आजकल की हिन्दी कविता में एक तरफ शृंगार, रहस्य और अध्यात्म का पुनरुत्थान हो रहा है तो दूसरी तरफ बहिष्कृत अस्मिताओं का प्रतिरोध गूँज रहा है।
इस पूरी हलचल में जो चीज सबसे अधिक अनुपस्थित है वह है श्रम और श्रमिक। श्रम के प्रति सच्ची सहानुभूति भी बहुत कम दिखाई देती है। इस दृष्टि से आजकल हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताओं ने पर्याप्त ध्यान खींचा है, जिनकी कुछ कविताएँ इन्हीं दिनों आलोचना ऑनलाइन पर भी आईं।
क्या हिन्दी में श्रम की स्वानुभूति की कविताएँ भी संभव हैं? अगर हाँ तो उनका रंग श्रम के प्रति सहानुभूति के भाव से लिखी गई कविताओं से किस हद तक और किस तरह अलग होगा?
इधर कवि चंद्रमोहन की, जो स्वयं एक सचेत श्रमिक हैं, कुछ अनूठी कविताएँ सामने आई हैं, जिन्हें इस सवाल के जवाब की तरह पढ़ा जा सकता है।
ऐसी कुछ कविताएँ कुछ ही समय पहले आलोचना त्रैमासिक में प्रकाशित हुई थी। तब उनकी कविताएँ चंद्र नाम के साथ छपती थीं। इन्हीं कविताओं को यहाँ फिर से प्रकाशित किया जा रहा है।
खुशी की बात है कि अब उनकी नई कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है। संग्रह का नाम है: फूलों की नागरिकता। इसे न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह पर कवि का नाम चन्द्रमोहन है।
इन कविताओं में उपेक्षित और बहिष्कृत श्रम की त्रासदी तो है, लेकिन अवसाद, यातना और आत्मकरुणा नहीं। इनकी जगह श्रम की गरिमा, श्रमिक का स्वाभिमान, अधिकार चेतना, संघर्ष-चेतना और युयुत्सु भाव मौजूद है।
इन सब के साथ आता है जीवन और प्रकृति के लिए वह ओजस्वी प्रेम, जो केवल श्रम की अशेष ऊर्जा से पैदा हो सकता है। अवसन्न प्रेम को पैदा करने वाले श्रमहीन अवकाश से नहीं।
यही प्रेम है जिसके चलते गन्ना उपजाने में हाड़ गलाने वाले मजदूर किसान के हाथ उसे काटते हुए कांपते हैं!
यही है वह ओजस्वी प्रेम को भूख और मृत्यु की मार सहते हुए भी अपने खेतों और अपने देश को बचा लेना चाहता है।
उसका देश अपनी चिड़ियों, नदियों और लोगों का देश है, नक्शे पर पड़ी सीमारेखाओं से बना देश नहीं।
इन कविताओं से गुजरते हुए आप स्वयं देख सकते हैं कि श्रम की स्वानुभूति जिस सौंदर्य का निर्माण करती है, वह शब्दों की लीला से निकले सौंदर्य की तुलना में कितना सक्रिय और सघन है।
शहीद
मैं लड़ता हूँ लड़ाई
मिट्टी और कुदाली से
लहूलुहान होते हुए
मैं लड़ता हूँ लड़ाई
सुलगती हुई आग से
धीरे-धीरे राख होते हुए
मैं लड़ता हूँ लड़ाई
कठिन श्रम जैसी
लगातार मृत्यु की मार से
मैं लड़ता हूँ लड़ाई
रोग शोक भूख
घोर दुख के ख़तरनाक अन्धकार से
मैं लड़ता हूँ लड़ाई
और लड़ते ही लड़ते
एक दिन
चुपचाप शहीद हो जाता हूँ!
