक़सानदेह
मुद्दा ये नहीं है कि गोंद कितना फ़ायदेमंद है
मुद्दा ये है कि लाडो आज गोंद का स्वाद
और पेड़ पर चढ़ना दोनों भूल गई है
इस कविता का मक़सद उसे बस यह याद दिलाना है
कि उसकी जगह बिना खिड़‌कियों वाले इस कमरे से कई हजार किलोमीटर दूर अलमारी में रखी एलबम में मुस्कुराती उस लड़की के पीछे खड़े पेड़ों के ऊपर है।
***

हसीन दिलरुबा का तिल

एक दिन हसीन दिलरुबा ने अपने यार से पूछा : मुझसे एक वादा करोगे?
उसके यार ने हँसते हुए कहा : हाँ!

दिलरुबा बोली : किसी को मत बताना ये बात कि मेरे पेट पर एक तिल है और तुम उसे बहुत देर तक चूमा करते थे जिन्हें तुम प्यार करो उन्हें सब बता देना
बस ये छिपा लेना…
मैं नहीं चाहती तुम बताओ और वे अनजान लोग
जिनका मेरी जिंदगी से कोई वास्ता नहीं
मेरे तिल से घृणा करें

कम कर सको तो सबसे प्यार करते हुए
एक अँगुली से छिपा लेना मेरा तिल
और अधिक कर सको तो किसी होम्योपैथिक दवा से हटा देना मेरा तिल
पर मेरे तिल को विष बनाकर अपने गले में मत रखना

उसके यार ने फिर से कहा : हाँ।

दूसरे दिन दिलरुबा ने अपने पेट को हर गली, हर चौराहे, हर नुक्कड़ पर लटका पाया।
***

हसीन दिलरुबा की जान उसकी हथेली पर है

रात के बारह बजकर पंद्रह मिनट
बरसात का मौसम
हसीन दिलरुबा हाइवे पर खड़ी थी
सिर्फ़ बारिश की बूँदें उसकी देह को नहीं छू रही थीं
हाइवे से गुजरती निगाहें और दूर ढाबे पर बल्ब की रोशनी के बीच कढ़ाई माँजता एक उदास शख्स
बार-बार हाइवे पर खड़ी हसीन दिलरुबा को छूने की चुपचाप कोशिश कर रहा था

हसीन दिलरुबा अभी बस से उतरी है
“कुछ भी हो सकता है लड़की!” उसके अंदर बैठी औरत ने कहा
हसीन दिलरुबा ईयरफोन कानों में लगाए ऐसे खड़ी रहीं
जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं
जैसे ये रात के नहीं दिन के बारह बजकर पंद्रह मिनट हों
जैसे उसे पता ही नहीं रात और दिन के सवा बारह का अंतर
उसकी जान उसकी हथेली पर थी
और वह बरसात की बूंदों की छुअन महसूस कर रही थी
बाहर का अँधेरा उसके अंदर के अँधेरे में घुसपैठ कर रहा था

तभी एक बूढ़ा आदमी यहाँ से गुजरा
और उसने हसीन दिलरुबा की सुरक्षा की परवाह व्यक्त की
अंदर की औरत ने बूढ़े की हाँ में हाँ मिलाई
फिर बूढ़ा आदमी लगभग दौड़ते हुए शहर की तरफ जाने वाले रास्ते में जाकर गायब हो गया
इधर हसीन दिलरुबा की स्मृति के पहिये कुछ साल पीछे की तरफ दौड़ने लगे—

दिन के सवा बारह या उससे कम या उससे ज्यादा
क्या फ़र्क पड़ता है संख्या कितनी थी
महत्त्वपूर्ण ये है संख्या दिन की थी
उस चिर-परिचित शख्स ने उस पर हमला कर दिया
वह घायल बिल्ली की तरह तड़पने लगी
पर कोई नहीं जान पा रहा था कि वह तड़प रही थी
सब कह रहे थे वह घर के अंदर है और सुरक्षित है
फिर उसने धीरे-धीरे खुद को खड़ा किया
अपने जख्मों पर आप ही दवाई लगाई

हसीन दिलरुबा ने अपने अंदर ही औरत से कहा : उसकी जान तो हमेशा हथेली पर थी!

एकाएक पास में उग आई ऑटो ड्राइवर की आकृति ने कहा : आप इस तरफ़ हैं मैं आपको उस तरफ ढूँढ़ रहा था।

[आलोचना सहस्त्राब्दी अंक-73 में प्रकाशित कविताएँ]

Neha Naruka kavita sangrah Fati hatheliyan

(नेहा नरूका का कविता संग्रह ‘फटी हथेलियाँ’ यहाँ से प्राप्त करें।)

Share This Article
Leave a review

Leave a review