अकाल का ख़बरनवीस : चित्तप्रसाद के रिपोर्ताज़

“हंग्री बेंगाल चित्तप्रसाद की एक ऐसी रचना है, जिसमें हम उनके मार्मिक लेखों और चित्रों को एक साथ पाते हैं। इस रिपोर्ताज में असहाय और निरन्न जनता की व्यथा-कथा की पंक्तियों में तत्कालीन राजनीति, स्वार्थ में अंधे ब्रिटिश शासन की अमानवीय उदासीनता और कालाबाज़ारियों-सूदख़ोरों की बेहिसाब लूट के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ भी संरक्षित हैं। हंग्री बेंगाल अपने विवरणों और चित्रों के ज़रिये हमारी चेतना में प्रतिरोध ही नहीं, प्रतिशोध की भावना भी जगाता है, इस रिपोर्ताज को प्रकाशित करने का मूल उद्देश्य यही था।”

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चित्र सौजन्य : चित्तप्रसाद (हेंग्री बेंगाल)

चित्तप्रसाद के जीवन को देखने से कई बार लगता है कि उनका गंतव्य शायद उनके बचपन में ही तय हो गया था। चित्तप्रसाद जब बहुत छोटे थे, स्कूल में पढ़ रहे थे, तभी से बहुत लगन से संगीत, नृत्य और चित्रकला में अपने को शिक्षित करने लगे थे। पिता के तबादले के चलते मात्र तेरह साल की उम्र में चित्तप्रसाद चटगाँव (1928) आए। चटगाँव में वे कई प्रतिभावान साहित्यकारों, संगीतकारों और चित्रकारों के सान्नि‍ध्य में आए। साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों के सपनों के साथ भी अपने को जोड़ते गए।

चटगाँव शहर सत्ता-विरोधी गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध था। सन् 1930 में इस इलाक़े में सक्रिय क्रांतिकारियों ने सूर्य सेन (मास्टर दा) के नेतृत्व में चटगाँव के शस्त्रागार पर हमला किया था। सूर्य सेन को सन् 1935 में फाँसी पर लटका दिया गया था। चटगाँव शस्त्रागार अभियान के अन्य क्रांतिकारी 1937 में अंडमान जेल से अपनी सज़ा पूरी कर चटगाँव लौट आए थे। आते ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों से जुड़ गए।

इधर कलकत्ता में स्थापित ‘फ़ासीवाद विरोधी लेखक एवं कलाकार संघ’ की गतिविधियाँ चटगाँव में भी तेज़ होती गईं। स्थानीय लोक कलाकारों का एक बड़ा दल इसमें शामिल हो गया। चित्तप्रसाद चित्रकला, नृत्य और संगीत के साधक के रूप में इस संगठन में सक्रिय हुए। इस तरह वे कम्युनिस्ट पार्टी के और क़रीब आ गए। 1940 में जलियाँवाला जनसंहार पर उनके बनाए हुए एक चित्र से हम उनके सत्ता-विरोधी राजनैतिक सरोकारों के बारे में अनुमान लगा पाते हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल में अंग्रेजों ने बड़ी मात्रा में खाद्यान्न सरकारी गोदामों में जमा कर लिया था, जिसके चलते बाज़ार में अन्न की कमी और क़ीमतों में व्यापक वृद्धि दिखने लगी थी। इस स्थिति को काला-बाज़ारियों की मुनाफ़ाख़ोरी ने अमानवीयता की हद तक बिगाड़ दिया।

ऐसा अंग्रेज़ों ने अपनी ध्वस्त भूमि नीति (Scorched Earth Policy) के चलते किया। इस क्षेत्र से अन्न के बड़े भंडारों को हटा लिया गया। आवागमन के माध्यमों को भी ठप्प कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया कि जापानी पूर्वी सीमा पार कर भारत में प्रवेश कर भी लें तो उनकी अग्रगति को रोका जा सके। यह युद्ध-नीति का एक आज़माया हुआ तरीक़ा था। ऐसे प्रबंध किए गए कि भोजन के अभाव के चलते विदेशी सेना इस इलाक़े में टिक न पाए। नदियों से नावों को हटाकर दुश्मन के आने-जाने को भी रोकने की कोशिश की गई।

बर्मा के रास्ते भारत की सीमा की ओर बढ़ती जापानी सेना को रोकने के अंग्रेजों के इस प्रयास ने चटगाँव के लाखों असहाय लोगों को मौत के मुँह में धकेल दिया।

‘चावल पर प्रतिबंध’ की नीति के तहत चटगाँव के साथ तटवर्ती तीन प्रमुख ज़ि‍लों (बोरिसाल, मिदनापुर और खुलना) में पकी फ़सल, धान तथा चावल रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इन्हें सरकारी एजेंसियों द्वारा ख़रीद लेने का या फिर जलाकर नष्ट कर देने का निर्देश दिया गया और इस पर तुरंत कार्यवाही करने को कहा गया। इस आदेश के चलते कुछ ही दिनों में एक अप्रत्याशित अकाल ने बंगाल को अपनी गिरफ़्त में ले लिया, जिसने बाद में बिहार और उड़ीसा को भी प्रभावित किया। इसी बीच अंग्रेजी सरकार ने प्रदेशों के बीच अन्न के आयात-निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जिसने स्थिति को और बिगाड़ दिया।

कलकत्ता और बंगाल के अन्य पूर्वी इलाक़ों में जापानी सेना से लड़ने के लिए अमरीकी और ब्रिटिश फ़ौजों की बड़ी संख्या में तैनाती की गई। इस सेना के लिए भी अंग्रेजों ने न केवल अपने अन्न भंडार बनाए, भारी मात्रा में अन्न विदेशों को भी भेजा गया।

