भारत विभाजन: राजनीति, ज्ञान मीमांसा और प्रतिरोध

विभाजन का सम्भव होना ही भारत की प्रसिद्ध गंगा-जमुनी तहजीब और बहुलात्म संस्कृति पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली घटना थी। भारतीय सभ्यता की बहुलात्मता का विध्वंस उसके सभी वारिसों की साझा…

‘कोई क्या कल्लेगा?’ : सुधीश-संगत पर एक नातिदीर्घ टिप्पणी

सुधीश पचौरी के साथ हिंदी की दुनिया ने बड़ा अन्याय किया है। कुछ भी लिख-बोल जाते हैं, कोई जवाब देके राज़ी नहीं। बहुत पहले एक वरिष्ठ साथी से एक गॉसिप…

‘आलोचना’ क्यों? शिवदान सिंह चौहान का सम्पादकीय

प्रगतिवादी आलोचना यदि इसी प्रकार अपने वैज्ञानिक और रचनात्मक पथ पर अग्रसर होती रहती तो सम्भवतः आज की-सी अराजकता न फैली होती। हमारा आलोचना-साहित्य अधिक सम्पूर्ण और उच्च कोटि का…

आलोचना के युवा लेखकों से

हम और आप आलोचना को सभ्यता-समीक्षा के एक साझा उपक्रम के रूप में देखते हैं। हम मानव-सभ्यताओं की एक साझा आलोचना विकसित करने के सहयोगी प्रयास में शामिल हैं। दूसरे…

अकाल का ख़बरनवीस : चित्तप्रसाद के रिपोर्ताज़

“हंग्री बेंगाल चित्तप्रसाद की एक ऐसी रचना है, जिसमें हम उनके मार्मिक लेखों और चित्रों को एक साथ पाते हैं। इस रिपोर्ताज में असहाय और निरन्न जनता की व्यथा-कथा की…

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एक आत्मसाक्षात्कार

दलित लेखन और स्त्री लेखन की अलग श्रेणियाँ बनने का यह दुष्परिणाम है कि आलोचना मात्र की बात आने पर उनका ध्यान ही नहीं आता; जब दलित और स्त्री आलोचना…

‘यौनिकता, अश्लीलता और साम्प्रदायिकता’ तथा औपनिवेशिक उत्तर प्रदेश में ‘हिन्दू पहचान’ का निर्माण

“दरअसल ‘स्वच्छ’ और ‘अश्लील’ के आधार पर साहित्य का विभाजन पूरी तरह से एक निरर्थक कोशिश है। इसका हिन्दुस्तान की साहित्यिक परम्पराओं से कोई लेना-देना नहीं था। खोजने से भी…

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हिंदी आलोचना का आत्मसंघर्ष और नामवर सिंह

नामवर जी मानते हैं कि भारत में फ़ासीवादी विचारधारा के बीज खुद भारत की ‘महान परम्परा’ में मौजूद थे, लेकिन ज़रूरी खाद-पानी मुहैया कर उसकी भरपूर फसल उगाने का काम…