***
बसरा की लाइब्रेरियन की तरह
बसरा की लाइब्रेरियन की तरह
मैं खेतों को बचाऊँगा
खेतों को बचाऊँगा जैसे अपने
बेटी-बेटों को बचाऊँगा
टन टन टन टन बजा बजाकर टीना
मैं खेतों को बचाऊँगा।
जब साँय साँय
झींगुर बोलेंगे रातों को
हम मिलकर लुकाड़ जलाएँगे खेतों में
जब दहाड़-दहाड़ कर
हाथी चिंघाड़ेंगे
जब हमारा कलेजा धक धक धक करेगा
हम आवाज़ देंगे गला फाड़-फाड़ कर।
हम पहरा देंगे रात-भर नदी किनारे
जंगल के इस पार
हम दिन दिन भर बिजूका बनाएँगे
हम बनाकर पोस्टर खेतों में खतरे का
चिपका आएँगे
हम खोद कर मिट्टी बाँस धँसा देंगे
हम तार घेरेंगे
हम नदी किनारे ढूँढ़ा करेंगे सूखी लकड़ी
और जलावन ठंडी में आग के लिए।
जब समुंदरों में तेल और मछली और पानी के लिए छपाछप युद्ध चलेगा
यहाँ हल्ला-हुप्पाड़ मचेगा
उसी बीच बचायेंगे हम खेत को
हम अपने हिस्से लेकर रहेंगे शब्दों के खेत
क्योंकि हमारा भी है हक़
हमारा भी है पेट
श्रम के भाग में है भूख।
हम रोपकर वनफूल-पेड़
खेत बचाएँगे
हम तोड़ कर सारा गेट
खेत बचाएँगे
हम काटकर सारा मेड़
खेत बचाएँगे
खेत बचाएँगे मतलब सारा देश बचाएँगे
बचाने दो जो बचाएँगे धर्मग्रंथ लद्दाख लेह
हम नष्ट कर अपना देह
खेत बचाएँगे
हम कुदाल बचाएँगे कि आने वाली पीढ़ियाँ
इसी से कविता लिखती रहें और बच जाएँगे जब खेत
वहाँ रोपेंगे उम्मीद नाम की फ़सल
बोएँगे प्रेम बीज
उगेंगे गन्ने की आँखों की तरह
हाँ रोएँगे मेहनत के आँसू
लेकिन इस तरह का जीवन
हम नहीं जिएँगे
***
श्रम
इस दुनिया में खेतों के शब्दों से अधिक अर्थवान
कौन से शब्द होंगे
श्रमिक हथियारों से अधिक महत्वपूर्ण
कौन से हथियार होंगे
श्रम की कविता से अधिक सुंदर
कौन सी कविता होगी
जब हम दुनिया से कहेंगे शुक्रिया अलविदा
हम जी लिए किसी तरह
अंत में
कुछ दिनों के लिए
इन हाथों से छूट कर क्या बचा रह जाएगा
हमारे श्रम से बनाए हुए घर, कुदाल और अनाज के सिवा
***
गन्ने कैसे काटूँ मैं
गन्ने कैसे काटूँ मैं
इनमें रस है बहुत मीठा
गन्ने कैसे काटूँ मैं
इन पर आती है मुझे दया
गन्ने कैसे काटूँ मैं
कट जाएँगे हाथ पाँव
रस ही रस से भरे पोर-पोर
गुल्ला-गुल्ला
चिभने को
नहीं मिलेगी मधुमक्खियों को
गन्ने कैसे काटूँ मैं
छूट जाएगा संग साथ।
दुनिया को जरूरत है चीनी की
कोई कहता कि मुझे चाँद चाहिए
गन्ने कैसे काटूँ मैं
काट काट कर किन को किन को बाँटू मैं
कोई आता इधर से प्यासा
लिए चला जाता है दो तीन बोझा
काटने पर नहीं मिलता हथियार पजाने का पत्थर भी
सब देखता है चाँद ऊपर से
काटूँगा और लदकर चला जाएगा ट्रक में
चला जाएगा मिल में मशीन में