ऐसे ही बुरे वक़्त में सन 1942 के 16 अक्टूबर को बंगाल के तटीय इलाक़ों में भयंकर समुद्री तूफ़ान आया। इसने धान की फ़सल को ही तबाह नहीं किया, कई इलाक़ों में खेतों को समुद्री खारे पानी से भी भर दिया, जिससे वे फ़सल के उपयुक्त नहीं रहे।

अकाल के साथ भुखमरी और बीमारियों के शुरू होने में देर न लगी। बदहाल लोग महानगरों की ओर एक मुट्ठी अन्न के लिए नहीं, बल्कि चावल की माड़ी की आस के साथ आने लगे और कलकत्ते की सड़कों के फुटपाथों, पार्कों और गलियों में बिछ गए। इन अकाल-पीड़ितों में से बहुत कम ही लौटकर अपने घर जा सके थे। बंगाल के अकाल में इक्कीस लाख लोगों की मौत हुई थी।

इस विकट परिस्थिति में सभी राजनैतिक पार्टियाँ अकाल पीड़ितों की मदद के लिए सक्रिय हुई थीं, पर कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे बंगाल की सीमा से बाहर निकालकर समूचे देश का मुद्दा बना दिया था। पार्टी के मुखपत्रों पीपुल्स वार और पीपुल्स एज में न केवल अकाल की ख़बरें छप रही थीं, सुनील जाना के फोटोग्राफ़्स और चित्तप्रसाद के चित्र भी नियमित प्रकाशित हो रहे थे। इस दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ने बंगाल के अकाल पर कई चित्र-प्रदर्शनियों का आयोजन भी किया।

19 से 25 जुलाई (1943) के बीच आल इंडिया स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के आह्वान पर देशव्यापी ‘चटगाँव सप्ताह’ का आयोजन किया गया। इसी साल 20 से 27 दिसम्बर के बीच मुंबई में ‘भूखा बंगाल’ शीर्षक से एक प्रदर्शनी का आयोजन ‘रेड फ़्लैग हॉल’ में किया गया। इसी प्रदर्शनी को कम्युनिस्ट पार्टी ने 10 से 17 जनवरी (1944) के बीच पूना में भी आयोजित किया। 20 से 25 फ़रवरी को मुंबई के गिरनी कामगार मैदान में पार्टी की मुंबई इकाई की ओर से ‘बंगाल बचाव’ (सेव बंगाल) प्रदर्शनी का आयोजन हुआ। मार्च महीने के पहले सप्ताह में एक बार फिर इस प्रदर्शनी का आयोजन मुंबई के किरलोस्करवाड़ी में किया गया। विजयवाड़ा में आयोजित अखिल भारतीय किसान सभा में 14 से 15 मार्च को अकाल पीड़ितों के सहायतार्थ सुनील जाना और चित्तप्रसाद के फ़ोटोग्राफ़्स और काले-सफ़ेद चित्रों की प्रदर्शनी हुई।

कलकत्ता में 1944 के दिसम्बर में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के आठवें सम्मेलन के मौक़े पर अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए ‘बंगाल पेंटर्स टेस्टीमनी’ शीर्षक से एक अलबम प्रकाशित किया गया था, जिसमें 28 प्रमुख चित्रकारों के चित्रों को छापा गया था और जिसकी क़ीमत पाँच रुपये थी। इस महत्त्वपूर्ण प्रकाशन के कुछ ही महीनों बाद मार्च 1946 में फ़ासीवाद विरोधी लेखक और कलाकार संघ की ओर से एक और प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। प्रदर्शनी का शीर्षक था ‘मेरा देश’ (आमार देश)।

इन प्रदर्शनियों के अलावा नाटक और नृत्य-प्रस्तुतियों द्वारा भी महाअकाल से पीड़ित देशवासियों के लिए आर्थिक सहयोग जुटाने का निरंतर प्रयास होता रहा। इन आयोजनों के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी ने पराधीन देश की जनता के बीच ‘देशप्रेम’ को नए अर्थ में पहुँचाने की कोशिश की थी।

पार्टी का ऐसा ही एक प्रयास था चित्तप्रसाद द्वारा तैयार की गई अकाल की ज़मीनी रपट—हंग्री बेंगाल। प्रकाशन के तुरंत बाद ही यह पुस्तक सरकार द्वारा प्रतिबंधित घोषित कर दी गई और पुस्तक की सभी पाँच हज़ार प्रतियों को ज़ब्त कर नष्ट कर दिया गया। पार्टी के कुछ साथियों द्वारा कुछ कापियाँ बचा ली गई थीं, इसलिए आज हम इस ऐतिहासिक पुस्तक पर चर्चा कर पा रहे हैं।

कई चित्रकारों, विद्वानों, बुद्धिजीवियों ने चित्तप्रसाद के जीवन और चित्रकला पर लेख लिखे हैं। पर उनमें एक बेहद महत्त्वपूर्ण लेख चित्रकार सोमनाथ होर का है। चित्तप्रसाद को याद करते हुए सोमनाथ होर लिखते हैं—‘वे मेरे पहले शिक्षा गुरु थे। उन्होंने लगभग मेरा हाथ पकड़कर मुझे भूख से पीड़ित मरणासन्न लोगों को चित्रित करना सिखाया था। जब भी वह चटगाँव आते, उनका साथ मुझे मिलता था और मैं पूरे दिन उन्हीं के साथ घूमता था। रात को घर लौटकर लालटेन की रौशनी में वे दिन में पेंसिल से बनाए हुए चित्रों को काली स्याही से भरते थे। मुझे आज भी याद है, वे कहते थे, ‘सोमनाथ, देखो ये जो लड़की खड़ी हुई है,…बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बे बाल…न जाने कितने दिनों से भूखी है। आँखों में कैसी चमक है…मानो फटकर बाहर आने को हों! पसलियाँ…ओह किस कदर उभरी हुई हैं। मैं समझ सकता था कि दरअसल वे ख़ुद से बात कर रहे होते थे। वे दिल की आँखों से पूरे दृश्य को देखते थे और फिर उसमें प्राण डालते थे।’

