आज मुझे खुर्जा से अलीगढ़ पहुँचना था। मुझे 54 किलोमीटर साईकिल चलानी थी।
मुझे जिन मुस्लिम सज्जन का सम्पर्क दिया गया था उन्होंने बताया कि वह दिल्ली जा रहे हैं लेकिन उन्होंने मेरे ठहरने की व्यवस्था कर दी है।
आज भी रास्ते में कोहरा था। आज लम्बे-लम्बे फ्लाईओवर ज़्यादा आये। रास्ते में प्रदूषण भी बहुत मिला।
अलीगढ़ मैं पहले भी कई बार गया हूँ। लेकिन साईकिल से आज पहली बार जा रहा था।
अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में सर सैय्यद अहमद खान ने की थी। सर सैयद अहमद खान के बारे में मैंने पढ़ा था कि उन्होंने पहले लिखा था कि मुसलमानों को आम नहीं खाना चाहिए क्योंकि यह सुन्नत नहीं है। सुन्नत यानी जिस काम को हज़रत मोहम्मद करते थे वह करना सुन्नत कहलाता है। बाद में उन्हें समझ आया कि इस तरह की दकियानूसी बातों से मुसलमानों का कोई भला नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए इस विश्वविद्यालय की स्थापना की।
हालांकि इसकी आलोचना यह कह कर की जाती है कि यहाँ सिर्फ़ अशराफ़ के बच्चों को ही पढ़ने की इजाज़त थी। पसमांदा जातियों के बच्चों के लिए यहाँ के दरवाज़े बंद थे। अशराफ़ यानी ऊँचे कुल के लोग, ख़ास तौर पर सैय्यद, पठान आदि और पसमांदा यानी श्रमिक समुदाय के लोग। कई लेखकों ने अपनी किताबों में इस बात का ज़िक्र भी किया है।
यहाँ कुछ महत्वपूर्ण इतिहासकारों, लेखकों और शोधों के हवाले दे रहा हूँ जो यह स्पष्ट करते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) और सर सैयद अहमद खान की शिक्षा नीति किस तरह पसमांदा मुसलमानों को हाशिए पर रखती थी।
डॉ. गेल मिनॉल्ट ने अपनी किताब ‘दी ख़िलाफत मूवमेंट रिलीजियस सिम्बलिज्म एंड पोलिटिकल मोबिलाइजेशन इन इंडिया’ में लिखा है कि सर सैयद की शिक्षा नीति ‘Upper-Class Muslims’ के लिए थी और उनका मानना था कि नीचे के तबकों को शिक्षा देने से पहले ‘कुलीनों’ को तैयार करना ज़रूरी है। उन्होंने मुस्लिम समाज को ‘अशराफ़’ और ‘अजलाफ़’ में बाँटने की पारंपरिक सोच को चुनौती नहीं दी, बल्कि कहीं-कहीं समर्थन ही किया।
क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो ने अपनी किताब ‘मुस्लिम्स इन इंडियन सीटीज़ ट्रेजेक्टरीज़ ऑफ़ मारजिनाईलिजेशन’ में लिखा है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान, जो मुसलमानों के लिए बनाए गए थे, असल में अशराफ़ (सैयद, शेख, पठान) मुसलमानों के प्रभुत्व में रहे। पसमांदा समुदाय के लोग शिक्षा और प्रशासनिक पहुँच से तब भी वंचित ही रहे।
वहीं अली अनवर ने, जो पसमांदा आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से एक हैं, अपनी किताब ‘मसावात की जंग’ में लिखा है कि AMU जैसे संस्थानों ने पसमांदा मुसलमानों को कभी प्रतिनिधित्व नहीं दिया। वे लिखते हैं कि AMU का छात्र संघ हो या शिक्षक संघ, वहाँ पसमांदा बिरादरी को नाममात्र भी प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।
इसके अलावा ज़ोया हसन अपनी किताब ‘पॉलिटिक्स ऑफ़ इन्क्लूशन कास्ट्स माइनॉरिटीज एंड एफ़रमेटीव एक्शन’ में लिखती हैं कि मुसलमानों के भीतर जातिगत असमानता को लंबे समय तक मुस्लिम नेताओं और संस्थानों ने अनदेखा किया।