तब होगी इसकी क़ीमत
क़ीमत इसकी पहुँच जाएगी चाँद पर
हम तो रहेंगे ज़मीन पर
ज़मीन पर गन्ने की जड़ों में पानी देते।
गन्ने कैसे काटूँ मैं
इनमें रस है बहुत मीठा
गन्ने कैसे काटूँ मैं
इन पर आती है मुझे दया
गन्ने कैसे काटूँ मैं
कट जाएँगे हाथ पाँव।
***
श्रम की रेखा
खेतों के माथे पर जो आज ख़ून बहता है
वह रेखा है वह रेखा है
हल की रेखा है
श्रम की रेखा है
टेढ़ी-मेढ़ी हल की रेखा है
हाँ देखा है हाँ देखा है
कवि ने खेती की कविता करके देखा है
हर फ़सल धरती के कैनवास पर उतारी है
हर धक्का देखा है
हर मुक्की देखा है
हर वह दृश्य देखा है
कौन कितना खटता है
कौन कितना जांगर बचाता है
कौन बैलगाड़ी में बैल की तरह नधकर
कितना ऊँख ढोता है
कितना दुख ढोता है
कौन कितना ऊँख चीभता है
कौन कितना अधिक पेराता है
यह जानती हैं यह जानती हैं
रस चूसने वाली प्यारी मधुमक्खियाँ भी
जानती हैं
जानते हैं मूस भी
गिलहरियाँ भी
और बनिहारिन स्त्रियाँ भी
चिरईयाँ भी
हाँ मेरे साँवर गोईंयाँ भी
नदी नदी पानी पानी रेती रेती जंगल जंगल
सब कुछ हुआ देख लिया है
घूम कर तो वह कवि हुआ है
(छवि हुआ है
रवि हुआ है)
***
ये गेहूँ के उगने का समय है
हर रोज़ की तरह सूरज पूरब से उगेगा
खुला आसमान रहेगा और दूर-दूर से पंडुक आएँगे
मैनी चिरैया आएँगी
देसी परदेसी पंछी आएँगे
गेहूँ की निकली हुई पहली पहली डिभी को
मिट्टी में चोंच से गोद-गोद कर खाएँगे
इन्हें बच्चे हुलकाएँगे तो उड़ जाएँगे
ये गेहूँ के उगने का समय है
और देश में किसान हक़ के मोर्चे पर खड़े हैं
युगों की पीड़ा से सनी हुई मिट्टी
किसानों के लबों से बोल रही है
जिनके पास ज़्यादा खेत है
उन्हीं का भरा पेट है
दोष मिट्टी का नहीं
ज़मीन का ख़ून-पसीना लूटने वाले लोगों का है
ये गेहूँ के उगने का समय है
यह समय मौसम की फ़सल को
सही-सही लिखित मूल्य मिलने का समय है
यह समय हत्यारे गोदामों की ओर से
कुँवारी ज़मीन की ओर गेहूँ के लौटने का समय है!
***
अभी भी
अभी भी लिखने को बहुत कुछ बाक़ी है दुनिया में!
अभी भी जीने को बहुत जीवन बचा हुआ है
अभी भी मैं प्रेम करता हूँ तुमसे, ओ प्रिया!
मेरी प्रिया मेहनत! दिलो-जान की मालिक मेरी मेहनत!
अभी भी मेहनत के प्रति प्रेम समय के फ़्रेम में कसा हुआ है
अभी भी मेरा पेट भूखा है
इतने श्रम के आँच में जलकर अंजुरी-भर राख बनने के बाद भी
अभी भी मेरा होंठ सूखा है
इतने पसीने का पानी पीने के बाद भी
अभी भी मेरी कृशकाय आत्मा की मिट्टी
जिजीविषा की
प्रचंड अग्नि में धधक रही है
अभी भी जीवन है अशेष
फूलों की तरह चढ़ जाने के लिए
खेती की वेदी पर!!
