अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ

आधुनिक व्यक्ति-मनुष्य के रूप में एक मुसलमान जिन बहुआयामी अस्मिताओं का वहन करता है, उन सभी को मिटाकर पहले उसे सिर्फ़ जाहिल मुसलमान की अपमानजनक इकहरी अस्मिता में अवक्रमित किया जाता है और फिर इसी के नाम पर सार्वजनिक हिंसा का निशाना बनने के लिए छोड़ दिया जाता है। अदनान की कविताएँ इस दृश्य-अदृश्य हिंसा को हिंदुस्तानी मुसलमान के अनुभव-संसार में पकड़ती हैं, लेकिन उनमें दुनिया भर के उत्पीड़ितों की आवाज सुनी जा सकती है।

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अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ वर्तमान विश्व-परिस्थितियों के मानवीय आशय को उद्घाटित करने की कोशिश करती हैं।

आज दुनिया भर में लोकतांत्रिक संस्कार, मूल्य और संस्थाएँ अभूतपूर्व दबाव का सामना कर रही हैं। लोकतंत्र के विचार की सर्वस्वीकार्य पवित्रता समाप्त हो चुकी है। आज आम जन के कुछ हिस्सों को राष्ट्र और धर्म के नाम पर लोकतंत्र के विध्वंस का जश्न मनाने के लिए तैयार किया जा चुका है। ऐसे में स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का भी वही हश्र हो, यह स्वाभाविक है।

इन्हीं परिस्थितियों में फ़ासीवाद के नए अवतारों को पहचाना जा सकता है।

अंधराष्ट्रवाद और वर्चस्ववादी धार्मिक सांप्रदायिक उन्माद ने इन परिस्थितियों को और अधिक प्रगाढ़ बनाया है। यूरोप-अमरीका के अनेक देशों में, और भारत में भी, मुसलमानों को नए ‘अछूतों’ के रूप में चिह्नित करने की कोशिशें चल रही हैं। कुछ वैसी ही, जैसी कभी यहूदियों के साथ हुई थीं।

आधुनिक व्यक्ति-मनुष्य के रूप में एक मुसलमान जिन बहुआयामी अस्मिताओं का वहन करता है, उन सभी को मिटाकर पहले उसे सिर्फ़ जाहिल मुसलमान की अपमानजनक इकहरी अस्मिता में अवक्रमित किया जाता है और फिर इसी के नाम पर सार्वजनिक हिंसा का निशाना बनने के लिए छोड़ दिया जाता है। अदनान की कविताएँ इस दृश्य-अदृश्य हिंसा को हिंदुस्तानी मुसलमान के अनुभव-संसार में पकड़ती हैं, लेकिन उनमें दुनिया भर के उत्पीड़ितों की आवाज सुनी जा सकती है।

प्रस्तुत हैं :

निकालो बाहर

निकालो बाहर मेरे लहू से मेरी खामोशियाँ
मेरी हैरत, मेरी सरगोशियाँ
निकालो! निकालो! उस क़दीमी मायूसी को
जो निकलती नहीं किसी करवट
उस मामूलीपन को भी निकालो
जो याद आता है छुटपन की तरह

निकालो! निकालो!
मेरे लहू से मेरे खोए हुए असरार
निकालो मेरे लहू से मेरा बिलखना,
मेरी पुकार
निकालो मेरी ठंडी रूह को
उस हौलनाक अँधेरे से
जहाँ वो कब से पड़ी है साकित

निकालो! निकालो!
मुझसे मेरी उलझनें,
मेरी नाचारी
मेरे लहू में उतारो अपने खंजर
अपने तिरशूल
अपनी तलवारें
अपनी पिस्तौल

निकालो! निकालो!
मेरे लहू से शरारे निकालो
मेरे लहू से शहर के शहर
सहरा के सहरा
दश्त के दश्त
निकालो मेरे लहू से मेरी बेचैनियाँ,
मेरी तड़प

