आलोचना के युवा लेखकों से

हम और आप आलोचना को सभ्यता-समीक्षा के एक साझा उपक्रम के रूप में देखते हैं। हम मानव-सभ्यताओं की एक साझा आलोचना विकसित करने के सहयोगी प्रयास में शामिल हैं। दूसरे शब्दों में यह पत्रिका साहित्य, संस्कृति और समाज की बड़ी बहसों में शामिल है और उन बहसों का एक विश्वसनीय मंच भी है।

आशुतोष कुमार

आलोचना अपने समूचे इतिहास में मननशील युवा लेखकों और पाठकों की पत्रिका रही है। हिन्दी में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले अनगिनत आलोचक युवा लेखकों के रूप में आलोचना के पन्नों पर प्रकाशित हुए हैं। इन्हीं लेखकों ने आलोचना का निर्माण किया और इन्हीं के जरिए आलोचना पत्रिका ने हिन्दी आलोचना के विकास में केंद्रीय भूमिका निभाई। आज भी आलोचना के पृष्ठों पर युवा लेखकों की मज़बूत उपस्थिति देखी जा सकती है। इनमें अनेक ऐसे हैं जो पहली बार यहीं प्रकाशित हुए।

यूँ तो हर पीढ़ी के लेखकों का आत्मीय सहयोग आलोचना को मिलता रहा है, लेकिन आलोचना में प्रकाशनार्थ आने वाली रचनाओं में सबसे बड़ी तादाद युवा लेखकों के लेखों की होती है। कहना ना होगा कि आलोचना पत्रिका इन्हीं युवा लेखकों और पाठकों को संबोधित और समर्पित है।

इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए हम अपने युवा लेखकों से ऐसी कुछ बातें साझा करना चाहते हैं जिन्हें वे आलेख आदि भेजते समय ध्यान में रख सकते हैं :

01. सबसे पहले यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि हालाँकि आलोचना पत्रिका यूजीसी के द्वारा अनुमोदित पत्रिकाओं की सूची में शामिल है लेकिन इस पत्रिका में ऐसे शोधलेखों की गुंजाइश नहीं है, जिन्हें ख़ास तौर पर यूपीआई के मद्देनज़र लिखा गया हो। हमारे पास भारी संख्या में ऐसे लेख आते हैं जिनके साथ यह सवाल जुड़ा होता है कि आलोचना में छपने की शर्तें क्या हैं। इसका जवाब यह है कि आलोचना में छपने की केवल एक ही शर्त है और वह यह है कि आपका लेख आलोचना पत्रिका के पाठकों की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिए। अगर वह यूजीसी की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है तो उसके लिए और ढेर सारी बेहतरीन पत्रिकाएँ हैं जो कुछ घोषित या अघोषित शर्तों के आधार पर ऐसे लेख छापने का उद्यम चलाती हैं।

02. अगर आप आलोचना पत्रिका के पाठक हैं तो आपको अलग से बताने की जरूरत नहीं है कि आलोचना के पाठकों की अपेक्षाएँ क्या हैं। आलोचना के पाठक गूगल शोध पर आधारित वैसे लेख नहीं पढ़ना चाहते जिनमें किसी जाने-पहचाने विषय का व्यवस्थित परिचय मात्र दे दिया गया हो या उससे संबंधित उपलब्ध विवरण प्रस्तुत कर दिए गए हों।

हम और आप आलोचना को सभ्यता-समीक्षा के एक साझा उपक्रम के रूप में देखते हैं। हम मानव-सभ्यताओं की एक साझा आलोचना विकसित करने के सहयोगी प्रयास में शामिल हैं। दूसरे शब्दों में यह पत्रिका साहित्य, संस्कृति और समाज की बड़ी बहसों में शामिल है और उन बहसों का एक विश्वसनीय मंच भी है।