***
मेरे मित्र
कोई मित्र नहीं। मित्र बिना ठीक नहीं।
काँटों में से उड़द की फ़सल काटते-काटते
ख़ूनमख़ून हो गए हैं हाथ-पाँव।
गाँव में दिन डूब गया है। साँझ हो गई है। अच्छा नहीं लगता।
अच्छा नहीं लगता उन्हें भी। जिनके नहीं कोई मित्र।
जिनके साथ खटने वाला कोई नहीं।
बहता ख़ून तक भी बंद करने वाला कोई नहीं।
ज़मीन की ओर झुकते हुए काँटों से लगकर
जब नाक से बहता है लहू।
वो लहू मुँह में चला जाता है।
हम जीभ से चख लेते हैं
अपने श्रम के ख़ून का स्वाद।
आबाद रहें जो कभी खेत में खटते हुए
ख़ून नहीं बहा पाए।
बर्बाद भी मत हों वे
जो अब तक खटते हुए रोते आए हैं।
अभी भी जिनके हाथ पाँव दुख के ख़ून से लथपथ हैं।
वे काट रहे हैं। समुंदर तक काट रहे हैं।
काट रहे हैं जहाँ तक भूख के हँसुए काट रहे हैं फ़सल।
और झेल रहे हैं कठिनाइयों के युद्ध भयंकर।
वे सभी मेरे मित्र हैं। वे मेरे सहपाठी।
वे मेरे कविता के विचित्र चित्र हैं।
जब भी अगर बारिश गिरेगी उनके खुरदुरे जख़्मों पर
वहाँ ज़रा भी अगर मिट्टी का संपर्क होगा
उग आएगी वहीं खेती
खेती वहीं उग आएगी और उन नदियों से उन श्रमिकों से
कर लेगी दोस्ती।
***
पैसा कहाँ चला गया मेरा पैसा
पैसा कहाँ चला गया मेरा पैसा
पैसा मेरे घर में अब क्यों नहीं दिखता
पैसा कहाँ चला गया मेरा पैसा
किस ट्रक में चला गया मेरा पैसा
जिस ट्रक में चला गया मेरा कुल पैसा
उस ट्रक में चला गया खूँटे से बँधी रस्सी तोड़कर
मेरी हाड़ तोड़ मेहनत का भैंसा भी
बहुत दिन हो गए
देखे हुए उसे
जर्जर हाथ में लपेटे हुए बीड़ी की तरह
अब दिखाई नहीं देता
अब क्यूँ नहीं दिखाई देता
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा उसे
घर के भीतर बाहर
नहीं मिला कहीं
मिले तो बस
मूस और दीमक खाए हुए अपने ही काम करने वाले कपड़े
कहाँ चला गया मेरा सारा पैसा
क्या अब लौट कर नहीं आएगा मेरा पैसा
इन हाथों के मैल की तरह भी।
***
मृत्यु का स्पर्श
क्या आपने कभी मृत्यु का स्पर्श किया है
मैंने किया है
इसे स्पर्श करने के लिए
करनी पड़ती है खेतों में बहुत
बहुत मेहनत
बहुत बहुत मेहनत
बहुत बहुत मेहनत करने से
सिहर जाती है आत्मा
एड़ी से चोटी तक पसीने से लथपथ
पानी की तरह बहने लगती है करुणा
मेहनतकश के हृदय में छल छल।
***
ताक़त
मैंने शब्दों को
खेतों में खटते
देखा है
मैंने मेहनतकशों को
हाँफते
और चक्कर खाकर गिरते
देखा है
मैंने महिलाओं को
उनके गर्भ के अंतिम दिनों में भी
खरपतवार
बीनते देखा है
लेखक!
तुम
कौन से
सड़ते शब्दों से
ताक़तवरों को और ताक़त देते हो
ज़रा मुझे भी दो
मुझे चाहिए
खेतों में
रोपाई निराई गुड़ाई और कटाई करने को
बहुत ताक़त
बहुत ताक़त।
[आलोचना सहस्त्राब्दी अंक-71 में प्रकाशित]