निकालो मेरे लहू से अपने आहन
अपना सोना
अपने शीशे
अपने जहाज
अपना फ़रेब, अपना झूठ
निकालो बाहर मुझसे अपनी तस्वीरें
निकालो! निकालो!
मेरे लहू में तैरती अपनी गड़ती आँखें

निकालो बाहर मुझसे जानवरों के रेवड़
मुझसे बाहर निकालो मेरी उदास शामें,
मेरी रातों के रतजगे
मेरी सुब्ह की चटख
मेरी बरहनगी
मेरे शोले, मेरे बुत, मेरी रौशनाई
निकालो बाहर मेरे लहू से बेशुमार सनमकदे, मनादिर और कलश और कँवल और राख

मेरे लहू से निकालो अपने ख़ुदाओं को
खुदा के लिए एक-एक कर अब…
***

सुनो!

ऐ मेरी रूह!
तुम हो अगर यहीं कहीं तो सुनो!
इस लगातार होती अजीब खिट-पिट को
जैसे कोई बढ़ई सुधार रहा हो
दरवाजे की चूलें आधी रात

सुनो उन क़दमों की बाज़गश्त
जिनके कच्चे निशान
मेढ़ों में खो गए…

ध्यान से सुनो किसी के घिसटने की आवाज

सुनो फाटक की चुर-मुर
और जंजीरों की उठा-पटक
देर रात सिकड़ी का डोलना सुनो
ध्यान से सुनो ये चिटकने और भसकने की आवाज़

सुनो ये खुस-फुस
ये अजीब-सी सरसराहट

सुनो ये गुदबुद-सी डूबने की आवाज़
सुनो सान चढ़ते हथियार की आवाज़
सुनो गर्म लोहे के ठंडे पानी में उतरने की ये आवाज़

सुनो! तुम्हें सुनना पड़ेगा
दूर जाते टापों की इस आवाज़ को

सुनो भयभीत नब्ज़ों में उतरने वाली
सलाख़ों की ये आवाज़
सुनो किसी के दम घुटने की ये आवाज़
सुनो डूबते दिल की टूटती-सी आवाज़
सुनो ये किसी के सिहरने की आवाज़

सुनो उस आवाज़ को जो अब ख़ामोश हो गई
सुनो उस आवाज़ को जो उठ भी नहीं पाती
सुनो उस आवाज़ को जो लहू में बजती है
सुनो इससे पहले कि छुप जाएँ ये सब आवाज़ें
किसी जुलूस के भीषण शोर में।
***

मंजिल वाया जयपुर-बंबई

मैं बदनसीब खानदानी कारीगर
चूड़ियाँ बेचता था हजूर
फ़िलवक़्त मंदा पड़ चुका था काम
मुश्किल हो रही थी गुज़र-बसर
सो जयपुर से बंबई जा रहा था
अपनी क़िस्मत आज़माने

अकूत मायूसियों का बोझ ढोती रेल
जब छील रही थी पटरियाँ
आपने पूछा था मेरा नाम
और हवा में लहराई थी पिस्तौल
मैं समझ चुका था आगे का हाल
अपनी निजात की राह
दरअस्ल क़ुसूर तो मेरी पैदाइश का ही था,
आपका नहीं
क़त्ल!
वो कब हुआ?
मैं ही आपकी पिस्तौल की गोली को चूमते हुए
अचानक गिर पड़ा था फ़र्श पर औंधे मुँह

मंजिल तक पहुँचाने के लिए आपका शुक्रिया।
***

आतिथ्य

ईंट और गारे की बनी इबादतगाहें और
दूकानात फूँक कर
आपको खासी झुँझलाहट तो हुई होगी
इस शोरो-ग़ौग़ै में थक तो गए होंगे आप
आखिरकार ठीक जगह आ ही गए
अपने दिल की ठंडक का सामान करने के लिए
वैसे भी अब हमारे तहफ़्फ़ुज़ को कोई न आएगा
हुकूमत और पुलिस को आपकी फ़िक्र हो रही होगी

इसलिए क़रीब आएँ
दम ले लें
पहले पानी पिएँगे या लहू?
वैसे इस दम ये सवाल भी कितना बेमानी है न!