AMU की संरचना ऐसी रही कि वहाँ सामाजिक न्याय के सवालों को जगह नहीं मिलती। इसके साथ ही पसमांदा महाज़ की रिपोर्टें कहती हैं कि AMU समेत देश के अधिकांश मुस्लिम संस्थानों में पसमांदा मुसलमानों का प्रतिनिधित्व न्यूनतम है। उनकी माँग रही है कि मुस्लिम आरक्षण में पसमांदा को प्राथमिकता दी जाए।
बहरहाल, भारत में जाति मौजूद है। इस्लाम में भले ही ना हो, लेकिन मुसलमानों में गैर-बराबरी फिर भी मौजूद है। जातिवाद भारत के हरेक धर्म में मौजूद है क्योंकि यह दक्षिण एशिया की खुद की पैदा की हुई बीमारी है। यदि आपको भारत के अलग-अलग धर्मों में फैले जातिवाद को देखना है तो आपको फिल्म निर्माता स्टालिन की फिल्म ‘इंडिया अनटच्ड’ देखनी चाहिए।
अलीगढ़ में मेरे रुकने की व्यवस्था विश्वविद्यालय के नज़दीक एक होटल में की गई थी। मैंने अपने कपड़े धोये और सूखने डाल दिए। होटल के स्टाफ को जब पता चला कि मैं दिल्ली से साईकिल पर यहाँ तक आया हूँ तो उन्होंने मुझे ख़ास मेहमान की तरह आवभगत की और मेरी साईकिल मैनेजर ने अपने रिसेप्शन के पास हिफाज़त से रखवा ली।
मुझे पहले भी दो बार AMU में बुलाया गया है जहाँ मेरे भाषण हुए थे। मेरे साथ बिनायक सेन प्रफुल्ल बिदवई एक अन्य मुस्लिम सांसद जिनका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा, वे भी मौजूद थे।
रास्ते में मेरा बैग फट गया था। मैंने एक बैग की दूकान पर उसकी मरम्मत करवाई। मेरे एक फेसबुक दोस्त गौरव अपनी कार लेकर आ गए। हम लोग हमारे एक दूसरे फेसबुक फ्रेंड शोएब जमाल साहब के घर पर चाय पर मित्र-मिलन के लिए गये।
शोएब साहब रिटायर्ड सरकारी अधिकारी हैं। उनके घर पर उनके कई दोस्त जो AMU से रिटायर्ड हैं, आ गये। हम लोगों ने खूब बातें की। शोएब साहब ने खूब शानदार नाश्ते का इन्तज़ाम किया था।
अलीगढ़ में मेरी बुआ का परिवार भी रहता है। उनके दो बच्चे—मेरे भाई और एक बहन सन्यासी हो गये हैं। उनका बड़ा नाम है और वे लोग कृष्ण के बारे में प्रवचन करते हैं। बाकी सदस्य भी हमेशा धर्म की बातें करते हैं। मेरी रूचि धार्मिक बातों में बिलकुल नहीं है। क्योंकि मैं यह जान चुका हूँ कि यह सब मनुष्य की दिमागी कल्पना से निकली हैं।
इन धार्मिक लोगों से दुनियादारी की बातें करना भी बेनतीजा निकलती है क्योंकि यह अक्सर दुनिया में होने वाली घटनाओं को भी ईश्वर द्वारा किया गया समझते हैं। इसलिए मैं इनकी दुनियावी समझ से भी बिलकुल प्रभावित नहीं होता।
जब तक हमें तर्कपूर्ण ढंग से सोचना नहीं आएगा तब तक हम अपनी दुनिया की समस्याओं को ठीक से नहीं समझ सकते और न ही उनका समाधान कर सकते हैं। तभी तो दुनिया की पूरी आबादी की जरूरतों के मुताबिक खाना, मकान और कपड़े मौजूद होने के बावजूद दुनिया में लोग भूखे, बेमकान और ठण्ड में मरने को मजबूर हैं।
हमारे ऊपर बदमाश लोग राज करते हैं और हम इसे ईश्वर का विधान मान कर बैठे हुए हैं। हम कल्पना करते हैं कि अल्लाह या ईश्वर इन्हें सज़ा देगा।
इसलिए मुझे धार्मिक लोगों से बात करते समय घुटन होती है। मैं जब प्रगतिशील नौजवानों के साथ बात करता हूँ, उनकी सभा और जुलूस में शामिल होता हूँ तब मुझे ठीक से साँस आती है और मैं दोगुने जोश और संतोष से अपने काम में लग जाता हूँ।
अलीगढ़ में जिस मोहल्ले में मैं गया था उसका नाम सर सैयद नगर है। यह मोहल्ला दुनिया के सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों के निवास के लिए जाना जाता है। इस मोहल्ले के हरेक घर में दो-तीन पी.एचडी., डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर मिल जाएँगे।
हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने एक भाषण में मुसलमानों को पंचर वाला कह कर अपमानित किया है, मेरी सलाह है कि उन्हें एक बार इस मोहल्ले को जरूर विजिट करना चाहिए। ख़ैर, हम उनसे क्या ही उम्मीद करें।
अलीगढ़ में सईद भाई साहब भी रहते हैं। मैंने पता लगाया तो मालूम हुआ आजकल वे विदेश गये हुए हैं। सईद भाई साहब के पिता हाजी रशीद को हम ताऊजी कहते थे। पुराना वाकया यह है कि रशीद साहब भारत पाकिस्तान बँटवारे के समय अपनी बेगम और बेटे को लेकर अपना कुछ ज़रूरी सामान तांगे पर लादकर पाकिस्तान जाने के लिए तैयार हो गए।
उनके जाने की खबर हमारे ताऊ पंडित ब्रह्म प्रकाश शर्मा को लगी जो उनके घर के सामने वाले मकान में ही रहते थे। शर्मा जी दौड़े-दौड़े आये और उन्होंने रशीद साहब का हाथ पकड़ कर तांगे से उतार लिया और कहा कि अगर हमें छोड़ कर जाएँगे तो मेरा मरा हुआ मुँह देखेंगे। रशीद साहब रोते हुए पंडित जी के गले लग गए। सारा सामान तांगे से उतार लिया गया।
हाजी रशीद पूरी उम्र उस मोहल्ले में ही रहे। हमें बचपन में यह पता ही नहीं लगा कि रशीद साहब हमारे सगे ताऊ नहीं हैं। वे अपनी बेटियों के साथ-साथ हमें भी ईदी बाँटते थे, इसी तरह ब्रह्म प्रकाश जी जब दशहरे पर सब बच्चों को दो-दो रूपये देते थे तो शहाना-फरहाना दीदी भी उनसे मेला देखने के लिए सब बच्चों के साथ पैसा लेती थीं। हम सभी हिन्दू-मुस्लिम बच्चे नुमाइश मेला एक ही तांगा करके जाते थे। मेरी बहनें और रशीद ताउजी की बेटियाँ साथ में स्कूल-कॉलेज जाती थीं और सिनेमा भी छिपकर साथ में देखती थीं।
जब हम रशीद ताउजी से मिलते थे तो भूल जाने पर मां डाँट कर कहती—“ताऊजी के पाँव छुओ।” हम रशीद ताऊजी के पाँव छूते। सईद भाई साहब जब भी कहीं हमारी मां को देखते तो चाची राम-राम कह कर मेरी मां के पाँव छूते थे। हमारे पूरे बचपन में हमारा माहौल मिले-जुले कल्चर, पहनावे और भाषा का रहा है। मेरे परदादा पंडित बिहारी लाल शर्मा को सिर्फ़ को उर्दू और फारसी ही आती थी। वे शिक्षा विभाग में थे और उन्होंने तरक्की में अंग्रेज़ी भाषा ना आने के कारण आने वाली रुकावट के बाद अंग्रेज़ी सीखी थी।
मेरे परदादा महर्षि दयानंद के उत्तर प्रदेश में प्रथम शिष्य थे। महर्षि दयानंद जिन्होनें आर्य समाज की स्थापना की, उन्हें उत्तर प्रदेश में पहली बार मेरे परदादा ही लेकर आये थे। महर्षि दयानंद मुज़फ्फरनगर में हमारे घर पर ही ठहरते थे। मेरे पिताजी बताते थे कि उनकी दादी कहती थीं कि महर्षि दयानंद एक बालिश्त ऊँचा रोटियों का ढेर और एक बेला भर के खीर खाते थे।
उत्तर प्रदेश में आर्य समाज की स्थापना में मेरे परदादा का योगदान है। लखनऊ में उत्तर प्रदेश आर्य प्रतिनिधि सभा भवन में पहले महामंत्री के रूप में मेरे परदादा के नाम की पट्टिका आज भी लगी है।
आज आर्य समाज आरएसएस की गोद में बैठ गया है। अब तो आर्य समाजी भी मन्दिर निर्माण के समर्थन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। जबकि महर्षि दयानंद ने पाखंड खण्डिनी पताका फहराई थी। उस समय आर्य समाजी लोग सनातनियों से शास्त्रार्थ करते थे और उनको हरा देते थे।