चित्तप्रसाद बीसवीं सदी के सबसे बड़े मानवतावादी भारतीय चित्रकार थे। इनके चित्रों में ही नहीं, पत्रों, लेखों और रिपोर्ताजों में भी हमें यह देखने को मिलता है।

हंग्री बेंगॉल चित्तप्रसाद की एक ऐसी रचना है, जिसमें हम उनके मार्मिक लेखों और चित्रों को एक साथ पाते हैं। इस रिपोर्ताज में असहाय और निरन्न जनता की व्यथा-कथा की पंक्तियों में तत्कालीन राजनीति, स्वार्थ में अंधे ब्रिटिश शासन की अमानवीय उदासीनता और कालाबाज़ारियों-सूदख़ोरों की बेहिसाब लूट के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ भी संरक्षित हैं। हंग्री बेंगाल अपने विवरणों और चित्रों के ज़रिये हमारी चेतना में प्रतिरोध ही नहीं, प्रतिशोध की भावना भी जगाता है, इस रिपोर्ताज को प्रकाशित करने का मूल उद्देश्य यही था।

हंग्री बेंगॉल 1943 के नवम्बर के महीने में पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के विभिन्न अकाल पीड़ित गाँवों में घूम-घूमकर क़रीब एक महीने के श्रम से तैयार किया रिपोर्ताज है। इसके आवरण पर मुद्रक और प्रकाशक का परिचय इस प्रकार दिया हुआ है : Printed by Sharaf Athar Ali at the New Age Printing Press, 190 B, Khetwadi Main Road, Bombay-4 and published by him, Raj Bhawan, Sandhurt Road, Bombay.

पत्रकारिता का नया चेहरा और चित्तप्रसाद

चित्तप्रसाद उन दिनों पीपुल्स वार पत्रिका के लिए नियमित चित्र बना रहे थे। इसी वर्ष (1943) के 2 मई के पीपुल्स वार के अंक में चित्तप्रसाद का बनाया पहला चित्र (देखें चित्र-1) प्रकाशित हुआ था। 5 सितम्बर 1943 (वर्ष-2 : संख्या-10) भूखे-कमज़ोर बेटे को गोद में लिये एक माँ का चित्र प्रकाशित हुआ था। बड़ी तादाद में मिदनापुर से लोगों का कलकत्ता महानगर आना अकाल की भयावहता बता रहा था। चित्तप्रसाद ने फुटपाथ पर रहने को मजबूर लोगों के चित्र बनाए। चित्र ‘बेघरों का घर’ पीपुल्स वॉर के 28 नवम्बर 1943 के अंक में प्रकाशित हुआ।

इस दौर में चित्तप्रसाद ने अपने को अकालपीड़ितों के चित्रों के लिए समर्पित कर दिया। चित्तप्रसाद के चित्र बनाने का सिलसिला चटगाँव-कलकत्ता-मिदनापुर तक ही सीमित नहीं रहा। महाराष्ट्र के अकाल पर भी उन्होंने कई मार्मिक चित्र बनाए।

चित्तप्रसाद के जीवन का यह एक महत्त्वपूर्ण दौर था। भारतीय चित्रकला में इसके पहले नाम-परिचयहीन मरणासन्न कंकाल मानव शरीर को कभी किसी ने चित्र का विषय नहीं बनाया था। चित्तप्रसाद के अकाल-चित्रों में दहला देने वाले यथार्थ की एक काली-सफ़ेद दुनिया थी, जो क़रीब होते हुए भी अदृश्य थी। इन चित्रों ने साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन को बेनक़ाब कर दिया, जिसके ‘सुशासन’ का डंका दुनिया-भर में बजता था। आज भी चित्तप्रसाद के अकाल चित्रों से रू-ब-रू होना हर उस ब्रिटिश नागरिक को असहज और शर्मिंदा कर सकता है जिसे अपने इतिहास पर गर्व हो। चित्तप्रसाद ने अपने पूरे जीवनकाल में अंग्रेजी शासन को माफ़ नहीं किया। आज़ादी के आसपास उन्होंने हालाँकि साम्राज्यवादी अमरीका को भी अपने निशाने पर लिया, पर जिस तीव्रता से उन्होंने अंग्रेज़ी राज की आलोचना की है, वह उनके चित्रों का विशेष उपनिवेश-विरोधी पहलू है।

1943 के अकाल के बारे में पीपुल्स वॉर पत्रिका के सचित्र रिपोर्ताजों से लेकर हंग्री बेंगॉल के पन्नों तक हम चित्तप्रसाद से केवल एक प्रखर राजनैतिक चित्रकार के रूप में ही नहीं, एक पत्रकार और साहित्यकार के रूप में भी परिचित होते हैं। हंग्री बेंगॉल  के लेख अंग्रेज़ी में लिखे गए थे।

यह बताना मुश्किल है कि किन कारणों से ‘हंग्री बेंगॉल’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक इतने लम्बे समय तक भारतीय पाठकों की नज़र से दूर रही। आज़ादी के बाद इस पुस्तक के प्रकाशन में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन 1943 में लगे प्रतिबंध के 48 वर्षों बाद सन् 1991 में विनय घोष द्वारा सम्पादित बांग्ला लघु-पत्रिका योगसूत्र में सोमेशलाल मुखोपाध्याय द्वारा किया गया इसका अनुवाद प्रकाशित हो सका। फिर 2011 में दिल्ली आर्ट गैलरी द्वारा हंग्री बेंगाॅल के मूल अंग्रेजी सचित्र संस्करण का पुनर्मुद्रण किया गया। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हिंदी में हम इस पुस्तक के प्रकाशन के 75 वर्ष बाद इस पर चर्चा कर रहे हैं।

