आलोचना का परिचय
स्वतंत्रता के बाद देश और खास तौर पर हिन्दी समाज को एक वैचारिक नेतृत्व की जरूरत थी। इसी उद्देश्य को लेकर ‘आलोचना’ सामने आई। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस त्रैमासिक पत्रिका का पहला अंक अक्तूबर 1951 में आया; और पहले ही अंक से उसने अपनी क्षमता और उद्देश्यों को स्पष्ट रूप में रेखांकित कर दिया।
‘आलोचना’ को सिर्फ साहित्यिक विमर्शों और समीक्षा आदि की पत्रिका नहीं होना था, और वह हुई भी नहीं। उसकी चिन्ता के दायरे में इतिहास, संस्कृति, समाज से लेकर राजनीति और अर्थव्यवस्था तक सभी कुछ था। विश्व के वैचारिक आन्दोलनों और अवधारणाओं को भी उसने बराबर अपनी निगाह में रखा। इसी विराट दृष्टि के चलते ‘आलोचना’ हिन्दी मनीषा के लिए एक नेतृत्वकारी मंच के रूप में सामने आई, और धीरे-धीरे मानक बन गई।
‘आलोचना’ के सम्पादक बदले, लेकिन उसकी दृष्टि का दायरा और फोकस कभी नहीं बदला। आज भी, वह लोकतांत्रिक प्रगतिशील और समतावादी मूल्यों के पक्ष में साहसपूर्वक खड़ी हुई है। इस वेबसाइट के माध्यम से हम ‘आलोचना’ के इन्हीं मूल्यों को और दूर तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं।