आलोचना का इतिहास
आलोचना को महज़ साहित्यिक समीक्षा नहीं, बल्कि सभ्यता-समीक्षा मानते हुए आलोचना त्रैमासिक का आरम्भ 1951 में दिल्ली से हुआ। प्रकाशक थे राजकमल प्रकाशन के देवराज जी जिनके स्थान पर कुछ समय के बाद ओंप्रकाश जी आये। पहले संपादक थे― विख्यात आलोचक शिवदान सिंह चौहान। गोपालकृष्ण कौल और क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ ने पत्रिका के प्रारम्भिक अंकों (1951-1953) में ‘सहकारी सहायक’ की भूमिका निभाई थी। नामवर जी का नाम औपचारिक रूप से अक्टूबर, 1952 के आलोचना के बहुचर्चित ‘इतिहास विशेषांक’ में सह-सम्पादक के रूप में आया।
पत्रिका ने पहले ही अंक से सिद्ध कर दिया था कि वह अन्य पत्रिकाओं से कई अर्थों में अलग थी। इसके प्रथम अंक में केवल साहित्यिक कृतियों की आलोचना या समीक्षा ही नहीं थी बल्कि ‘भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण’ (दि.के. बेडेकर), ‘शूद्रों की खोज’ (डॉ. महादेव साहा), ‘प्राचीन भारतीय वेशभूषा’ (डॉ. रांगेय राघव) जैसे समाजशास्त्रीय विषयों पर भी उत्कृष्ट सामग्री थी। इस अंक के आलेखों में पर्याप्त विविधता थी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा’ पर लिखा था तो प्रकाश चन्द्र गुप्त ने ‘गोस्वामी तुलसीदास’ पर। डॉ. देवराज ने ‘समाजशास्त्रीय आलोचना’ की रूपरेखा बनाई थी तो बाबू गुलाब राय ने ‘भारतीय आलोचना-पद्धति’ की विशेषताओं को रेखांकित किया था, तो वहीं हिन्दी-उर्दू की साझी साहित्यिक विरासत को एहतेशाम हुसैन ने ‘उर्दू भाषा की उत्पत्ति और उसका प्रारम्भिक विकास’ में चिन्हित किया था।
पहले अंक में ही आलोचना ने विमर्श की वह शृंखला आरम्भ की, जो बाद में इसकी प्रखर पहचान बनी। इसे नाम दिया गया था : ‘प्रस्तुत प्रश्न’। पहले अंक का ‘प्रस्तुत प्रश्न’ स्वयं शिवदान जी ने ‘साहित्य में संयुक्त मोर्चा’ नाम से लिखा था।
पहले अंक का इतने विस्तार से परिचय देने का उद्देश्य यहाँ पर यही है कि मोटे तौर पर यही वह खाका है जिसका निर्वाह आलोचना आज तक कर रही है।
प्रारम्भिक छ: अंकों के बाद आलोचना के सम्पादक-मंडल के रूप में चार लेखकों ने पत्रिका को अपने हाथों में लिया। वे लेखक थे डॉ. धर्मवीर भारती, रघुवंश, विजयदेवनारायण साही और ब्रजेश्वर वर्मा। इस नये सम्पादक-मंडल ने अप्रैल, 1953 से जनवरी, 1956 तक अर्थात् अंक-7 से अंक-17 तक आलोचना का सम्पादन किया। इस दौरान प्रकाशित हुए महत्त्वपूर्ण अंकों में अक्टूबर, 1953 का आलोचना विशेषांक तथा अक्टूबर, 1954 का ‘उपन्यास विशेषांक’ रहे जिनमें उपरोक्त विधाओं पर विविधतापूर्ण सामग्री पाठकों को उपलब्ध हुई।
अप्रैल, 1956 में आलोचना के सम्पादकीय विभाग में पुन: बदलाव आया। वाम एवं दक्षिणपंथी लेखकों में सबको साथ लेकर चलनेवाले उदारवादी छवि के साहित्यकार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी आलोचना के संपादक बने। लगभग तीन बरसों के अपने कार्यकाल में उन्होंने आलोचना में प्रगतिशील और प्रयोगवादी, दोनों आंदोलनों को जगह दी। उनके सम्पादकत्व में, अप्रैल एवं जुलाई, 1956 में, ‘नाटक’ के दो विशेषांक तथा जनवरी, 1959 एवं अप्रैल, 1959 में ‘काव्यालोचन’ के दो विशेषांक निकले, जो बेहद चर्चित हुए।
अक्टूबर, 1957 (पूर्णांक-24) के बाद पत्रिका के प्रकाशन में व्यवधान आया, एक वर्ष तक पत्रिका का कोई अंक नहीं निकला। एक दीर्घ विराम के बाद अंक-26 (अप्रैल, 1959 के बाद) आया, और आलोचना 4 बरसों के लिए स्थगित रही। चार साल बाद 1963 में शिवदानसिंह चौहान के संपादकत्व में पुन: आलोचना की यात्रा प्रारम्भ हुई। इस यात्रा के पहले अंक को नवांक-1 कहा गया। अपनी इस दूसरी पारी में शिवदान जी ने जुलाई, 1963 से दिसम्बर, 1966 तक आलोचना के ग्यारह अंक निकाले। इनमें से पाँच अंक (पूर्णांक-33, 34, 35, 36, 37) ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य’ की विविध विधाओं पर केन्द्रित विशेषांक थे जिन्हें आलोचना के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है। दिसम्बर, 1966 का आलोचना अंक शिवदान जी के सम्पादकत्व में निकलनेवाला अन्तिम अंक था।