छोड़ें!
ये रही शहरग
सो जल्दी-जल्दी यहाँ चीरा लगाएँ
और खूब तसल्ली से पिएँ
ये लाल-लाल लहू
जिसके आप प्यासे हैं ख़ूब
जो है बिल्कुल ख़ालिस, ताज़ा, ठंडा और मोहमडन।
***

भी

शब्द भी
नाकाफ़ी हो जाते हैं कभी-कभी
बयान करने में अक्सर
क़ासिर हो जाती है ज़ुबान
गलते अंगों की तरह
कट-कट कर गिरती जाती है भाषा
व्याकरण की पीठ से बहने लगता है मवाद

मैं वहशत में फाड़ने लगता हूँ विराम-चिह्नों को
और उधेड़ने लगता हूँ भाषा की सुघड़ बुनाई
कविता, मिट्टी के लोंदे की तरह
थसक कर रह जाती है
किसी अदृश्य तगाड़ी में
जिसे एक स्त्री, दुनिया की शुरुवात से ही
ढो रही है अपने सिर पर

जिन्हें माँ के गर्भ में भी
नंगा करने को उद्धत हैं हत्यारे
उन स्त्रियों के लिए मैं
फफकता हूँ देर रात
भीतर कोई धारदार हथियार से जैसे
खरोंचता है मुझे
दृश्य, तलवार की तरह चमचमाते हैं
और मैं सोचता हूँ
कितने समुद्रों का पानी
दरकार होगा
बुझाने के लिए
इस कमबख़्त धधकते सूर्य को…
***

शर्मनाक समय

इस शर्मनाक समय में
कविताएँ भी थीं लहूलुहान
और भेज रही थीं कवियों पर
बेशुमार लानतें…

वो इतनी विचलित थीं
कि मिटा देना चाहती थीं
अपने लिखने वालों के ही नाम…
***

नन्हे मियाँ चिश्ती

(उन तमाम बुज़ुर्गों के नाम जिनकी मज़ार रात के अँधेरों और दिन के उजालों में तोड़ डाली गईं)

दरअस्ल
दिन के जबड़े में थी
आपके मज़ार की एक-एक ईंट
आसमान था हर वक़्त आपका निगहबाँ
रात ने तो बस
सबकुछ बराबर कर दिया
चुपचाप…

इस तलातुम में आप ख़ुदा से लौ लगाए
सोते हैं चैन की नींद!
बहुत दिन जी लिये की तरह ही
बहुत दिन मर लिये आप ऐ बुज़ुर्ग!
क़यामत का दूर-दूर तक कोई निशान नहीं
रोज़े-हश्र में अभी काफ़ी वक़्त है
उससे पहले उठें
अपने मुसलमान होने की सज़ा भुगत लें।
***

विश्वास

मुझे विश्वास रखना चाहिए
जब विश्वास लायक
कुछ न बचा हो

मुझे विश्वास रखना चाहिए
जिनसे कोई
उम्मीद न हो

मुझे विश्वास रखना चाहिए
जिसका कोई
भविष्य न हो

मुझे विश्वास रखना ही चाहिए
कि मेरी गर्दन पर
आपका ही छुरा है
***

ऐसा नहीं है

ऐसा नहीं है कि हमें ज़िन्दगी अज़ीज़ नहीं
ऐसा नहीं है कि हम कायर हैं
ऐसा नहीं है कि हमें फूल बुरे लगते हैं
ऐसा नहीं है कि हम कामचोर हैं
ऐसा नहीं है कि हमें आलूबुख़ारा बहुत पसंद है
ऐसा नहीं है कि हम रोटी में चावल भरने के आदी हैं
ऐसा नहीं है कि आप हमारे दोस्त नहीं रहे
बात बस इतनी है कि छत्तीस का पहाड़ा, छत्तीस का पहाड़ा है
और हमें अब किसी चीज से कोई उम्मीद नहीं रही।
***