इस बात को और भी साफ़ करने के लिए कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं: भक्ति कविता समाज के अग्रगामी वर्गों के विद्रोह की कविता थी या मध्यकालीन सामंती समाज की समर्पणमूलक विचारधारा की अभिव्यक्ति थी? आधुनिक हिन्दी और उर्दू के लेखकों ने साझा हिन्दुस्तानी जबान के धर्म-आधारित विभाजन को मंजूरी देकर हिन्दुस्तान में, ख़ासकर उत्तर भारत में, आधुनिक चेतना के निर्माण की परियोजना को आगे बढ़ाया या उसे मरणांतक चोट पहुँचाई? हिन्दी में देशज आधुनिकता की चर्चा औपनिवेशिक चेतना का प्रत्याख्यान है या पुनरुत्पादन? दलित, स्त्री, आदिवासी इत्यादि विमर्श हिन्दी साहित्य के भूगोल और इतिहास का विस्तार करने वाले हैं या साहित्य को विचारधारा से विस्थापित करने वाले? निर्मल वर्मा को हिन्दी भाषा की नज़ाकत की थाह लेने के लिए पढ़ना चाहिए या 20वीं सदी की मानवीय विडंबनाओं की समझ बनाने के लिए?

ये सवाल सिर्फ़ नमूने के तौर पर पेश किए जा रहे हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हम आलोचना के अगले कुछ अंक इन्हीं विषयों पर केंद्रित करने जा रहे हैं। लेकिन इनसे आपको एक अनुमान मिल सकता है कि आलोचना के पाठकों की रुचि किस तरह की बहसों में है!

दूसरी ज़रूरी बात यह है कि जब आप ऐसी किसी बहस में शामिल होने के लिए कमर कसें तो यह ज़रूर सुनिश्चित कर लें कि उस बहस में अब तक क्या-क्या महत्वपूर्ण कहा जा चुका है। यानी संबंधित विषय पर हिन्दी और दीगर भाषाओं में जो सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध है उससे आपको वाकिफ़ होना चाहिए और फिर उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।

इसका मतलब यह न लगा लीजिएगा कि जब तक आप किसी विषय पर दो-चार साल शोध न कर लें तब तक उस पर आलोचना के लिए लिखने का विचार न करें। ऐसा हमारा बिल्कुल मतलब नहीं है। लेकिन हम इतनी उम्मीद ज़रूर करते हैं कि उस विषय में जो कुछ महत्वपूर्ण पब्लिक डोमेन में है, आपको उसका आभास ज़रूर होना चाहिए और उसे संबोधित करने की कोशिश करनी चाहिए। यानी जो है उससे अगर आप आधा क़दम भी आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं तो वह हमारे लिए बहुत मूल्यवान होगा, लेकिन इस आधे क़दम के बिना आलोचना के पाठकों की अपेक्षाएँ पूरी नहीं होगी।

03. ध्यान रखने की तीसरी सबसे जरूरी बात यह है कि आप अपने जैसे युवा पाठकों के लिए लिख रहे हैं, अमर्त्य सेन और नोम चोम्स्की के लिए नहीं। यह बिल्कुल हो सकता है कि आलोचना में छपकर आपका लेख सेन और चोम्स्की की नज़रों से गुज़रे लेकिन उसे ऐसा नहीं होना चाहिए कि इन दोनों के सिवा कोई और उसे समझ ना सके। कहने का मतलब यह है कि आपकी भाषा-शैली ऐसी साफ़-सुथरी, सहज और झंकारमय हो कि हिन्दी का एक संजीदा स्नातक उसे समझ सके, विद्वान तो ख़ैर समझ ही लेंगे।

भाषा की अशुद्धियों और वाक्य-रचना की उलझन से बचने की भरपूर कोशिश कीजिए। पहले ही ड्राफ्ट से संतुष्ट हो जाने की ज़रूरत नहीं है। कथ्य, शिल्प और भाषा हर लिहाज से उसे तब तक निखारने का यत्न कीजिए जब तक आपको यह ना लगे कि उसमें अतिरिक्त और अस्पष्ट कुछ भी नहीं है। अपने लेख का फाइनल ड्राफ़्ट बनाने की जिम्मेदारी संपादकों के लिए मत छोड़िए।

बस यही कुछ थोड़ी-सी बातें हैं। ख़ूब पढ़िए। खूब लिखिए।

आलोचना पढ़िए। आलोचना के लिए लिखिए। हम पलक पाँवड़े बिछाए बैठे हैं।

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संपादक, आलोचना; दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर
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