‘आलोचना’ त्रैमासिकी के अंक-75 में ‘कफ़न’ संबंधी बहस को युवा शोधार्थी अदिति भारद्वाज ने आगे बढ़ाया है। बहस में उठे कई बिंदुओं पर विस्तृत राय रखने के अलावा उनके लेख में नए बिंदु भी शामिल हुए हैं जो पितृसत्ता और ‘सामाजिक संवेदनशीलता में स्त्री की अनुपस्थिति’ से वाबस्ता हैं। ‘घर के आंतरिक घरेलूपन में जो पितृसत्तात्मक संवेदनहीनता है, उसे इस कहानी में कोई सम्बोधित नहीं कर रहा है; न लेखक ही इस बात की सुध ले रहे हैं और न उसके पुरुष पात्र’—ऐसा मानने वाला यह विस्तृत आलेख बहस को नए आयाम में विस्तारित करता है।
आलोचना में बहुत पहले मैला आँचल पर यादगार लेख लिख चुकीं भारतविद कैथरीन हैनसन को एक बार फिर प्रकाशित करना हमारी खुशक़िस्मती है। मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित यह लेख रेयाज़ुल हक़ के अनुवाद में आपको मूल हिंदी का ही लेख प्रतीत हो तो कोई आश्चर्य नहीं। मुख्यतः सूखा बरगद पर केंद्रित और उसके साथ तुलनात्मक रूप से दो अंग्रेजी उपन्यासों की चर्चा करता यह लेख सामासिक संस्कृति और कॉस्मोपॉलिटनिज्म के दो अलहदा राजनीतिक विमर्शों की प्रासंगिकता के प्रश्न को संबोधित करता है।
कवि-आलोचक अच्युतानन्द मिश्र ने अपने विस्तृत आलेख में आधुनिकता और पूँजीवाद के दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर नई दृष्टि से विचार करने वाले पिछली सदी के विचारक, डेल्यूज़ और गुआटारी के चिंतन को समेटने का प्रयास किया है। बलवंत कौर का लेख ओल्गा तोकार्चुक की कुछ कहानियों का विस्तृत विश्लेषण करते हुए मनुष्य की गति और नियति पर उनकी समझ, कहानी संरचना की जटिल बुनावट और शिल्प की प्रविधियों को धैर्यपूर्वक खोलता है। स्थापित युवा कथाकार चंदन पांडेय का लेख विवाह संस्था के संबंध में प्रेमचंद के, अपने समय से आगे के विज़न पर एक सुव्यवस्थित टिप्पणी है।
धूमिल की दूसरी कविताओं से प्रकटतः बहुत भिन्न-सी दिखती ‘आतिश के अनार-सी वह लड़की’ का विश्लेषण करते हुए प्रखर आलोचक कवितेंद्र इंदु ने मर्दवादी दृष्टि की पड़ताल के लिए सामान्य रूप से लागू होने वाले कई सूत्र उपलब्ध कराए हैं। वरिष्ठ आलोचक शंभु गुप्त ने अपने आलेख में नंद चतुर्वेदी की पचहत्तर वर्षों की काव्य-यात्रा का सम्पूर्ण मूल्यांकन किया है। सावित्रीबाई फुले पर किताब लिख चुकी कनकलता ने सिद्धों की वाममार्गी साधना के एक पक्ष को उठाकर उसके संबंध में इरादतन फैलाई गई ग़लतफहमियों पर शोधपरक और बेहद विचारोत्तेजक लेख लिखा है। लंबे आकार को देखते हुए हमने इसका आधा हिस्सा ही इस अंक में शाया किया है। आदि-हिंदू आंदोलन से हिंदी साहित्य कैसे प्रभावित हुआ, इतिहास के इस दमित अध्याय की पड़ताल सुरेश कुमार के शोधपरक लेख में है।
आलोचना में मुक्तिबोध पर पहले भी लिख चुके अनूप बाली ने एक साहित्यिक की डायरी के बहाने मुक्तिबोध के लेखन में विधाओं की सीमाओं के टूटने पर सुचिन्तित आलेख लिखा है। उनके आलेख में दिलचस्प तरीक़े से इस संपादकीय-लेखक द्वारा पहले व्यक्त की गई राय का सतर्क खंडन भी है।
अर्जुमंद आरा का लेख हिन्दी के पाठकों के लिए ख़ास तौर से ज़रूरी है। यह हमें बताता है कि “क्लासिकी या पारंपरिक उर्दू ग़ज़ल को कैसे पढ़ा जाए, कौन-सी बुनियादी बातें हैं जो उसे समझने में मदद करेंगी”। लेखिका की कोशिश है कि नयी नस्ल के पाठक “ग़ज़ल के सामान्य परिवेश के साथ सहज हो जायें ताकि शे’र के विविध पहलुओं और बारीकियों का ज़्यादा आनंद ले सकें।”
जवरीमल्ल पारख की किताब साहित्य, कला और सिनेमा पर फ़रीद खां, निशांत की किताब कविता पाठक आलोचना पर चेतन कश्यप, और हितेंद्र पटेल की किताब आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ पर मनोज मोहन की समीक्षाएँ इस अंक को अपने तरीक़े से समृद्ध करती हैं।
आशा है, यह अंक भी आपकी कसौटी पर खरा उतरेगा।