चित्तप्रसाद का ‘भूखा बंगाल’

1943 के महा-अकाल ने बंगाल के दो इलाक़ों को दो बिलकुल भिन्न कारणों से प्रभावित किया था। पर इस अकाल से मुनाफ़ा कमाने वाले कालाबाज़ारियों की उपस्थिति और सरकारी उदासीनता दोनों इलाक़ों में एक जैसी थी।

यह एक संयोग ही था कि नैहाटी में जन्मे चित्तप्रसाद अपने पिता के तबादले के चलते 1920 में बाँकुड़ा आए थे और फिर वहाँ से 1928 में चटगाँव। चटगाँव ब्रिटिश भारत में पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण शहर था। 1942 के 8 मई को चटगाँव पर जापानी हवाई जहाज़ से बम गिराए गए थे। युद्ध का माहौल बनते देख चित्तप्रसाद के पिता सपरिवार मिदनापुर चले गए। चित्तप्रसाद ने चटगाँव में ही रहने का निश्चय किया।

जापानी आक्रमण का मुक़ाबला करने के लिए लागू की गई अमानवीय ‘ध्वस्त भूमि नीति’ (Scorched Earth Policy) ने अकाल और भुखमरी को अवश्यम्भावी बना दिया था।

इसी के साथ युद्ध की ज़रूरत के चलते ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत से बहुत बड़ी मात्रा में खाद्यान्न इकट्ठा किया गया था। पूर्वी बंगाल के अनाज व्यापारियों ने सरकार को ऊँचे दाम पर अनाज बेचने के उद्देश्य से बाज़ार से अनाज हटा लिया। चावल के दाम आसमान छूने लगे।

यहाँ 1941 से 1943 के बीच केवल थोक बाज़ार में चावल के दामों को ही देखें तो अकाल की विभीषिका प्रकट हो जाती है। दिसम्बर 1941 : 7 रुपये प्रति मन / दिसम्बर 1942 : 13 से 14 रुपये प्रति मन / मार्च 1943 : 21 रुपये प्रति मन / मई 1943 : 30 रुपये प्रति मन / अगस्त 1943 : 37 रुपये प्रति मन / अक्टूबर 1943 : 80 रुपये प्रति मन।

अस्वाभाविक ढंग से बढ़ती क़ीमतों के साथ ‘ध्वस्त-भूमि नीति’ (Scorched Earth Policy) ने एक ओर मुनाफ़ाख़ोरों के लिए कमाई के रास्ते खोले, वहीं लाखों लोगों के लिए भूख से मर जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं छोड़ा।

चित्तप्रसाद ने तय किया था कि वह मिदनापुर जिले के विभिन्न अकालग्रस्त इलाक़ों में जाकर अपना रिपोर्ताज तैयार करेंगे। हंग्री बेंगाल की शुरुआती पंक्तियों से ही पता चल जाता है कि चित्तप्रसाद ने अपने इस ‘मिशन’ को कितनी गंभीरता से लिया था।

वे लिखते हैं :

मिदनापुर जाते हुए भीड़-भरे ट्रेन के डिब्बे में बैठे-बैठे मेरे मन में बार-बार कलकत्ते की फुटपाथों के आम दृश्य उभर रहे थे। वह सब टूटे हुए, असहाय जीवित कंकालों का जुलूस—जिन्होंने कभी बंगाल के गाँवों को सुनहला बंगाल बनाया था। मछुआरे,मल्लाह, कुम्हार, बुनकर, किसान। परिवार-दर-परिवार। सियालदह स्टेशन से आर्महर्स्ट स्ट्रीट के बीच की छोटी सड़क पर एक सुबह मैंने अपनी आँखों से पाँच लोगों के शव देखे थे। ऐसे अनेक भयानक दृश्य शहर कलकत्ते के दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन चुके थे। इन मृत और मरणासन्न लोगों की भीड़ में अस्सी फ़ीसदी लोग मिदनापुर के थे, यह भी याद आ रहा था।

चक्रवाती तूफ़ान के बाद अकाल और भुखमरी से सबसे ज़्यादा प्रभावित इलाक़ों का दौरा करते हुए चित्तप्रसाद ने हंग्री बेंगॉल में डायरी के रूप में हर दिन के छोटे-बड़े अनुभवों को दर्ज किया। उन्हीं में से कुछ सम्पादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं। आज के पाठकों को यह किसी और देश का विवरण लग सकता है। ऐसा भी लग सकता है कि पचहत्तर वर्षों से भी ज़्यादा का वक़्त गुज़र जाने के बाद, देश की आज़ादी के बावजूद, गाँव के किसान और मज़दूर के प्रति सत्ता का रवैया ज़्यादा नहीं बदला है।

फी बोरी आधा सेर

मेरे सामने की सीट पर बैठे दो अधेड़ आदमी, जो रसूखदार लग रहे थे, फुसफुसाते हुए बातें कर रहे थे। उनमें से एक ने साफ़-सुथरा धोती-कुरता पहन रखा था। दूसरा खाकी वर्दी पहने था। गाड़ी छूटने के साथ ही (गाड़ी की गड़गड़ाहट के चलते) वे ऊँची आवाज़ में बातचीत करने को मजबूर हो गए। मैंने धोती-कुरता पहने आदमी को कहते सुना—“बहुत कम हुआ तो मान लो फ़ी बोरी आधा सेर। तब भी कुल मिलाकर पाँच सौ सेर यानी साढ़े बारह मन होता है। अब तुम अगर एक मन की क़ीमत तीस रुपये भी लगाओ, लोग उसे झट ले लेंगे। रहा माल भेजने का सवाल, सो तुम मेरे ऊपर छोड़ दो।”

ख़ाकी वर्दी वाला आदमी बोला—“बड़े बाबू के साथ बात करना ही मुश्किल है। मैं ज्यों ही उसके पास जाऊँगा उनके भाव बढ़ जाएँगे!”