हंगाम

ये एक ख़ून से भरी अँधेरी सुरंग है
जिसमें हम फिसलते चले जा रहे हैं

दरख़्त खून में डूबे हैं
हवा में ख़ून की बू है
आसमान ख़ून माँग रहा है
चाँद को भी ख़ून चाहिए
ये एक गहरी साज़िश है :
धरती ग़ायब हो रही है
उसकी जगह ख़ून के टीले
ख़ून के पहाड़
ख़ून की झीलें
और ख़ून के रेगिस्तान ज़ेरे-ता’मीर हैं
दिन का दस्तार ख़ून में लिथड़ा है
रात की कम्बल खून से भारी है
इस हंगाम में ख़ून की फ़रावानी ज़रूरी है
फ़क़त दिमाग में ख़ून की तेज हलचल है
अफ़सोस! दिल अब ख़ून से ख़ाली हैं।
***

छुटकारा

एक दिलफ़रेब ख़ाब था
या कोई और दुनिया का मख़्सूस वक़्फ़ा
बताना मुश्किल है…
लेकिन उससे भी मुश्किल ये है
कि जब आँख खुली
मैं मेज़ पर रखे रान की तरह पड़ा था
और मेरे गिर्दो-पेश
एक चार सौ साल पुरानी
तारीकी थी
जिसमें मैं
सिक्के की तरह खनकता था

मुझे रुई के गोले में बदलकर
एक टिन के बक्स में
हिफ़ाज़त से रखा गया
किसी का जख़्म साफ़ करने के लिए

मुझे आबनूस की लकड़ी के फ्रेम में
आईना बनाकर
जड़ दिया गया
और शहर की फ़सील पर
लटकाया गया

मैं सैकड़ों साल तक मनो धूल खाता
और पानी पीता रहा
मेरी लकड़ी को मुलायम समझ
खून और वीर्य पोंछे गए
जिनके निशान
आबनूस में ग़ायब हो जाते…

मैंने अंग के मैदान से
उठते शोर को
गहराई से महसूस किया
जब मेरा शीशा
चटख़ गया
और मैं
अपने आबनूस से
लगभग आज़ाद हो गया…

लेकिन सवाल था
अभी मेरे पास सिर्फ़ दो हाथ और आधा धड़ थे
मेरे पैर अभी भी क़िले के अंदरूनी हिस्से में दफ़्न थे
मुझे उन्हें पाने के लिए
अपनी ज़ुबान का सौदा करना पड़ा

मुझे एक दरख़्त की ठंडी छाँव में ले जाया गया
जब मैं अपनी तलवार खो चुका था
अपनी ज़ुबान गिरवी रख चुका था
अपनी क़लम तोड़ चुका था
मुझे एक हैबतनाक वाक़ये का किरदार बनाया गया
मुझे नई ज़ुबान पहनाई गई
मुझे एक नई तलवार दी गई
मुझे एक सफ़ेद घोड़े पर
यूँ महाज़ पर रवाना कर दिया गया
जैसे इसी दिन के लिए में पैदा हुआ था
जैसे यही मेरा ख़ाब था
यही मेरा किरदार

मैंने लगाम खाँची और मेरे हाथ उखड़ गए
मैंने सदाएँ देनी चाहीं और मेरी जबान खो गई

मैं घोड़े से उतर गया
और उसके खुरों से
नाल निकाल कर
उसे आजाद कर दिया
और मैं अपने हाथ
और ज़बान के इंतज़ार में
रस्ते के किनारे
वहीं लेट गया
और जब मेरी आँख खुली
मैं मेज़ पर रखे रान की तरह पड़ा था

मैंने इस तरह ख़ाब और जिस्म
दोनों से छुटकारा किया।

 

[अदनान कफ़ील दरवेश के दो कविता संग्रह―’नीली बयाज’ और ‘ठिठरते लैम्प पोस्ट’ प्रकाशित हैं। संग्रह यहाँ उपलब्ध हैं।]

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