आर्य समाजी अवतारवाद को नहीं मानते। वे राम-कृष्ण को ईश्वर का अवतार नहीं मानते। वे मूर्तिपूजा को पाखंड मानते हैं। आर्य समाजी कहते थे कि मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा पाखंड है। अगर मूर्ति में प्राण डाले जा सकते हैं तो अपने भगवान की मूर्ति से कहो कि वह चल कर दिखाए।
आर्य समाजियों ने उस समय कई समाज सुधार के काम भी किये। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह, दलितों का जनेऊ संस्कार और उन्हें यज्ञ का पुरोहित बनाने जैसे काम किये जो उस समय ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती देने वाले थे।
मेरे परदादा ने सर्वधर्म समभाव पर ‘अजीब ख़्वाब’ नाम से उर्दू में एक किताब भी लिखी थी।
बहरहाल, मैं आर्य समाजी नहीं हूँ। आर्य समाज कहता है कि यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध होता है। जबकि विज्ञान कहता है कि आग में कुछ भी जलाने से कार्बन ऑक्साइड पैदा होता है। अगरबत्ती का धुँआ भी गाड़ी या सिगरेट से निकले धुँए जितना ही हानिकारक होता है। लेकिन हमारा समाज अभी दिमाग से सोचने को धर्म विरोधी समझता है।
अलीगढ़ में रात को मैं गौरव और उनकी पत्नी के साथ एक शादी में गया। यह किसी राजपूत परिवार की शादी थी। शादी एक लॉन में थी। पूरे लॉन में चारों तरफ़ डिस्पोसेबल ग्लास और दोने बिखरे हुए थे। भारत को आधुनिकता तो अच्छी लगती है लेकिन भीतर से हम अपनी पुरानी गन्दी आदतों को छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
हम शुचिता के बात करते हैं लेकिन जैसा कि जार्ज बर्नार्ड शॉ ने भारत के बारे में लिखा है कि भारत की दो ख़ासियतें हैं—पहली, भारत गन्दा बहुत है और दूसरी, भारत का हर इंसान डॉक्टर है। भारत में आप किसी से अपनी कोई तकलीफ़ बताइए वह आपको एक-दो इलाज ज़रूर बता देगा।
इसी तरह हम लोग मुहूर्त की बात करते हैं लेकिन भारत में कोई भी सभा या कार्यक्रम भले ही वह किसी मुहूर्त में किया जाना हो, वह कभी भी समय से शुरू नहीं होता। बारात तो कभी भी समय से नहीं निकलती।
मैं दो बार अमेरिका गया, वहाँ सभा शुरू होने से पाँच मिनट पहले सभी लोग अपनी सीट पर बैठ जाते हैं। लेकिन भारत में तो आयोजक ही सभा के निश्चित समय के बाद घर से निकलते हैं और कहते हैं कि हमारे यहाँ कोई भी समय से नहीं आता आप चिंता मत कीजिये।
शादी से लौटकर मैं अपने होटल आकर सो गया। सुबह पाँच बजे मैंने साईकिल चलानी शुरू कर दी। आगे बढ़ते ही सड़क के किनारे सो रहे कुत्तों के एक गिरोह ने मुझे देखकर हमला कर दिया। मैं घबराया नहीं और वहाँ से जल्द निकलने का फैसला किया और शांत रहकर साईकिल के पैडल पर दबाव बढ़ा दिया।
ऐसी स्थिति में कई लोगों की सलाह है कि आपको अपना दोपहिया वहाँ रोक कर खड़े हो जाना चाहिए, इससे कुत्ते चुपचाप चले जाते हैं। मुम्बई के हमारे मित्र मिथुन ने ऐसा ही किया और अपनी मोटर साईकिल रोक कर खड़े हो गये तो कुत्ते ने उनके पैर में काट लिया।
मुझे मिथुन की बात याद आ गई, मैं अपनी साईकिल की गति बढ़ाता जा रहा था। कुत्ते भी अपनी गति बढ़ाते जा रहे थे। उनका सरगना एक लम्बा से काला जवान कुत्ता था। वह पूरी गति से मुझसे भी आगे आगे दौड़ रहा था। वह कोशिश में था कि मुझे आगे आकर रोक दे। लेकिन उस दिन मैंने उसकी कुत्ती जिद के सामने हार ना मानने में अपने पूरे कौशल का प्रयोग किया। कुछ दूर जाने के बाद एक-एक कर कुत्ते थक कर मोर्चा छोड़ते गए। अंत में उनका बहादुर मुखिया भी पीछे रहा गया और वापस मुड़ गया।
—हिमांशु कुमार