“अरे बढ़ता है तो बढ़ने दो न,” धोती-कुरते वाला आदमी बोला।—“कितना माँगेगा वह? पचास? एक सौ? डेढ़ सौ? फिर भी हमारे हिस्से ढेर मुनाफ़ा आएगा। मेरी दिक़्क़त की बात भी सोचो। मुझ पर वे शक करने लगे हैं।”

वे डिब्बे में नज़रें दौड़ाकर फुसफुसाते हुए अपनी बातों में जुट गए। बाक़ी सफ़र में उनकी गहरी बातों का कुछ भी मुझे समझ नहीं आया। उनकी सौदेबाज़ी का अंतिम नतीजा क्या रहा, उसका भी कुछ अंदाज़ा नहीं लगा सका।

ट्रेन देर रात मिदनापुर पहुँची। सुना एक बैंक ने पिता जी को ट्रेन से भेजे गए चावल और आटे के खेप की निकासी और वितरण की ज़िम्मेदारी सौंपी है। पिता जी ने बताया कि जितना माल भेजा जाता है, उससे कहीं कम यहाँ पहुँचता है। मुझे ट्रेन के डिब्बे में सुनी बातें तुरंत याद आ गईं। इस लंबी यात्रा में कितने ‘आधा सेर’ फ़ी बोरे ग़ायब होते हैं, उसी के बारे में सोचने लगा।

हर रोज़ खाने के लिए चावल मिल सके, ऐसे किस्मत वाले हम नहीं थे। राशन में चावल के बदले आटा दिया जा रहा था। सप्ताह में कम से कम दो दिन दोनों वक़्त आटा ही खाना पड़ता था।

उम्मीद भी नहीं, शर्म भी नहीं

अगले दिन सुबह मिदनापुर शहर देखने निकला। चक्रवाती तूफ़ान के निशान तब भी मौजूद दिखे। रास्तों के दोनों ओर टूटे हुए मकान और उखड़े हुए पेड़ दिखे। बेघर भिखारियों का दल भीख माँगता फिर रहा था। इनमें से ज़्यादातर लोगों को विभिन्न राहत-शिविरों में भेजा जा चुका था। लंगरों में तब भी सात-आठ सौ लोग आ रहे थे। कुछ दिनों पहले इनकी तादाद दो हज़ार थी। सरकार ज़बरदस्ती किसानों से पूरी ‘आमन’ धान छीन लेगी या नहीं, इस पर चाय की दुकानों पर गर्म बहसें छिड़ी हुई थीं।

कुछ विस्थापित लोगों से मैंने बात की। उनमें से ज़्यादातर लोग मिदनापुर और खड़गपुर के छह-सात मील के इलाक़े के गाँवों के विभिन्न परिवारों से आए थे। वे सभी एक ही बात कह रहे थे—“बहुत जल्द—कल या परसों हम लोग अपने गाँवों को लौट जाएँगे। ‘आमन’ पक गया है। हम लोगों ने अधिया पर काम कर यह फ़सल तैयार की है। इस बार फ़सल भी बहुत अच्छी हुई है। हम लोगों को लौटना ही होगा।” इंतज़ार था बस एक चीज़ का। पूरनमासी के दिन मल्लिक बाबू के यहाँ मुफ़्त कपड़ा बाँटा जाएगा। धान की कटाई में भले कुछ देरी हो, अर्ध-नग्न ठिठुरते लोग इस मौक़े को कैसे छोड़ देते?

काफ़ी पूछताछ के बाद इनमें से एक परिवार के बारे में पूरी बात जान सका। वे मिदनापुर शहर से नौ मील दूर के चन्द्रा गाँव से आए थे। जून महीने में उन्होंने अपना घर छोड़ा था—पति-पत्नी और तीन बच्चे। मुझे न जाने क्यों लग रहा था कि उनकी कहानी में कोई बात छूट रही है। काफ़ी ना-नुकुर के बाद उस औरत ने पूरी सच्चाई बताई—“सच बोलें तो बाबू, हम क्या उम्मीद लेकर घर लौटेंगे? पिछली बार भी फ़सल अच्छी हुई थी। फिर भी अपने गाँव में हमें खाना नहीं मिला। धान-कटाई के दो दिनों के भीतर ही फ़सल ग़ायब हो गई। हम जो कह रहे हैं कि गाँव लौट जाएँगे, सो केवल मिलिट्री के डर से! कोई नहीं जानता कि अगर पकड़े गए तो वे हमें कहाँ भेजेंगे, हमारे बच्चों को कहाँ भेजेंगे। अपने गाँव ही भेज दें तो भी क्या फ़ायदा!”

“क्या तुम लोग इस शहर की दया पर जिन्दा रहना चाहते हो? तुम लोग क्या अपने को भिखारी बनाना चाह रहे हो?” मैंने पूछा।

“क़तई नहीं!” दृढ़ जवाब मिला। “हम अपने को भिखारी क्यों बनने देंगे? हम किसी की दया पर थोड़े ‍जिन्दा हैं। हम दोनों ही मेहनत करते हैं। मिलिट्री के लिए पत्थर तोड़ते हैं। मालगाड़ी में लकड़ी ढुलाई का काम करते हैं, ज़मींदार बाबू के यहाँ तालाब खोदने का काम भी करते हैं। हममें से हर एक दिन में छह से आठ आने कमा लेता है। शहर में तो थोड़ा चावल मिल भी जाता है, गाँव में तो वह भी नहीं मिलता। इस बार खेतों में ख़ूब बढ़िया पैदावार हुई है, लेकिन कटाई के बाद हमें यह फ़सल देखने को भी मिलेगी?”

एक छोटे-से परिवार ने दूसरे पाँच-छह परिवारों के साथ रेलवे स्टेशन के पास सड़क के किनारे पेड़ के नीचे घर बनाया था। मैं उस औरत से और भी जानना चाहता था—“ये लोग भी क्या मिलिट्री के डर से सच्चाई को छिपा रहे हैं?”

“वो नहीं पता, पर वे सब हमारी ही तरह मेहनत-मज़दूरी कर अपना गुज़ारा कर रहे हैं।”

एक और शरणार्थी दल की बात बताता हूँ। ये सभी औरतें हैं। दो बूढ़ियाँ, तीन अधेड़ उम्र की बेवा औरतें, एक लड़की। बेवा औरतों में एक की गोद में एक ग्यारह दिन का बच्चा था। एक औरत उम्मीद से थी। एक बड़े आम के पेड़ के नीचे वे आग जलाकर एक सकोरे में पानी गर्म कर रही थीं। यह सब वे कहीं से मिले सेर-भर गेहूँ को पकाने के लिए कर रही थीं। घर वापस लौटने के बारे में उनसे सवाल पूछने पर बड़बड़ाते हुए वे कुछ बोलीं ज़रूर, पर उस वक़्त उसे समझ नहीं सका। मैं इतना-भर समझा कि उनके लिए उनके घर के लोग इंतज़ार कर रहे हैं, पर मल्लिक बाबू के कपड़े बाँटने तक तो उन्हें यहाँ रहना ही होगा।

उल्टे पाँव

मिदनापुर के किसान कार्यकर्ता कॉमरेड तारापद चक्रवर्ती मेरे पुराने परिचित थे। उन्हीं के साथ 4 नवम्बर को मैं काँथी (मिदनापुर ‍जिले का एक गाँव) के लिए रवाना हुआ। सुबह हम बेलदा रेलवे स्टेशन पहुँचे। कलकत्ते के फुटपाथ छोड़कर गाँव के इक्के-दुक्के लोग वापस अपने गाँव लौट रहे थे।

मैंने एक खेत मज़दूर को कहते सुना, ‘उन लोगों ने (कलकत्ते के शहरी लोगों ने) हमें भगा दिया। कहा—यहाँ बमबारी होगी, महामारी फैलेगी, लोग मरेंगे। क्या जाने वे क्या चाहते हैं।’

एक दूसरा आदमी कह रहा था, ‘तीन महीने हुए घर छोड़े। भगवान ही जाने कि घर लौटकर क्या देखूँगा।’ मैंने उसे भरोसा देते हुए कहा कि इस बार आमन धान की फ़सल तो अच्छी हुई है न। लेकिन उसे मेरी बात पर यक़ीन नहीं हुआ।

रास्ते में बेघर लोगों के लिए बना एक रिलीफ़ कैम्प दिखा। यहाँ कुछ ही दिनों पहले एक अस्पताल भी खोला गया था, अस्सी-नब्बे मरीज़ थे। यहाँ औसतन पाँच से दस लोगों की रोज़ मौत हो रही थी।

बेघरों की भीड़ के चलते घाट पर नाव तक पहुँचना मुश्किल हो रहा था। इन बेघरों में अधिकांश लोग कुम्हार थे। लोग सड़क किनारे कीचड़ से बैलगाड़ियों से गिरे अनाज के दाने बटोर रहे थे। बस से उतरते ही एक बच्ची ने मेरे पैर पकड़ लिये। बड़ी मुश्किल से उससे छुटकारा पाकर नाव पर चढ़ सका। नाव पर भी उसने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। वह मेरी ओर उम्मीद-भरी आँखों से एकटक देख रही थी। ‘मुफ़्त में जहाँ खाना मिल रहा है, तू वहाँ क्यों नहीं जाती?’ मैंने उससे पूछा। ‘मेरा कोई गाँव नहीं है। पहले जहाँ खाना मिलता था अब वह बंद हो चुका है।’ उसने कहा था।

ईश्वरों ने भी बदले अपने घर

हम जब काँथी पहुँचे, दोपहर हो चुकी थी। आज साप्ताहिक हाट का दिन था। दुकानों पर ख़रीदारों की कोई कमी नहीं दिखी। बाजरे और उड़द दाल की दुकानों पर भीड़ थी, पर उससे भी ज़्यादा भीड़ सुनार और बर्तनों की दुकान पर थी। हाट में सुनार की कितनी दुकानें थीं, यह गिन नहीं पाया, लेकिन बर्तनों की ग्यारह दुकानें दिखीं। इन अस्थायी दुकानों में दुकानदार फ़र्श पर दरी बिछाकर बही-खाता और कैश-बॉक्स लिये बैठे दिखे। हर दुकान पर दस-पंद्रह लोगों की भीड़ थी। लोग अपने बर्तन-भांड़े बेचने के लिए इंतज़ार कर रहे थे। बेचे जा रहे बर्तनों में केवल लोटे, भगोने और थालियाँ ही नहीं थीं, बल्कि पूजा में इस्तेमाल होने वाले घंटे, दीप-दान और अन्य पीतल-काँसे की चीज़ें भी थीं। एक जगह तो बनारसी पीतल की बनी श्रीकृष्ण की मूर्ति भी दिखी।

देवता ग़रीबों का आश्रय त्यागकर मोटे तोंद वाले हिंदू व्यापारियों के पास चले जा रहे हैं। मुझे लगा महासभा के नेता जिस ‘हिन्दू संगठन’ की परिकल्पना कर रहे हैं, उसकी हक़ीक़त भी कुछ ऐसी ही होगी। मिदनापुर रिलीफ़ कैम्प में एक पुजारी मिला। पूरा परिवार भिखारी बन चुका था। एक समय पचास बीघा ज़मीन का मालिक था वह। साथ ही दो सौ यजमान परिवार भी थे उसके।