जनवरी, 1967 से डॉ. नामवर सिंह सम्पादक के रूप में आलोचना से जुड़े और उनके सम्पादकत्व में आलोचना का एक नया युग प्रारम्भ हुआ। अपने सुदीर्घ सम्पादन-काल (अप्रैल-जून, 1967 से लेकर अप्रैल-जून, 1990 एवं अप्रैल-जून, 2000 से अप्रैल-जून, 2019 तक) में नामवर जी ने आलोचना को सतत समृद्ध किया। अपने सम्पादकीय लेखों एवं बहसों के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य को वह रचनात्मक ऊर्जा दी जिसका साक्षी पूरा एक युग है। उन्होंने आलोचना को साहित्य और साहित्यकारों के समग्र मूल्यांकन का माध्यम बनाया। उनके सम्पादन में जो अंक निकले उनमें प्रमुख हैं :
आलोचना पत्रिका का सम्पादन पहले कई वर्षों तक नामवर सिंह ने स्वयं किया। 1981 से 1985 तक नंदकिशोर नवल इसके सह-सम्पादक रहे। 1986 से 1990 तक परमानन्द श्रीवास्तव।
पुनर्नवा आलोचना 2000 से प्रकाशित होना शुरू हुई तो नामवर सिंह के प्रधान सम्पादत्व में पत्रिका का सम्पादकीय दायित्व परमानन्द श्रीवास्तव ने संभाला। इसके प्रारम्भिक चार अंकों में सह-सम्पादक अरविन्द त्रिपाठी थे। इस दौरान पत्रिका के कई महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित हुए जिनमें प्रमुख हैं :
इसके अलावा कई साहित्यकार-केन्द्रित अंक चर्चित हुए :
सहस्राब्दी अंक पच्चीस से परमानन्द श्रीवास्तव का स्थान वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने लिया। उनके संपादकत्व में पत्रिका के कुछ विषय-केन्द्रित चर्चित अंक संभव हुए :
अरुण कमल के उपरांत सुपरिचित विचारक एवं आलोचक अपूर्वानंद आलोचना के संपादक हुए। आपके संपादन काल में पत्रिका के चार अंक प्रकाशित हुए जिनमें ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा-1’ (जनवरी-मार्च, 2015; सहस्राब्दी अंक-53), ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा-2’ (अप्रैल-मई, 2015; सहस्राब्दी अंक-54) आज भी याद किए जाते हैं।
अंक 59 से आलोचना का सम्पादकीय भार आशुतोष कुमार एवं संजीव कुमार के हाथों में हैं। इनके पहले ही दो विशेषांक ‘विभाजन का सत्तर साल-1’ (जनवरी-मार्च, 2019; सहस्राब्दी अंक-59), ‘विभाजन का सत्तर साल-2’ (अप्रैल-जून, 2019; सहस्राब्दी अंक-60) ने पर्याप्त चर्चा पायी। इस अंक में विभाजन की सामाजिक और सांस्कृतिक परीणतियों की पड़ताल करने पर विशेष जोर था, लेकिन विभाजन के राजनीतिक इतिहास से संबंधित नई खोजों पर आधारित अनेक मौलिक लेख भी थे, जिनसे हिंदी के साहित्यिक समाज को विभाजन के बारे में नए ढंग से सोचने उकसावा मिला। विभाजन को एक बीत चुकी त्रासदी की तरह नहीं बल्कि भविष्य की ओर निरंतर गतिशील एक त्रासद ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में सोचने की चुनौती मिली।
दोनों संपादकों का पहला अंक 2019 में आया था। तब से लेकर आज तक नए दौर की आलोचना में गंभीर साहित्यिक बहसों को ख़ास जगह दी गई है।
शमशेर बहादुर सिंह की सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ पर केंद्रित कवि आलोचक सविता सिंह की स्त्रीवादी आलोचना पर कई अंकों में बहस चली। अभी कई अंकों से प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ की दलित आलोचना पर बहस जारी है। कथाकार-आलोचक रणेन्द्र ने ‘रेणु’ की कथा शैली पर गंभीर बहस तलब लेख लिखा। भक्ति काल, रीतिकाल और 19वीं सदी के नवजागरण पर लगातार बहसतलब लेख लिखे गए। चारु सिंह, हिमांशु पंड्या, रमेश बरनवाल और विनीत कुमार सरीखे युवाशोध प्रवण आलोचकों को प्रतिभा को मंच देने की जिम्मेदारी भी आलोचना ने निभाई।
आलोचना के नए दौर की पहचान चित्रकला सिनेमा और मीडिया पर लगातार गंभीर आलोचनात्मक सामग्री प्रकाशित करने से भी बनी है, ऐसे दौर में आलोचना में कहानियों के साथ एक प्रयोग किया गया। योगेंद्र आहूजा तथा अनिल यादव जैसे लेखकों की कहानियां छपीं और चर्चित हुईं। दुनिया भर में छपने वाली ताज़ा किताबों पर केंद्रित गोपाल प्रधान के कॉलम ‘किताबनामा’ को भी पाठकों का भरपूर ध्यान मिला। नए दौर में संपादकीय के अलावा संपादकों की ओर से ही अंक के अंतिम लेख के रूप में ‘आख़िरी सफ़ा’ की परंपरा शुरू हुई जो लगातार जारी है। संपादकीय और ‘आख़िरी सफ़ा’ के अनेक रूपों में समकालीन सांस्कृतिक राजनीतिक विमर्श की धारदार आलोचना पढ़ने को मिलती रही और ये लेख पत्रिका के विशेष आकर्षण का साधन बने। इन दिनों हमारे समय में हिंदी कविता के संकट पर केंद्रित आलोचना के कविता अंक की उत्सुकता से प्रतीक्षा की जा रही है।