पिछले साल के चक्रवाती तूफ़ान से हुई तबाही के निशान साफ़ दिख रहे थे। जापानी बमबारी से उजड़े गाँवों को मैंने चटगाँव में देखा था। यहाँ का नज़ारा उससे बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं था।

अब राजनीति से बाहर

पीतल-काँसे की दुकानों पर दोपहर दो बजे के बाद से ही भीड़ छँटने लगी थी। सुनने में आया कि यहाँ के घाट से रोज़ बर्तन-भाँड़ों से लदी कई बड़ी नावें निकलती हैं। पिछले एक महीने से ऐसा ही चल रहा है।

मैं सोच रहा था कि न जाने कितने ही किसान अपने- अपने घरों के आख़ि‍री बर्तन बेचने को मजबूर हुए होंगे।

सब-रजिस्ट्रार के दफ़्तर के बाहर लगी भीड़ से लग रहा था मानो कोई मेला लगा हो। सुना यहाँ रोज़ाना लगभग सौ से भी ज़्यादा सौदे ज़मीन के हो रहे हैं। ये सब ज़मीनें कितने में बिक रही थीं, इसका मुझे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। किसी ने बताया कि एक बीघा खेत बिका है महज़ आधे मन चावल की क़ीमत पर।

जहाँ गिद्धों और लुटेरों का बोलबाला है

काँथी से मुश्किल से आधा मील दूर एक गाँव। तालाब के किनारे एक झाड़ी में एक खोपड़ी और उसके आसपास नर-कंकाल बिखरे थे। मुझे लगा यह तूफ़ान में मरे किसी का अवशेष है। लेकिन साथ चल रहे श्रीपति ने बताया, “नहीं ऐसा नहीं है, यह भुखमरी या मलेरिया से मरे अभागों में से कोई होगा। लाश का अंतिम संस्कार भी किसी ने नहीं किया। कुत्तों और गिद्धों ने इसका यह हाल किया है।”

नवम्बर की एक उदास गोधू‍लि की ख़ामोशी में इस खँडहर के बीच खड़े मुझे लगा कि मेरे चारों ओर बिखरी मानव-दुर्दशा की गहराई को समझ पाने की ताक़त अब मुझमें नहीं बची है। तभी एक आदमी अपनी औरत के साथ दिखा। उस औरत ने एक नई साड़ी पहनी थी और आदमी के शरीर पर एक छोटी धोती के अलावा कुछ नहीं था। उनके पास एक कपड़ों की पोटली और एक मिट्टी का सकोरा था। बस यही उनकी गृहस्थी थी। उनसे पूछने पर पता चला कि इस गाँव की आबादी तीन सौ के क़रीब थी। तूफ़ान में एक सौ से ज़्यादा लोगों की जान गई। बाद में मलेरिया और भूख से कुछ और लोग मरे। जो लोग जिन्दा बचे थे उनमें ये दोनों ही यहाँ रह गए हैं, बाक़ी सब शहर चले गए हैं। लेकिन ऐसे बुरे वक़्त में तुम लोग शहर की ओर क्यों जा रहे हो? मेरे सवाल के जवाब में वे बोले, ‘डाकुओं के डर से!’ आज से दस दिनों पहले जब वे भीख में मिले चावल को खाने के लिए पका रहे थे, तभी कुछ डाकुओं ने हमला बोल दिया। उन दोनों को मार-पीट कर वे आधा पका चावल और दो बर्तनों के साथ-साथ उनके शरीर से कपड़े भी उतारकर ले गए थे। दो दिनों तक इस औरत के पास शरीर ढँकने के लिए एक चिथड़ा भी नहीं था।

गुमनाम देशप्रेमी जिन्हें लोग नहीं जान सके

“सरकार को धान का एक दाना भी नहीं देना है!” पिछले अगस्त में यही था मिदनापुर की जनता का संकल्प और इसीलिए काँथी के एक अनाज आढ़ती ने अपने तीनों धान के गोदामों में हज़ारों मन फ़सल जलाकर राख कर दी थी। गोदाम सात दिनों तक जले थे। बस में मेरे साथ सफ़र कर रहे एक मुसाफिर ने मुझे कहा था कि उसने पाँच सौ मन धान ज़मीन में गाड़कर बर्बाद कर दिया था। दूसरे एक व्यक्ति ने मुझसे कहा था कि खलिहान में कितना धान है यह सरकार को पता न चले इसलिए उसने किसी अधिकारी को आठ सौ रुपये घूस दी थी। ऐसे ही किसी और गाँव में लोगों ने बाज़ार ले जाते हुए चावल की बोरियों को नदी में फेंक दिया था।

केवल विदेशी शासकों के प्रति तीव्र घृणा के चलते मिदनापुर की जनता को यह नहीं समझ आया कि वे सरकार का कोई नुक़सान नहीं कर रहे हैं—बस अपने लिए ख़ुद ही भुखमरी का माहौल तैयार कर रहे हैं। सरकार को एक दाना भी चावल नहीं देंगे, इस संकल्प के साथ वे सब चावल जमाख़ोरों के हाथों बेच रहे थे। सरकार से लड़ने के नाम पर घर के ही भेदी के हाथों को मज़बूत कर रहे थे। ‘देशप्रेम’ इन जमाख़ोरों की बदनीयत को छिपाने का एक आसान-सा मुखौटा था। आगे चलकर ऐसे ‘देशप्रेमियों’ ने ही एक मुट्ठी अन्न की माँग करते भूखे किसानों का दमन करने के लिए पुलिस को आगे कर दिया था।

तालाब की बगल से गुज़रते हुए हमें फिर कुछ खोपड़ि‍याँ और नर-कंकाल दिखाई दिए। श्रीपति ने बताया, ‘आजकल दाह-संस्कार करने के बजाय लोग मुर्दों को यूँ ही इधर-उधर फेंक दे रहे हैं।’ पास एक चिता जल रही थी। ‘यह व्यक्ति निश्चय ही धार्मिक रहा होगा, वरना ऐसे बुरे वक़्त में इसे चिता नसीब न होती!’ श्रीपति ने कहा।

यहाँ के सभी गाँव वीरान हो चुके हैं। हज़ारों लोग भोजन की तलाश में शहरों की ओर कूच कर गए हैं। जो रह गए हैं वे मलेरिया, कालरा और भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। दूसरे सालों में नवम्बर में यहाँ के खेत, मुस्कुराते हुए समुद्र जैसे लगते थे। ‘धान का खेत एक सोने की परात-सा लगता था,’ श्रीपति ने कहा। अब ये खेत वीरान रेगिस्तान से लग रहे हैं। गाँव के सीवान पर जल रही हैं चिताएँ!

शाम हो रही थी। आसमान पर दो-एक तारे टिमटिमाने लगे थे। शाम की बची-खुची रौशनी हेमंत के कुहासे में कमज़ोर लग रही थी। श्मशान के आसपास की झोंपड़ियों में कोई बाती नहीं जल रही थी। आमतौर पर साल के ऐसे दिनों में घरों की औरतें अपने पुरखों की याद में अपनी झोंपड़ियों के बाहर बाँस के खंभों पर दीप जलाकर टाँगती हैं। और शाम को शंख और पूजा के घंटों की आवाज़ से वातावरण मोहक हो उठता है। हर मस्जिद से अजान सुनाई देती है। खजूर का रस उतारने वाले अपने कामों पर चल देते हैं। लेकिन अब सब ख़ामोश हैं! गाँवों की पगडंडियों की धूल पर अब मनुष्यों के पैरों के निशान नहीं बनते।

मिदनापुर की जनता ने अपने ख़ून से हमारे देश के इतिहास के इन पन्नों को लिखा है। कल तक जिसे हम आज़ादी की लड़ाई कह रहे थे, उसके लिए यहाँ के लोगों ने अपने को ख़त्म कर दिया। शौर्य और त्याग की यह कहानी हमारी आज़ादी की लड़ाई की अन्यतम त्रासदियों में एक है।

नन्हा-सा काला पुतला

हम लोग पैदल चलते जा रहे थे। अचानक एक टुकड़ा खेत में धान की पकी फसल को देखना कुछ अटपटा-सा लग रहा था। सोच रहा था कि मृत्यु और विनाश के रेगिस्तान के बीच एक छोटे-से मरुद्यान को छोड़कर लोग कहाँ चले गए हैं! जिन्होंने यह फ़सल पैदा की थी, वे शायद गाँव छोड़कर किसी शहर में एक मुट्ठी चावल के लिए अपना शरीर तक बेच रहे होंगे। इस सोने-सी फ़सल को उन्हीं लोगों ने तो मेहनत से तैयार किया था।

अचानक इस खेत के बीच कुछ हिलता हुआ-सा लगा। हम जब खेत के कुछ और क़रीब गए तो देखा क़रीब छह साल का एक बच्चा पकी फ़सलों के बीच बैठा हुआ है। दिन ढलने के साथ-साथ खेत पर उतरते अँधेरे ने उसे पूरी तरह से ढँक लिया था। बस उसकी एक जोड़ी आँखें ही थीं जो अँधेरे में चमक रही थीं। हमारे बुलाने पर वह खेत से बाहर आया—हड्डियों का नन्हा-सा काला पुतला!

पूछने पर पता चला कि उसका बाप बुखार से मरा और माँ हैजे से। बड़ा भाई न जाने कहाँ चला गया। उससे बड़ा एक दस साल का भाई है। जो कुछ मिलता, वे दोनों मिल-बाँटकर खा लेते थे। लेकिन पिछले दो दिन से उसे किसी ने कुछ भी खाने को नहीं दिया। भूख से रो रहे उस बच्चे को लोगों ने मारकर भगा दिया था। लेकिन बेचारा जाता कहाँ! और इसीलिए वह थककर खेत में छिपा बैठा था।

क़ब्रिस्तान जैसे अँधेरे और उदास और परित्यक्त खेत में एक जीवन की मौजूदगी देखकर मैं चकित था।

चित्तप्रसाद ने हंग्री बेंगॉल के पन्नों में ऐसी अनेक घटनाओं का ज़िक्र किया है, साथ ही उनके बनाए हुए अकाल के दिल दहलाने वाले चित्र भी हैं। मिदनापुर के गाँवों में घूमते हुए मानो चित्तप्रसाद जनता का चित्रकार बनने की शिक्षा ले रहे थे। साथ ही एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कर्मी के रूप में उस कम्युनिस्ट-विरोधी माहौल में कभी कांग्रेसी तो कभी हिन्दू महासभा के लोगों के साथ बहस भी कर रहे थे। कलकत्ते की सड़कों पर उन्होंने मिदनापुर से भागे किसानों को भूख से मरते देखा था। चित्तप्रसाद उसी मिदनापुर गए थे अकाल के ख़बरनवीस बनकर। कहना न होगा कि मिदनापुर के गाँवों में भूखे रहकर, रोज़ मीलों पैदल चलकर उन्होंने देश के उस वर्ग को पहचाना था जिसका साथ उन्होंने आजीवन नहीं छोड़ा। नवम्बर 1943 के दौरान लिखे इस रिपोर्ताज़ की भारतीय पत्रकारिता में शायद दूसरी कोई मिसाल नहीं है। पूरी संजीदगी के साथ, जिस क़लम से चित्तप्रसाद ने दुःख-दर्द की कथा को दर्ज किया था, उसी क़लम से उन्होंने मरणासन्न लोगों का जीवंत चित्रण भी किया था।

(आलोचना के सहस्त्राब्दी अंक-65 में प्रकाशित प्रतिष्ठित चित्रकार और कथाकार अशोक भौमिक का लेख।)

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